बिहार : अब तो नीतीश हार के ही जीत सकते हैं

asiakhabar.com | October 25, 2020 | 5:44 pm IST
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पंद्रह साल के अपने राज में सड़क, बिजली आदि से लेकर खेती तक और खासतौर पर राज्य की विकास दर में
बढ़ोतरी के दावे जरूर करते हैं। लेकिन, विकास के इन दावों को भी, बढ़ती बेरोजगारी के मुद्दे ने उलझा दिया है।

विरोधी महागठबंधन के प्रचार द्वारा बेरोजगारी के मुद्दे को केंद्र में ला दिये जाने और खासतौर पर युवाओं पर
उसका खासा प्रभाव पड़ने को देखते हुए, नीतीश कुमार के विकास के दावे फीके और बेअसर लगने लगे हैं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूं तो पिछले छ: साल में किसी भी चुनाव में अपनी ओर से कोई कोशिश उठा नहीं रखी
है, फिर भी बिहार में विधानसभा के चुनाव में वह जितना और जिस तरह जोर लगा रहे हैं, वह इस चुनाव में
नजर आती हवा के बारे में काफी कुछ कहता है। अब तक के कार्यक्रम के अनुसार, प्रधानमंत्री इस राज्य में चार
दिन में पूरी बारह रैलियों को संबोधित करने जा रहे हैं। इससे पहले किसी और राज्य के चुनाव में प्रधानमंत्री ने
इतनी ज्यादा रैलियां शायद ही की होंगी। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ, जो खुद को संघ परिवार के समर्थन
के लिहाज से, प्रधानमंत्री के बाद दूसरे नंबर पर स्थापित करने की कोशिशों में लगे हुए हैं, पड़ोसी राज्य के चुनाव
में प्रधानमंत्री से भी ज्यादा, पूरी बीस सभाएं करेंगे। बहरहाल, इस संख्या से भी ज्यादा अर्थपूर्ण है वह प्रचार, जो
खुद प्रधानमंत्री और उनके बाद नंबर-2, नंबर-3 आदि आदि कर रहे हैं। बिहार के चुनाव के लिए भाजपा का चुनाव
घोषणापत्र भी, इन सभाओं से कम ही सही, पर इसी प्रचार का हिस्सा है।
बेशक, इस चुनावी प्रचार एक बड़ा हिस्सा तो, जैसी कि मोदी की खास शैली व प्रचार नीति है, अपने राज की
नाकामयाबियों को नकारने के लिए, बेझिझक ठीक उन्हीं क्षेत्रों में अपनी उपलब्धियों के लंबे-चौड़े दावे करना है, भले
ही सच्चाइयां उनसे ठीक उलट हों। अचरज नहीं कि कोरोना के इस दौर में प्रधानमंत्री ने, नीतीश कुमार के नेतृत्व
में भाजपा-जदयू सरकार की, कोरोना पर काबू पाने में कामयाबी के ऐसे ही दावे से शुरूआत की है। कमाल की बात
यह है कि प्रधानमंत्री सिर्फ इसके दावे पर ही रुक नहीं गए कि नीतीश सरकार ने कारोना पर काबू पा लिया है।
इससे आगे बढ़कर, वह अपनी सभाओं में इसके दावे करते भी देखे गए कि कोरोना के दौर में नीतीश सरकार ने
मुसीबत की मारी जनता की न भूतो न भविष्यत किस्म की मदद की है। याद रहे कि प्रधानमंत्री देश के पैमाने पर
खुद अपनी सरकार के भी कोरोना की मार से जनता को काफी कारगर तरीके से बचाने के ही नहीं, इस मुसीबत के
बीच गरीबों को अभूतपूर्व मदद देने के भी दावे करते रहे हैं और उनके बिहार के कथित एनडीए निजाम तक इसका
विस्तार करने में कुछ भी अचरज की बात नहीं है।
फिर भी, बिहार के मामले में टैस्ट से लेकर, बाकी तमाम व्यवस्थाओं तक, कोरोना को एक तरह से 'मूंदेहु आंख
कहीं कछु नाहीं' की शैली में 'हराने' में मौजूदा निजाम की कामयाबी पर भरोसा करने वाले तो शायद मिल भी
जाएंगे, जिसका सबूत कोरोना से बचाव के लिए आवश्यक सावधानियों की बिहार के चुनाव प्रचार में पूरी तरह से
धज्जियां ही उड़ रही होने में भी मिल जाएगा। लेकिन, जहां तक इस भारी आपदा के बीच मुसीबत की मारी जनता
और खासतौर पर गरीबों को राहत पहुंचाने का सवाल है, खुद नीतीश कुमार अपने राज की कामयाबियों का दावा
करने में झिझकते हैं, फिर आम लोगों के ऐसे दावों पर विश्वास करने का सवाल ही कहां उठता है।
वास्तव में बेरोजगारी के मामले में नीतीश सरकार की विफलता के अलावा, जोकि इस चुनाव में ऐसा बहुत ही
महत्वपूर्ण मुद्दा बनती नजर आ रही है, जो सारे समीकरणों को उलट-पुलट कर सकता है, कोविड संकट के बीच

जनता को राहत पहुंचाने के मामले में नीतीश सरकार का रिकार्ड ही सबसे बड़ा मुद्दा है, जो इस चुनाव में नीतीश
राज के खिलाफ जनता की आम नाराजगी का सबसे बड़ा कारण है। यह नाराजगी इतनी ज्यादा है कि, नीतीश
कुमार की और जाहिर है कि उनके नेतृत्ववाले गठजोड़ की भी, लुटिया डुबो सकती है। सभी जानते हैं कि बिहार
देश के उन राज्यों में से है, जहां से सबसे ज्यादा ग्रामीण गरीब स्त्री-पुरुष कमाई के लिए दूसरे राज्यों में पलायन
करने के लिए मजबूर होते हैं। लॉकडाउन के चलते, इन मेहनत-मजदूरी की अपनी कमाई घर भेजने का यह
सिलसिला ठप्प होने से, राज्य में पीछे रह गए उनके पचासों लाख परिवारों पर ही भारी मार नहीं पड़ी, लंबे और
अनंतकाल तक चलते नजर आ रहे लॉकडाउन मेें इन मजदूरों की 'घर वापसी' भी, उससे कम त्रासद नहीं थी।
एक ओर पंजाब तथा जम्मू-कश्मीर तथा दूसरी ओर महाराष्टï्र व गुजरात तक से, सार्वजनिक परिवहन के साधन
ठप्प होने के चलते पैदल ही और अपनी सारी गृहस्थी सिर पर उठाए, अपने 'घरों' के लिए सैकड़ों किलोमीटर की
यात्रा पर निकल पड़े लाखों मेहनतकशों में शायद सबसे बड़ी संख्या बिहारियों की ही रही होगी। कहने की जरूरत
नहीं है कि उस त्रासदी की तस्वीरें लोगों को भूली नहीं हैं। इसमें सैकड़ों मौतें भी शामिल हैं, जो भूख-प्यास व
थकान से लेकर असुरक्षित स्थितियों में यात्रा करने के कारण हुई बड़ी संख्या में दुर्घटनाओं का नतीजा थीं। वास्तव
में यह ऐसी त्रासदी भी नहीं है जो लोगों के अपने घर लौटने के बाद रुक गयी हो और अब सिर्फ तस्वीरों में ही रह
गयी हो। रोजगार के ताजातरीन आंकड़ों में देखने को मिल रही, एक ही समय में ग्रामीण क्षेत्र में काम पाने वालों
की संख्या बढ़ने और शहरी कामगारों की संख्या घटने की पहली, इसी त्रासदी के जारी रहने का सबूत है। पलट
पलायन कर 'घर' लौटे मेहनतकश आज, शहरों के अपने अपेक्षाकृत बेहतर कमाई के रोजगार को गंवाकर, ग्रामीण
क्षेत्र में नाममात्र की कमाई के लिए मजदूरी करने पर मजबूर हैं।
बहरहाल, इससे भी ज्यादा चुभने वाली चीज है, इस संकट के बीच 'घर लौटते' मजदूरों से लेकर कोटा में कोचिंग
कर रहे छात्रों तक के प्रति, नीतीश सरकार द्वारा प्रदर्शित निर्मम उदासीनता का रुख। याद रहे कि कोचिंग पर
लाखों रुपए खर्च करने वाले छात्र, खाते-पीते मध्य वर्ग से नीचे के तबकों के नहीं होंगे। चाहे कोटा के छात्रों को
वापस लाने से अंत-अंत तक इंकार करना हो या विशेष ट्रेनें मांगने में सबसे पीछे रहना या फिर इन विशेष ट्रेनों पर
प्रवासी मजदूरों से बढ़े-चढ़े किराए की वसूली करना या फिर किसी तरह से बिहार तक पहुंच गए प्रवासी मजदूरों को
क्वारेंटीन के नाम पर एक प्रकार से बिना किसी सुविधा के जेलों में बंद कर के रखना, यह सब बिहार की जनता
आसानी से भूल नहीं सकती है।
अचरज नहीं कि मोदी के विपरीत, खुद नीतीश कुमार कम से कम कोरोना के सिलसिले में अपनी सरकार की
'उपलब्धियों' के जिक्र से बचते ही हैं। फिर, कोरोना संकट के बीच, जनता को राहत पहुंचाने के कामों के जिक्र की
तो बात ही क्या है? हां! वह पंद्रह साल के अपने राज में सड़क, बिजली आदि से लेकर खेती तक और खासतौर पर
राज्य की विकास दर में बढ़ोतरी के दावे जरूर करते हैं। लेकिन, विकास के इन दावों को भी, बढ़ती बेरोजगारी के
मुद्दे ने उलझा दिया है। विरोधी महागठबंधन के प्रचार द्वारा बेरोजगारी के मुद्दे को केंद्र में ला दिये जाने और
खासतौर पर युवाओं पर उसका खासा प्रभाव पड़ने को देखते हुए, नीतीश कुमार के विकास के दावे फीके और

बेअसर लगने लगे हैं। इसी का संकेतक है कि महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार, तेजस्वी यादव के
सरकार में आने पर 10 लाख नौकरियां देने के वादे की नीतीश कुमार ने तो यह कहकर हंसी में उड़ाने की कोशिश
की कि इसके लिए 'पैसा कहां से आएगा, जेल से या नकली नोट छापकर'; लेकिन अगले ही दिन उनकी सहयोगी
भाजपा ने चुनाव घोषणापत्र में तेजस्वी से भी ज्यादा, 19 लाख रोजगार देने का वादा कर दिया।
यह भी एक दिलचस्प तथ्य है कि प्रधानमंत्री मोदी ने भी ससाराम से शुरू हुए अपने चुनाव अभियान में, रोजगार
आदि के संदर्भ में नीतीश राज में कुछ खास प्रगति नहीं होने की आलोचनाओं का जवाब यह कहकर देने की
कोशिश की कि नीतीश कुमार को विकास करने के लिए, केंद्र में मोदी के राज के साथ चलने का मुश्किल से तीन-
चार साल का ही समय मिला था। नीतीश के राज का बाकी समय तो यूपीए सरकार से निपटने में ही गया था!
नीतीश के राज के 15 साल के रिकार्ड का इससे बेढब बचाव दूसरा नहीं हो सकता था। इसीलिए, अचरज की बात
नहीं है कि अपने-अपने तरीके से नीतीश-भाजपा राज के वास्तविक रिकार्ड और नाकामियों पर पर्दा डालने के लिए,
नीतीश और मोदी के नेतृत्व में भाजपा, दोनों ही अपने प्रचार में ज्यादा से ज्यादा समय इसका अतिरंजित बखान
करने में लगा रहे हैं कि लालू-राबड़ी के राज के पंद्रह साल में, बिहार की कैसे दुर्दशा थी। यहां आकर नीतीश और
मोदी के भाषण एक जैसे हो जाते हैं—क्या शाम के बाद कोई घर से निकल सकता था, वगैरह।
लेकिन, अपने राज में कानून और व्यवस्था में सुधार के परोक्ष दावे के अलावा भी, 'लालू-राबड़ी राज' के इस भजन
के उपयोग हैं। इनमें मुख्य है, पिछड़ों के ताकतवर होने का डर दिखाकर, खासतौर पर अपने सवर्ण आधार को
पुख्ता करने की कोशिश करना। इस दांव का आजमाया जाना खुद इसका सबूत है कि महागठबंधन से, इस चुनाव
में जदयू-भाजपा गठजोड़ को वास्तविक खतरा दिखाई दे रहा है। और वास्तविक खतरा दिखाई देने की वजह यह है
कि अपने पैने मुद्दों और विचारों के जरिए, यह गठबंधन ऊंची जातियों के नेतृत्व वाले उस जाति गठजोड़ में सेंध
लगा रहा है, जिसके सरल गणित से नीतीश-भाजपा गठजोड़, पहले अपनी जीत तय मानकर चल रहा था। एक ओर
तो रामविलास पासवान की पार्टी, लोजपा के कथित राजग से अलग होने और मुख्यत: नीतीश तथा उनकी पार्टी के
खिलाफ मोर्चा खोलने से, सत्ताधारी गठजोड़ का सामाजिक आधार सिकुड़ा है, हालांकि उससे कहीं ज्यादा उसके सभी
तबकों का प्रतिनिधित्व करने के दावों को इससे ठेस पहुंची है। दूसरी ओर, राजग तथा कांग्रेस के साथ राज्य में
समूचे वामपंथ के जुड़ने से, महागठबंधन को विशेषत: वंचितों तथा पिछड़ों पर टिकी, जनता के वास्तविक हितों का
प्रतिनिधित्व करने वाली ताकत की बढ़ती हुई वैधता हासिल हो रही है। यही है जो इस चुनाव में बाजी पलट सकता
है।
इसीलिए, चुनाव प्रचार की वैचारिक कमान अपने हाथ में लेते हुए, मौजूदा भाजपा अध्यक्ष नड्डïा से शुरू कर,
सत्ताधारी गठजोड़ ने महागठबंधन पर वामपंथ से संचालित होने के लिए तीरों की बौछार शुरू कर दी है। आतंकवाद,
'टुकड़े-टुकड़े गैंग', शाहीनबाग, सब को बिहार चुनाव में खींच लाया गया है। इसी के साथ क्षेपक के तौर पर
'पाकिस्तान की तारीफ' करने से लेकर, धारा-370 की बहाली के समर्थन तक, विपक्ष के सारे 'अपराधों' को जोड़

दिया गया है। वास्तव में अपने चुनाव प्रचार के पहले दिन की सभाओं में प्रधानमंत्री ने खुद 'धारा-370 की बहाली
के बात करने' की धर्मनिरपेक्ष विपक्ष की जुर्रत पर हमले के जरिए, सांप्रदायिक दुहाई का रास्ता खोल दिया गया।
वैसे प्रधानमंत्री जी की सरकार के बिहार से जुड़े दो मंत्री, जिन्ना और पाकिस्तान के हवालों से पहले ही इस रास्ते
पर बढ़ना शुरू कर चुके थे।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि पहले दिन की अपनी सभाओं के फीडबैक के बाद, प्रधानमंत्री आगे अपने प्रचार
में बहुसंख्यक सांप्रदायिक दुहाई के इस्तेमाल के रास्ते पर कितनी दूर तक जाते हैं। इस सब का चुनाव पर कितना
असर होगा, यह तो चुनाव के नतीजे ही बताएंगे, लेकिन इतना साफ है कि प्रधानमंत्री के चुनाव मैदान में उतरने
तक ही, सत्ताधारी मोर्चे का राजनीतिक-वैचारिक नेतृत्व मजबूती से संघ-भाजपा के हाथों में पहुंच चुका है। इसके
बाद, नीतीश कुमार येन-केन-प्रकारेण अगर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने भी रहते हैं, तब भी वह भाजपा की कृपा के
ही मोहताज होंगे। अब उनके गठजोड़ में भाजपा की ही चलेगी, उनकी नहीं। अब तो नीतीश कुमार की हार में ही
उनकी जीत है।


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