सुरेंद्र कुमार चोपड़ा
सीडेंहम कोरिया को कोरिया माइनर, रूमेटिक कोरिया, सेंट वाइटस डांस और सींडेहम डिजीज के नाम से
भी जाना जाता है। यह एक दुर्लभ किस्म का न्यूरोलॉजिकल डिसऑर्डर यानी तंत्रिकातंत्र संबंधी विकार है।
इस विकार के होने पर रोगी के शरीर, खासकर चेहरा, हाथ और पैर में तेज, अनियंत्रित और बिना किसी
कारण के हरकत होने लगती है। इस बीमारी के होने पर शुरुआत में इसके कोई लक्षण दिखाई नहीं देते
हैं। लेकिन इंफेक्शन होने के छह महीने के बाद जब रोगी जब गंभीर रूप से बीमार हो जाता है, तब
जाकर इस बीमारी का पता चलता है। यह बीमारी पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं को ज्यादा अपनी चपेट में
लेती है। यह बीमारी 18 साल से कम उम्र के बच्चों को ज्यादा प्रभावित करती है। वयस्क होने पर इस
बीमारी के होने का खतरा बहुत कम होता है। आमतौर पर यह बीमारी शरीर के एक ही हिस्से को
प्रभावित करती है, लेकिन इस बीमारी के गंभीर रूप धारण करने पर शरीर के दोनों हिस्से इससे प्रभावित
हो जाते हैं।
कारण
यह एक ऑटोइम्यून डिसऑर्डर है। ऑटोइम्यून डिसऑर्डर तब होता है, जब हमारे शरीर का इम्यून
सिस्टम गलती से हेल्दी टिश्यूज को मारना शुरू कर देता है। इस बीमारी में भी यही होता है। ज्यादातर
मामलों में सीडेंहम्स कोरिया स्टेप्टोकोक्कल इंफेक्शन या रूमेटिक फीवर होने पर होता है। जब इस
इंफेक्शन से हमारा ब्रेन प्रभावित होता है तो ऐसी स्थिति में हमारे ब्रेन के सेल्स, खासकर बेसल गैंग्लिया
(ब्रेन का वह हिस्सा, जो हमारे शरीर के मूवमेंट यानी हरकत को को स्मूदली कंट्रोल करता है) के सेल्स
इस इंफेक्शन की वजह से नष्ट होने लगते हैं। इस वजह से ब्रेन के सेल्स में सूजन आ जाती है और ब्रेन
का हमारे शरीर की संचालन क्षमता से नियंत्रण हट जाता है। यह बीमारी बचपन में ग्रुप ए बीटा-
हीमोलीटिक स्ट्रेप्टोकोक्कस के इंफेक्शन और रूमेटिक फीवर होने के कारण होती है। एक रिपोर्ट के
अनुसार एक्यूट रूमेटिक फीवर से ग्रस्त कुल रोगियों में से 20 से 30 प्रतिशत रोगी को सीडेंहम्स कोरिया
डिजीज अपनी चपेट में ले लेती है।
लक्षण
इस बीमारी के लक्षण अलग-अलग रोगियों में अलग-अलग होते हैं। ज्यादातर मामलों में स्ट्रेप्टोकोक्कस
इंफेक्शन होने के बाद रोगी इस बीमारी की चपेट में आता है। ऐसे रोगियों के गले में सूजन आ जाती है।
इस बीमारी के होने पर रोगी के हाथ-पैर अनियंत्रित रूप से झटके के साथ हिलने रहते हैं। जोड़ों में सूजन
आ जाती है, मांसपेशियों में कमजोरी व उसमें हल्का तनाव महसूस होने लगता है। इतना ही नहीं,
भावनात्मक या व्यवहार से संबंधित समस्याएं (इमोशनल या बिहेविओरल प्रॉब्लम्स), बोलने में कठिनाई
महससू होना इसके अन्य लक्षण होते हैं।
ऐसे होती है पहचान
इस बीमारी की पहचान रोग के लक्षण, रोगी के बारे में विस्तृत पड़ताल (डिटेल्ड हिस्ट्री) और पूरी तरीके
से नैदानिक पड़ताल यानी क्लिनिकल इवैल्यूएशन द्वारा किया जाता है। कुछ मामलों में रोगी की
एमआरआई भी की जाती है। साथ ही ब्लड टेस्ट भी कराया जाता है। सामान्य तौर पर जब मरीज को
बुखार होता है और साथ में जोड़ों में दर्द भी होता है, तो ऐसी स्थिति में रोगी के दिल की जांच जैसे इको
भी किया जाता है।
उपचार
इस बीमारी का अब तक कोई इलाज नहीं निकल पाया है। बीमारी अगर बहुत ज्यादा गंभीर न हो तो
इसके उपचार की कोई जरूरत नहीं होती है, क्योंकि चार से छह हफ्ते में यह अपने आप ठीक हो जाती
है। इसी वजह से यह बीमारी हमारे जीवन को बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं करती है। लेकिन कई मामलों
में रोगी के अनकंट्रोल्ड मूवमेंट को कंट्रोल करने के लिए सिलेनियल हेलोपैरॉडॉल आदि दवाइयां दी जाती
हैं। इन दवाइयों से रोगी के शरीर की अकड़ाहट को कुछ समय के लिए बढ़ा दिया जाता है ताकि हाथ-पैरों
का हिलना बंद हो सके। हालांकि, यह भी सच है कि एक बार इस बीमारी के हो जाने पर इसे पूरी तरह
से ठीक नहीं किया जा सकता।
सावधानी
इस बीमारी में किसी खास तरह की सावधानी बरतने की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन जब रोगी के
बॉडी का शरीर अनियंत्रित होकर हिलने लगे उसे समय उसे चलने में सावधानी बरतनी चाहिए नहीं तो
उसे चोट लग सकती है। इसके साथ ही डॉक्टर ने जो दवा दी है उसे नियमित तौर पर खाना चाहिए। यह
हम जानते हैं कि स्ट्रेप्टो कोक्कस इंफेक्शन और रूमेटिक फीवर ही साइडेल्हेम कोरिया का कारण बनता
है। इसलिए इस इंफेक्शन के होने पर रोगी का तुरंत इलाज कराना चाहिए। इस बीमारी के होने पर जोड़ों
और दिमाग में होने वाले इंफेक्शन और समस्याएं अस्थायी होती हैं और समय के साथ ठीक हो जाती हैं,
लेकिन हार्ट के वॉल्व के डैमेज होने पर भविष्य में रोगी की तकलीफें बढ़ जाती हैं, इसलिए इस बीमारी
के लक्षण दिखाई देते ही प्रॉपर ट्रीटमेंट कराना जरूरी है, ताकि हार्ट को प्रभावित होने से बचाया जा सके।
रिस्क फैक्टर
यह बीमारी आमतौर पर गरीबी में जीवन गुजार रहे लोगों को ज्यादा होती है, क्योंकि उनके आस-पास
साफ-सफाई की काफी कमी होती है। सफाई की इस कमी की वजह से ही उन्हें स्ट्रेप्टो कोक्क्स बैक्टीरिया
का इंफेक्शन होता है और फिर वे कोरिया डिजीज की चपेट में भी आ जाते हैं। इसलिए साफ-सफाई का
पूरा ध्यान रखना चाहिए।
युवाओं को करती है ज्यादा प्रभावित
यह बीमारी युवाओं को ज्यादा प्रभावित करती है, खासकर 18 साल से कम उम्र के युवाओं को। चूंकि
रूमेटिक फीवर यंग एज के लोगों को ज्यादा परेशान करती है, इसलिए कोरिया डिजीज ज्यातातर युवाओं
को ही अपना शिकार बनाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि यंग एज में बॉडी में इम्यूनिटी कम होती
है। जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती जाती है हमारे अंदर इम्यूनिटी बढ़ती जाती है, इसलिए उम्र बढने पर इस
इंफेक्शन का प्रभाव हमारे शरीर पर कम होता है। इसके साथ ही एक सच यह भी है कि अगर एक बार
स्ट्रेप्टो कोक्कस का इंफेक्शन हो जाए तो दूसरी बार होने पर यह इसका प्रभाव हल्का होता है, क्योंकि
तब इस बीमारी के प्रति हमारा शरीर इम्यूनिटी डेवलप कर चुका होता है।
इन्हें भी जानें
रूमेटिक फीवर होने पर लगभग सभी रोगियों के हृदय और जोड़ प्रभावित हो जाते हैं। लेकिन ब्रेन बहुत
कम लोगों में प्रभावित होता है। कोरिया के दूसरे प्रकार के लक्षण धीरे-धीरे दिखाई देते हैं, लेकिन
साइडेल्हेम्स कोरिया के लक्षण अचानक से दिखाई देने शुरू हो जाते हैं।