सुरेंद्र कुमार चोपड़ा
मेरे क्लीनिक में कुछ दिनों पहले एक मरीज आया था। कमर के नीचे पैरों का दोनों हिस्सा लगभग जड़ हो चला था
और ऑर्थोपेडिक सर्जन ने उन्हें कूल्हों के जोड़ के प्रत्यारोपण के लिए कहा था लेकिन सर्जन जानना चाहते थे कि
स्पाइनल कॉर्ड से पैरों की तरफ आ रही नसों के दबाव के कारण तो सारी परेशानी नहीं है।
मैंने मरीज से जानना चाहा कि वे कूल्हों के जोड़ के प्रत्यारोपण की स्थिति में कैसे पहुंच गए। उन्होंने जो जानकारी
दी वह हैरान करने वाली और अपने तईं अपना इलाज चुनकर नुकसान की स्थिति में पहुंचने का उदाहरण थी। उस
मरीज ने बताया कि कुछ वर्षों पहले उसे हाथ पर कुछ धब्बे हो गए थे।
डॉक्टर ने बताया कि यह चर्मरोग है और चर्म रोग के निदान के लिए कुछ स्टेरॉइड दिए। थोड़े ही दिनों में हाथ का
वह हिस्सा ठीक हो गया। लेकिन थोड़े समय बाद जब चर्मरोग लौटा तो उन्होंने बिना डॉक्टर से संपर्क किए ही
स्टेरॉइड फिर से लेना शुरू कर दिया।
बीमारी थोड़ी-बहुत ठीक हुई और उन्होंने कुछ दिनों बाद स्टेरॉइड का उपयोग बंद भी कर दिया। लेकिन तीसरी बार
उन्हें फिर से हल्के चर्मरोग की आशंका हुई तो उन्होंने फिर स्टेरॉइड ले लिए। लगातार स्टेरॉइड का उपयोग घातक
सिद्ध हुआ। स्टेरॉइड के कारण उनकी कूल्हों के जोड़ प्रत्यारोपण की नौबत आ गई थी।
छाती का दर्द दिल की बीमारी नहीं
यह केस सोचे समझे बिना या विशेषज्ञ से सलाह लिए बिना अपनी मर्जी से दवा लेने के गंभीर दुष्परिणाम को
हमारे सामने रखता है। भारत में सेल्फ मेडिकेशन (मनमुताबिक दवा चुनने या लेने) की समस्या बहुत गंभीर है और
मरीज उसके घातक दुष्परिणाम भुगतते हैं। कई मरीज तो ऐसे होते हैं जिन्हें छाती में दर्द होने पर वे सोचने लगते
हैं कि यह दिल की बीमारी है जबकि यह मांसेपेशियों का दर्द भर होता है। वे बिना जांच कराए ही केमिस्ट की मदद
से दवा लेना शुरू कर देते हैं।
इस घटना का उल्टा भी उतना ही सही है कि दिल की बीमारी को लोग अपच या कब्ज से जोड़कर देखते हैं और
गलत दवा लेते रहते हैं। जांच के जरिए या विशेषज्ञ से मिलकर अपनी बीमारी की सही पहचान न करके, सीधे ही
दवा शुरू करते हुए कोई भी मरीज अपने लिए ज्यादा बड़ी समस्या पैदा कर लेता है। भारत में जहां अक्सर लोग
छोटी-मोटी बीमारियों के लिए केमिस्ट की सलाह पर ही निर्भर रहते हैं, वे इसके गंभीर दुष्परिणाम भी भुगतते हैं।
अमूमन तो मरीज केमिस्ट से एक बार सरदर्द के लिए जो गोली लेते हैं उसका नाम याद कर लेते हैं और हर बार
सरदर्द होने पर उसे ही लेने लगते हैं। वे यह जानने की कोशिश नहीं करते कि हर बार सरदर्द की अलग-अलग
वजह हो सकती है।
डॉक्टर पर टूटते भरोसे का नुकसान
जब लोग एक खास दवा पर निर्भर होते चले जाते हैं तो उन्हें लगता है कि वही दवा उन्हें राहत देती है लेकिन
असल में ऐसा होता नहीं है। लंबे समय किसी दवा का उपयोग उनके स्वास्थ्य पर इतना बुरा प्रभाव डालता है
जिसकी भरपाई भी संभव नहीं हो पाती है। अपनी मर्जी से दवा लेने (सेल्फ मेडिकेशन) का सबसे बड़ा नुकसान है
कि मरीज को दवा के डोज के बारे में जानकारी नहीं रहती है, वह लंबे समय तक दवा का उपयोग करता रहता है
और लंबे समय पहले डॉक्टर की लिखी दवा को ही फिर से लेने लगता है।
मुंबई की मनोवैज्ञानिक डॉ. सीमा हिंगोरानी कहती हैं, भारत में अपने मन से दवा लेने का चलन बढ़ता जा रहा है।
कुछ बहुत ही सामान्य बीमारियों में भी लोग खुद ही दवाओं के ज्यादा डोज लेने लगे हैं। बहुत से लोग अपने बारे
में यह मानते हैं कि वे कभी बीमार नहीं हो सकते और इसलिए जब कभी उनका सामना बीमारी से होता है तो वे
अपने तईं ही अपना इलाज करना चाहते हैं।
पिछले वर्षों में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह भी आया है कि अब मरीज जरा भी दर्द सहन नहीं करना चाहते हैं और
इसलिए जरा सी तकलीफ होने पर केमिस्ट से दवा ले आते हैं। फिर कुछ लोगों को लगता है कि वे अपने शरीर में
हो रही तकलीफ को अच्छे से समझते हैं और इसलिए अपना इलाज खुद कर सकते हैं। लेकिन सिर्फ बीमारी के
ऊपरी लक्षणों के आधार पर अपना इलाज शुरू करने के बजाय बीमारी की जड़ तक पहुंचना जरूरी होता है और
उन्हें यह बात समझ ही नहीं आती है।
अपनी सुविधा से दवा
कुछ समय पहले नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ न्यूट्रीशन ने अपनी स्टडी में कहा था कि हैदराबाद में प्रति मिनट ड्रग
स्टोर पर आने वाला एक मरीज बिना डॉक्टर की सलाह के दवा मांगता है। इस स्टडी में शहर की ज्यादातर दवा
दुकानों का सर्वे किया गया था और यह जानकारी सामने आई थी कि करीब 46 प्रतिशत मरीज अपने आप अपनी
बीमारी का इलाज कर लेने में विश्वास रखते हैं और वे अपने मन से ही गोली-दवा लेते हैं।
इनमें से भी आधे से ज्यादा उन दवाओं को खरीदते हैं जो बिना डॉक्टर के परामर्श के उन्हें बिलकुल नहीं लेना
चाहिए। स्टडी करने वाली डॉ. कमला कृष्णास्वामी और उनके सहयोगी दिनेश कुमार ने कहा कि अधिकांश मरीजों
के पास डॉक्टर का पर्चा आधा-अधूरा होता है।
डॉ. कृष्णास्वामी कहती हैं, यह समझना जरूरी है कि डॉक्टर का पर्चा मरीज और डॉक्टर के बीच का भरोसा होता
है। जब यह विश्वास टूट जाता है तो मरीज अपने हिसाब से दवा लेने लगता है। चूंकि भारत में मरीज बहुत ज्यादा
अपनी दवा के बारे में नहीं जानते हैं तो उन्हें डॉक्टर की ताकीद के अनुसार ही चलना चाहिए।
अपना इलाज खुद करना हो सकता है घातक
भारत में छोटे-मोटे रोगों के लिए लोग खुद ही अपने डॉक्टर बन जाते हैं और ड्रग स्टोर से दवा खरीद लेते हैं। कुछ
प्रतिबंधित दवाओं के अलावा उन्हें हर तरह की दवा आसानी से उपलब्ध हो जाती है। बहुत से मरीज तो यह भी
नहीं जानते हैं कि जिस दवा को वे लंबे समय से लेते आ रहे हैं उसके दुष्परिणाम क्या हैं।
कई बार बीमार होने पर मरीज पहले दो दिन खुद के हिसाब से दवा लेते हैं और जब वे असर नहीं करती तो उसके
बाद दो दिनों तक केमिस्ट की सलाह से बदलकर दवा लेते हैं। इसके बावजूद ठीक नहीं होने पर वे डॉक्टर के पास
जाते हैं और इस तरह वे किसी भी गंभीर बीमारी में चार महत्वपूर्ण दिन पीछे हो जाते हैं और इस दौरान कोई भी
बीमारी शरीर में जड़ जमा लेती है। फिर लंबे समय के इलाज से गुजरना पड़ता है।
दवाइयां असर करना बंद न कर दें।
छोटे-छोटे दर्द के लिए केमिस्ट की सलाह पर लोग पेनकिलर्स ले लेते हैं और लंबे समय में उनके घातक प्रभावों को
लेकर जागरूक नहीं होते हैं। अक्सर ऐसे भी प्रकरण देखने में आते हैं जबकि लोग ज्यादा पेनकिलर्स खाने के कारण
अपनी किडनी को भारी क्षति पहुंचा बैठते हैं। फिर इन दिनों एंटीबायोटिक्स का अनावश्यक उपयोग चर्चा का विषय
है।
डॉक्टर मानते हैं अनिवार्य जरूरत के बिना जब-तब एंटीबायोटिक्स नहीं लेना चाहिए, अन्यथा उनके लिए शरीर में
खास तरह की प्रतिरोधकता पैदा हो जाती है और फिर गंभीर संकट के समय बीमारियों से लड़ने के लिए
एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं तो वे शरीर पर असर ही नहीं दिखाती हैं।
एंटीबायोटिक्स के प्रति शरीर में ऐसी प्रतिरोधकता आ जाना महत्वपूर्ण मौकों पर जानलेवा साबित होता है। लेकिन
भारत में अक्सर लोग एंटीबायोटिक्स बिना डॉक्टर से सलाह लिए लेते हैं और वे जानते भी नहीं कि वे बड़ा जोखिम
उठा रहे हैं।
महंगी पड़ती मनमानी
पैरासिटामोल: राहत की तलाश में दर्द
सामान्य तौर पर सुरक्षित कही जाने वाली यह दवा अगर ज्यादा मात्रा में ली जाए तो वह शरीर पर विषाक्त असर
छोड़ने लगती है और उसका यह प्रभाव लिवर के लिए बहुत ज्यादा घातक हो सकता है।
डायगोक्सिन: दिल की मुश्किल
सामान्यतः हृदय रोगियों के लिए अच्छी दवा मानी जाती है। लेकिन अगर यह दवा बहुत अधिक मात्रा में ली जाती
है तो वह जानलेवा साबित हो सकती है क्योंकि थोड़ी सी भी मात्रा बदलने पर इसका असर बदल जाता है। इसकी
मात्रा के निर्धारण के लिए विशेषज्ञता जरूरी है।
विटामिन बी सप्लीमेंटः ज्यादा न लें
बहुत ज्यादा लिए जाने पर शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं। इनके कारण हायपरविटामिनोसिस हो सकता है।
कई लोग विटामिन बी 12 के इंजेक्शन अधिक मात्रा में लगवा बैठते हैं जिसके कारण डायरिया, इडिमा और
क्लॉट्स जैसी मुश्किल पेश आती है।
विटामिन ई सप्लीमेंटः अति से हानि
जब वर्षों तक इनका उपयोग अधिक मात्रा में किया जाता है तो वह शरीर के लिए घातक है। इसकी अधिकता से
उबकाई, पेट में मरोड़, सरदर्द, थकावट और रक्त स्त्राव की समस्या हो सकती है।
दर्द निवारकः बढ़ न जाए दर्द
इबुप्रोफेन, डायक्लोफेनाक, एस्पिरिन का उपयोग मरीजों द्वारा आरथ्राइटिस, जोड़ों के और पीठ दर्द में लंबे समय
से किया जाता रहा है। लेकिन लंबे अवधि में इनके उपयोग से साइड इफेक्ट के रूप में ग्रेस्टाइटिस (अमाशय की
झिल्ली में सूजन), पेप्टिक अल्सर, रक्त स्त्राकव और एनीमिया होने की आशंका रहती है। हाई ब्लड प्रेशर के
मरीज के लिए इन दवाओं के सेवन से स्ट्रोक का खतरा भी बढ़ जाता है।
नींद की दवाः न उड़ा दे रातों की नींद
नींद की दवा का उपयोग लंबे समय तक करते रहने का दुष्प्रभाव यह होता है कि थोड़े समय पश्चात डोज बढ़ाना
पड़ता है। नतीजतन भूलने की बीमारी, बोलने में गड़बड़ाना, हाथ और आंखों के बीच असंतुलन, चिड़चिड़ाहट और
थकान होने लगती है। बुजुर्गों में इसके कारण गिरने पर जल्दी फ्रैक्चर होने लगता है।
एंटाएसिडः त्वचा और होठ की चिंता
ओमेप्राजोल और पेंटोप्रॉजोल के कारण त्वचा संबंधी रोग हो सकते हैं, होठों पर दाग, छाले, पेशाब में मटमैलापन,
मांसपेशी में दर्द, थकान, डायरिया और विटामिन बी 12 की कमी हो सकती है।
अवसाद की दवाः जानलेवा न हो जाए
लोग अक्सर अवसाद दूर करने वाली दवा का डोज अपने मन मुताबिक बढ़ा देते हैं क्योंकि इससे उन्हें अच्छा
महसूस होता है। लेकिन कई मरीज ज्यादा डोज लेने के कारण अपने ही हाथों अपनी जान ले बैठते हैं। ऐसी दवाओं
की आदत नहीं लगाना चाहिए।