पूरी रात तनाव में काट देते हैं पर मानसिक रूप से बीमार हैं, यह स्वीकार नहीं कर रहे

asiakhabar.com | October 13, 2018 | 4:29 pm IST

विश्व भर में हजारों नहीं बल्कि लाखों लोग हैं जो मानसिक तनाव और दुश्चिंता में जी रहे हैं। अंग्रेजी में कहें तो यह मानसिक स्ट्रेस के खाने में आता है। आज हमारी लाइफ इस कदर तनावपूर्ण हो है कि हम कहीं का गुस्सा कहीं और निकाला करते हैं। इतना ही नहीं जिस दौर में जी रहे हैं यह सोशल मीडिया और खबर रफ्तार के समय से गुजर रहे हैं। ऐसे में हमारी मनोदशा और अंतरदुनिया सोशल मीडिया से खासा प्रभावित होता है। यदि किसी ने सोशल मीडिया पर बेरुखी बरती तो हमारा पूरा दिन और पूरी रात तनाव में कट जाती है। सोशल मीडिया से हमारी जिंदगी संचालित होने लगे तो यह चिंता की बात है। तमाम रिपोर्ट यह हक़ीकत हमारी आंखों में अंगुली डाल कर दिखाना चाहती हैं कि आज हम किस रफ्तार में भाग रहे हैं और इस भागम−भाग में हम अपनी नींद और चैन खो रहे हैं।

आज सच्चाई यह है कि हर पांच में से एक व्यक्ति मानसिक तौर पर बीमार है। बीमार से मतलब अस्वस्थ माना जाएगा। वहीं 46 फीसदी लोग किसी न किसी रूप तनाव से गुजर रहे हैं। वह तनाव दफ्तर से लेकर निजी जिंदगी के पेचोखम हो सकते हैं। जब व्यक्ति इतने तनाव में होंगे तो अमूमन सुनने में आता है कि मेरे सिर में हमेशा दर्द रहता है। ऐसे लोगों की संख्या तकरीबन 27 फीसदी है। हम जितने तनाव में होते हैं उनमें हम कहीं न कहीं भीड़ में रह कर भी अकेलापन महसूसा करते हैं। हम घर में रह कर भी तन्हा महसूसा करते हैं। ऐसे में व्यक्ति अकेला होता चला जाता है। कई बार तनाव और डिप्रेशन में आदमी ग़लत कदम उठा लेता है। डिप्रेशन में जीने वालों की संख्या 42.5 फीसदी है। हम रात में बिस्तर पर चले जाते हैं। लेकिन रात भर करवटें बदलते रहते हैं। नींद रात में भी क्यों नहीं आती। क्योंकि हम उच्च रक्तचाप और तनाव में जीते हैं। इसलिए रात भर सो नहीं पाते। सुबह उठने के बाद भी आंखों में नींद भरी रहती है।
अनुमान लगाना ज़रा भी कठिन नहीं है कि जब हमें रात भर नींद नहीं आती। घर परिवार में भी अकेला महसूसा करते हैं तब हम कहीं न कहीं मानसिक रूप से टूटन अनुभव किया करते हैं। ऐसे लोगों के साथ शायद यार दोस्त भी वक्त गुजारने के कतराते हैं। उन्हें लगता है कि वो तो अपनी ही पुरानी बातें, घटनाओं से पकाने लगेगा। लेकिन हमें नहीं पता कि हम एक ऐसे व्यक्ति के साथ खड़े होकर संबल देने की बजाए उसे अकेला छोड़ रहे हैं। वह किसी भी स्तर पर जा सकता है। शायद आत्महत्या की ओर मुड़ जाए। ऐसे लोगों की संख्या भारत में कम से कम 45 से 50 फीसदी है। जो कहीं न कहीं जीवन में अकेला हो जाते हैं और जीवन को नकारात्मक नज़र से देखने और लेने लगते हैं।

हमारे पास विभिन्न तरह के विभिन्न रोगों के लिए सुपर स्टार अस्पताल हैं। जहां जाने के बाद विभिन्न सुविधाओं से लैस कमरे, डॉक्टर के विजिट, खान−पान उपलब्ध हैं। एक हजार से शुरू होकर दिन 10,000 तक के कमरे आपकी जेब के मुताबिक उपलब्ध हैं। लेकिन यदि हम मानसिक अस्वस्थ लोगों के लिए अस्पताल तलाश करने निकलें तो बेहद कम मिलेंगे। दिल्ली में सरकारी अस्पतालों जिसमें मानसिक रोगियों के लिए उपलब्ध हैं उनमें वीमहांस और इबहास हैं। इन दो अस्पतालों के छोड़ दें तो प्राइवेट अस्पताल में भी चिकित्सा उपलब्ध हैं लेकिन उसके खर्चें ज़्यादा हैं।
वैश्विक स्तर पर नज़र दौड़ाएं तो पाएंगे कि विभिन्न कारणों से व्यक्ति एक्यूट एंजाइटी, दुश्चिंता और अवसाद का शिकार है। तनाव तो है ही साथ ही अकेलापन भी एक बड़ी वज़ह है कि लोग देखने में तो स्वस्थ लगते हैं लेकिन अंदर टूटे हुए और बिखरे हुए होते हैं। ऐसे लोगों को अकेला छोड़ना कहीं भी किसी भी सूरत में मानवीय नहीं माना जाएगा। गौरतलब हो कि 2007−8 में जब वैश्विक मंदी को दौर आया था तब वैश्विक स्तर पर लोग डिप्रेशन के शिकार हुए थे। लोगों की जॉब रातों रात चली गई थी। शादी के लिए तैयार लड़की ने शादी के करने से इंकार कर दिया था। आंकड़े तो यह भी बताते हैं कि डेंटिस्ट के पास दांत दर्द के रोगियों की संख्या में बढ़ोत्तरी दर्ज़ की गई थी। हालांकि प्रमाणिक तौर पर आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं लेकिन मानसिक तौर पर टूटे हुए और तनावग्रस्त लोगों की संख्या ऐसे अस्पतालों में बढ़ी थी। याद हो कि तब मीडिया ने अगस्त-सितंबर 2008 के बाद वैश्विक मंदी में जॉब गंवा चुके लोगों की खबरें भी छापना बंद कर दिया था। ऐसे में इस प्रकार के आंकड़े निकलाना ज़रा मुश्किल काम रहा कि कितने प्रतिशत लोगों ने मानसिक अस्थिरता की वजह से मनोचिकित्सकों की मदद ली।

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