-पद्मजा शर्मा-
‘अब तो जयपुर का ही हो गया। गाँव में बारहवीं की परीक्षा देकर इधर आ गया। पास हुआ। राजस्थान विश्वविद्यालय से बी.ए. कर रहा था। इच्छा थी अफसर बनूँगा पर नहीं बन सका। तब पिताजी ठीक ठाक कमा लिया करते थे। फैक्ट्री में काम करते थे। हम दो भाई बहन थे। पर अचानक ही एक दिन खबर आई कि मशीन में पिताजी का हाथ कट गया। फिर तो घर की स्थिति बिगड़ती चली गई। घर में कमाने वाला कोई नहीं था। अंतिम वर्ष की परीक्षा नहीं दे पाया। जैसे तैसे करके कंप्यूटर कोर्स किया। ड्राइविंग सीखी। कुछ समय के लिए एक कंपनी में कंप्यूटर ऑपरेटर का काम किया। फिर कुछ ठीक रुपये मिल रहे थे तो वहीं ड्राइवरी की। अब तो स्टंप्ड ड्राइवर हो गया।’
‘महीने का कितना कमा लेते हो?’
‘दस हजार।’
‘यह गाड़ी आपकी है?’
‘मालिक कोई और है। बुकिंग मेरे हैंड ओवर रहती है। बीस हजार के आस-पास गाड़ी छोड़ती है महीने का। इसमें गाड़ी की किश्त भी चुकानी होती है। सारा दारोमदार बुकिंग और मेहनत पर है। थोड़ा ऊपर नीचे तो चलता रहता है। गाड़ी का एक्सीडेंट हो जाए, कुछ डैमेज हो जाए उसकी जिम्मेवारी मेरी रहती है।’
‘अपने यहाँ सड़कें बहुत खराब हैं। दुर्घटना का डर बना रहता होगा?’
‘अब साध लिया, सब सड़कों, रास्तों को। ये डराते नहीं। अपना सेफ रास्ता निकाल लेता हूँ।’
‘मालिक को क्या मिलता है?’
‘उसकी गाड़ी फ्री हो रही है। रनिंग गाड़ी सेफ रहती है।’
‘क्या आपको लगता है, आपका भविष्य सेफ है इस गाड़ी के चलते?’
‘कुछ नहीं कह सकते, मैडम। जब जीवन ही अनसेफ है तो भविष्य कैसे सेफ होगा? फिर सड़क पर चलने वाले बंदे को तो जान हथेली पर रखकर चलना होता है। पर मैं मौत से डरता नहीं। जानता हूँ कि जितना पेट्रोल है उतना ही चलेगी गाड़ी। जिंदगी की गाड़ी और इस गाड़ी में एक ही फर्क है।
‘क्या’?
‘जिंदगी की गाड़ी में पेट्रोल एक ही बार डलता है।’
‘बाहर गाँव जाते हो। घर की चिंता नहीं रहती?’
‘बस ये ही सोचता हूँ कि परिवार को जिस तरह हँसते हुए छोड़कर आया वैसे ही हँसते हुए देखूँ। और कुछ नहीं।’
‘अब कर सकते हो पढ़ाई तो।’
‘नहीं कर पाता। दिन रात सड़क पर रहता हूँ। कभी रात के ग्यारह बजे फ्री होता हूँ। कभी बारह बजे। अब तो सड़कों से दोस्ती निभानी है। मोटर गैरेज विभाग में ड्राइवर के लिए वांट्स निकली हैं। वहाँ अप्लाई करूँगा।’
‘चांस लगता है?’
‘मेरा लाइसेंस आठ नौ साल पुराना है। वे पाँच साल का लाइसेंस माँग रहे हैं। क्वालिफिकेशन आठवीं पास। ये सब तो है। पर क्या करें, आजकल रिश्वत के बिना कुछ होता ही नहीं। रिश्वत भी सही आदमी को दो तो ठीक वरना गए काम से। रिश्वत और किस्मत का ही चलन है। जिसके पास ये दोनों होंगे वह निकल जाएगा।’
थोड़ी देर रुक कर कहता है- ‘मेरे पास टूरिस्ट डिपार्टमेंट और ट्रांसपोर्ट कंपनी का अनुभव है। मैं आल इंडिया, कहीं भी गाड़ी चला सकता हूँ। उन्हें तो ‘फिट फॉर फिट’ बंदा चाहिए। मैं पहाड़, घाटी, ऊँचे-नीचे, ठंडे-गर्म, उत्तर-दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सब जगह गया हूँ। इस हिसाब से मेरा सलेक्शन हो जाना चाहिए। हो जाए तो जीवन भर की रोटी बन जाएगी। यह सरकारी नौकरी है। लिखित परीक्षा है नहीं। मौखिक इंटरव्यू है बस। मैडम, आदमी आठवीं पास है तो क्या एग्जाम देगा। आजकल तो आप जानती हैं नया रूल आ गया है। आठवीं तक को फेल ही नहीं करना है। फेल नहीं करना है तो वह क्यों पढ़ेगा? इस उम्र के बच्चे को करियर की चिंता नहीं सताती।’
‘भाई, आप गाड़ियों, सड़कों, जगहों के बारे में जानकरी पूरी रखना।’
गाड़ी, रास्ते, सड़क, अस्पताल, पोस्ट ऑफिस, क्लब, ऑफिस, युनिवर्सिटी, कॉलेज, पार्क, हॉल, रेलवे स्टेशन, बस अड्डा, मिल, फैक्ट्री, कोर्ट-कचहरी सब जानता हूँ। यह तो मैं बता ही दूँगा। पर हाँ, अगर हवाई जहाज के बारे में पूछा तो नहीं बता पाऊँगा। जब तक हो नहीं जाता तब तक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। वे तो ये भी पूछ सकते हैं कि मुर्गी पहले आई कि अंडा।’
हम हँसे।
थोड़ी देर बाद मैंने पूछा।
‘शादी हो गई?’
‘हो गई। एक बेटा है। इस साल गाँव से जयपुर ले आया फैमिली को। वहाँ पढ़ाई का माहौल नहीं है।’
‘जिंदगी में कोई दुख, कोई पीड़ा? कोई काँटा जो खाल के भीतर आज भी चुभ रहा हो?’ प्रश्न सुनकर उसकी हँसी खो जाती है।
‘माँ-बाप को अकेले गाँव छोड़ आया जी। कहा- साथ चलो शहर। बोले- यहीं रहेंगे। इस मिट्टी में पैदा हुए इसी में मिल जाएँगे। मैंने भी जिद नहीं की। शहर के खर्चे आप जानती हैं। वे बोले पोते को हमारे पास छोड़ दो। पर कैसे छोड़ता। उसकी माँ रोने लगी। बच्चे को अच्छे स्कूल में पढ़ाना है। बड़ा आदमी बनाना है। मैं नहीं चाहता मेरा बेटा भी सड़कों पर रूळता रहे, मेरी तरह।’
‘बेटा, दादा दादी को याद नहीं करता?’
‘करता है। कभी कभी पूछता है- ‘पापा, क्या बड़ा आदमी बनने के लिए अपने बड़ों को छोड़ना पड़ता है? तब तो एक दिन मैं भी आप लोगों को ऐसे ही छोड़ जाऊँगा जैसे आप दादा दादी को छोड़ आए।’ इस पर पत्नी उदास आँखों से मेरी ओर ताकने लगती है। मैं मुँह फेर लेता हूँ।’ नारायण की आँखें भर आती हैं।
नारायण के भीतर भी कहीं ट्रैफिक जाम हो जाता है। चिल्ल-पों, शोर-शराबा होता है। सरपट दौड़ती जिंदगी की गाड़ी में ब्रेक-से लग जाते हैं। पर धीरे-धीरे निकल जाता है जाम से। उसकी मंजिल बहुत दूर है। उसे बहुत दूर जाना है। वह पीछे मुड़कर देखना नहीं चाहता। गाँव, घर, माँ, बाप उसे अपनी तरफ खींचते हैं। बेटे का भविष्य, पत्नी के सपने और खुद की इच्छाएँ आगे की ओर ले जाती हैं। आगे पीछे की खींचतान ज्यादा होती है तो नारायण के भीतर कुछ टूटने लगता है। बहने लगता है। पर वह नारायण है। सो हँसता रहता है।