लवण्या गुप्ता
अरी गुड़िया इधर आना जरा। जा दौड़ कर चिडिया की गुल्लक ले आ। मां ने गेहूं फटकते हुए मुझे आवाज लगायी।
अपना खेल छोड़ कर आना मुझे सबसे बुरा काम लगता। क्या है मां, जब देखो तब खेल के बीच में बुलाती हो
मैंने बड़े बेमन से चिड़िया की गुल्लक ला कर दी। मां का यह नियम था कि जब भी वह गेहूं, चावल या दाल
फटकती तो किनकी सहेजकर गुल्लक में रख देती है। उनका यह रोज का नियम था चिड़ियों को दाना डालने का।
हर रोज गौरैयाएं मां के डाले गये दानों का बेसब्री से इंतजार करती। जरा भी देर हो जाती तो अपनी चीची से
आसमान सर पर उठा लेती। वर्षों तक उनका यह नियम चलता रहा। मां जब तक जिंदा रहीं तब तक वो और
उनकी गौरैयों उनका यह रिश्ता अनवरत बना रहा। उनके जाने के बाद घर के लोग तो दुखी थे ही मगन उससे कहीं
ज्यादा दुख शायद उनकी पाली-पोसी गौरैयाओं को भी था मगर यह उस वक्त कोई नहीं जान पाया था।
मेरी नन्हीं गौरैया आना आकर दाने खाना
खा कर मेरे दानों को अपनी दुआ दे जाना
यह गीत सदा मेरे मन में गुंजता रहता। विवाह के पश्चात मैं अपने पति के साथ दिल्ली आ गई। महानगरीय
जीवन की भागदौड़ में नन्हीं गौरैया की याद मानो कहीं पीछे छूट गई थी। आज के इस भागदौड़ भरे जीवन में
इन्सान अपने जीवन की सरसता को भुला बैठा है। वह इस चकाचैंध से इतना भ्रमित है कि छोटी छोटी चीजों से
प्राप्त खुशियां उसके लिए कोई मायने नहीं रखतीं। घर परिवार की व्यवस्था में किसी और चीज का ध्यान ही नहीं
रहा था।
मां यह गौरैया क्या होती है स्कूल से आ कर मेरी नन्हीं बेटी रूही ने मुझसे प्रश्न पूछा।
मानो वर्षों से धूल पड़ी स्मृतिपटल की यादों को किसी ने कुरेद दिया हो। मां का वर्षों पुराना गीत याद आ गया। मां
की याद में आखों के कोर भीग गए। रूही असमंजस भरी निगाहों में मुझे देखने लगी। मैंने तुरंत अपनी आंख में
आए आंसुओं को पोंछ लिया।
आज स्कूल में टीचर ने विश्व गौरैया दिवस के बारे में बताया था नन्ही रूही अपनी धुन में ठुनकते हुए बोली।
मां ये गौरैया कैसी होती है।
मानसपटल पर चहचहाती हुई गौरैयाओं का समूल जीवंत हो उठ। मैं उत्साह से अपनी बिटिया को उसकी नानी एवं
गोरैयाओं का किस्सा सुनाने लगी।
मां अब गौरैया नहीं आयेगी क्या रूही के इस प्रश्न का मेरे पास कोई उत्तर नहीं था।
हमारे आधुनिक जीवनशैली की सबसे बड़ी कीमत इन मूक प्राणियों ने चुकाई है। आज तक इस विषय पर मनुष्य ने
कभी गंभीरता से विचार नहीं किया है। वह यह नहीं सोचता है कि अगर प्रकृति की देन ही नष्ट हो गई तो स्वयं
कैसे जीवित रह पायेगा।
मां मैं भी नानी की तरह दाने रखा करूंगी रूही ने मचलते हुए कहा 1
मगर बेटा यहां आसपास कोई गौरैया नहीं रहती मैंने उसे प्यार से समझाना चाहा। मगर उसकी बालहठ के आगे
मेरी एक न चली।
अच्छा ठीक है, जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा मैंने उसे आश्वासन दिया।
बाजार से दलिया लाकर बाहर मुंडेर पर फैला दिया। कई दिन गुजर गए कोई गौरैया नहीं आई। रूही उदास मन से
गौरैया का इंतजार करती मगर गौरैया के लिए दाना डालना नहीं भूलती। एक विश्वास उसके मनमें था कि गौरैया
अवश्य आयेगी
मां जरा देखो तो कौन आया है रूही की चहकती हुई आवाज आई।
मैं रसोई में खाना पका रही थी। रूही मेरा हाथ पकड़ कर मुझे खींचती हुई ले गई और मुझे शोर न मचाने का
इशारा कर रही थी।द
मैं। कुछ भी समझ पाने में असमर्थ थी।
वो देखो रूही की खो में अनोखी चमक थी।
गौरेया का एक जोड़ा मुंडेर पर फैले दानों को खाने में व्यस्त था। रूही का विश्वास रंग लाया था। वह गौरैया का
जोड़ा अब रोज आने लगा था। धीरे धीरे अब अन्य जोड़े भी उनके साथ नजर आने लगे थे 1 मुझे लगा कि उन
गौरैयाओं के साथ मेरी मां भी वापस लौट आई है। उनका गीत पुन: मेरे मन में जीवंत हो उठा था…..
मेरी नन्हीं गौरैया आना
आ कर दाने खाना
खा कर मेरे दानों को
अपनी दुआ दे जाना।।