लवण्या गुप्ता
चंद्र सिंह। पहले सभी उसे इसी नाम से जानते थे। क्यों न जानें। गांव में सबसे ज्यादा कृषि भूमि थी उसके नाम।
वह केवल नाम का किसान नहीं था। खेत बड़ा होने के कारण वह कभी दो तो कभी तीन नौकर जरूर रखता, पर
स्वयं भी कृषि के सारे काम अपने हाथ से करता। उसे अपने खेत के चप्पे-चप्पे का ज्ञान था।
चन्द्रसिंह की बीवी नहीं रही। बेटा जवान हो गया। बेटा उतना मेहनती नहीं था। उसमें यह भावना भी घर कर गई
कि मेरे बापू के पास गांव में सबसे ज्यादा जमीन है। मुझे ज्यादा परिश्रम करने की क्या जरूरत है। बेटे को लगा
कि इतनी जमीन होने पर भी बापू को जमींदार बनना नहीं आया। यही जमीन यदि मेरे नाम हो तो मैं दिखाऊं कि
जमीन का मालिक कैसा होता है।
बेटे ने दबाब बनाना शुरू कर दिया। कहा-एक न एक दिन तो यह जमीन मेरे नाम होनी ही है। फिर क्यों न आप
मेरे नाम अभी लिखवा देते। बहू की भी यही मर्जी थी। इस मर्जी को पूरा करवाने के लिए वह चन्द्रसिंह की सेवा का
दिखावा कुछ ज्यादा ही करने लगी। चन्द्रसिंह ने एक दिन अपनी सारी जमीन अपने बेटे के नाम लिख दी।
उसी दिन से चन्द्रसिंह के दिन फिर गए। गांव में भी अब वह इज्जत, पूछ नहीं रही, जो पहले थी। लोग उसे चन्द्र
सिंह की बजाय चन्द्रू कहने लगे। घर में समय पर न रोटी, न पानी। ऊपर से बहू के नित नये हुक्म आने लगे कि
अब यह करो, अब वह करो। खेत में नौकरों की संख्या बढ़ गई। चन्द्र सिंह ही सबका खाना लेकर दोपहर में खेत
जाता। दिन-ब-दिन उसकी सेहत गिरने लगी। एक दिन तो डाक्टर को दिखाने की नौबत आ गई। ज्यादा बीमार होने
पर चन्द्र सिंह को शहर में डाॅक्टर को दिखाया गया। डाॅक्टर ने कई बीमारियां बता दी। साथ में हिदायत दी कि
वजन बिल्कुल न उठाए, तेज न चले, ज्यादा देर तक न चले, अपना खाना-पीना सही समय पर करे। ज्यादा से
ज्यादा आराम करे।
कई कामों से चन्द्र सिंह का पीछा छूट गया। कुछ दिन तो घर में आराम किया। फिर उसकी खाट खेत के बीचों-
बीच लगे पेड़ के नीचे डाल दी गई। चन्द्रसिंह को वह पेड़ वैसे भी कुछ ज्यादा पसंद था। घेर घुमेर वाला ऐसा पेड़
दूर-दूर तक नहीं था। उसके पोते-पोतियां कभी-कभी उसके पास आकर खेलते। उन्हें दादा की कहानियां पसंद थीं तो
चन्द्र सिंह को उनका भोलापन।
एक दिन फिर मुसीबत आ गई। किसी की राय पर बेटे ने इस पेड़ को ही काटने का फैसला कर लिया। उसका
कहना था कि इसकी वजह से जमीन का काफी बड़ा टुकड़ा बेकार हो रहा है। इस पेड़ के नीचे कोई फसल नहीं होती
है। पर चन्द्रसिंह ने मना कर दिया। बेटा बहुत नाराज हुआ। पेड़ को जड़ से उखाड़ा तो नहीं पर उसकी बड़ी-छोटी
शाखाएं जरूर कटवा दी। वह भी क्या करे? पोते वहां खेलने आ गये थे। एक ने कहा भी कि दादाजी, अपना पेड़ जो
पहले मोटू था अब लंबू हो गया है। कोई और दिन होता तो चन्द्रसिंह इस बात पर जरूर हंसता, पर आज वह दुखी
था।
बच्चे वृक्ष की कटी हुई शाखाओं पर खेलने-कूदने लगे। एक ने कहा-देखो, पेड़ पहले से कितना ऊंचा हो गया है।
सीढ़ियां सी बन गई हैं। आओ, इस पर चढ़ते हैं, देखते हैं, सबसे पहले कौन ऊपर तक जाता है। ऊपर, वहां तक
जाना है जहां पत्तों वाली कई टहनियां हैं।
सब हू-हू कर चढ़ने लगे। शीनू सबसे तेज निकला। वह आगे जाकर एक अधकटी टहनी पर बैठ गया। उसके साथी
अभी काफी नीचे थे। वह उन्हें देखकर अभी हंसा था कि उसे लगा सिर में किसी ने कील चुभोई है। उसने इधर-उधर
देखा। फिर सिर में कील सी चुभी। अरे, यह तो चील है। उसे दादाजी की सुनाई एक कहानी याद आ गई। किसी
पक्षी के घोसले में अंडे या बच्चे हों और कोई उसके पास जाता है तो पक्षी हमला कर देता है। वह उतरने लगा कि
चील फिर आ गई। नीचे वाले बच्चे चिल्लाते हुए तेजी से उतर गए। पर शीनू क्या करे। वह खुद को बचाने के लिए
चील को भगाए या स्वयं नीचे उतरे। नीचे बच्चे चिल्लाए तो चन्द्रसिंह का भी उधर ध्यान गया। खेत में काम कर
रहे नौकरों ने भी देखा। चन्द्रसिंह भाग कर पेड़ की तरफ आया।
शीनू और चील के संघर्ष में संतुलन बिगड़ गया। शीनू पेड़ की ऊंचाई से नीचे गिरने लगा। अब सभी भागकर आने
लगे। सब दूर थे। सबसे पहले चन्द्रसिंह ही वहां पहुंचा। पेड़ से गिरते अपने पोते को सीधा अपनी बाहों में लपक
लिया। जहां वह गिर रहा था, वहां जमीन पर पेड़ की कटी हुई लकड़ी, कुल्हाड़ी, आरी वगैरह पड़े थे। शीनू इन पर
गिरता तो…
इतने ऊपर से गिरते पोते को संभालना चन्द्र सिंह की बूढ़ी हड्डियों के वश की बात नहीं थी। वह स्वयं नीचे गिर
पड़ा। शीनू उसके ऊपर। चन्द्र सिंह बेहोश हो गया, पर शीनू को कहीं चोट नहीं आई। उसके पापा और नौकर तब
तक पहुंच गये।
चन्द्रसिंह को शहर के हस्पताल में ले जाना पड़ा। डाॅक्टरों की देखभाल से तीसरे दिन उसे होश आया। होश में आते
ही उसने शीनू के बारे में पूछा। चन्द्रसिंह के बेटे का गला रुंध गया। उससे बोला नहीं गया। खुद शीनू को ही कहना
पड़ा-मैं ठीक हूं दादाजी।
कुछ दिन बाद चन्द्रसिंह घर आ गया। उसकी खूब सेवा होने लगी। पोते की जान बचाने के लिए चन्द्र सिंह की पूरे
गांव में प्रशंसा होने लगी। अब उसे कोई चन्द्रू नहीं कहता था। वह फिर से सबका चन्द्र सिंह हो गया। चन्द्र सिंह
खेत भी जाने लगा। अब घर में झगड़ा यह होता कि चन्द्र सिंह के पास ज्यादा देर तक कौन बैठे, उसका बेटा या
उसके पोते। एक दिन इसी तरह सब बैठे थे कि चन्द्र सिंह की निगाह पोते शीनू के माथे पर चली गई। वहां चील
की चोंच से आए घाव का निशान था। चन्द्र सिंह बोला – शीनू, तुम जब-जब भी इस निशान को देखोगे, तुम्हें वह
चील याद आएगी, हमलावर चील।
नहीं, दादा जी, नहीं, मैं जब-जब भी इसे देखूंगा, मुझे याद आयेगा कि मैं पेड़ से गिरकर मौत के मंुह में जा रहा
था। मेरे दादाजी ने अपनी जान की परवाह न करके, मेरी जान बचाई थी उस दिन…।
यह सुनकर चन्द्र सिंह ने पोते को छाती से लगा लिया था।