गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
हौं ब्राह्मी भाव रमति जात, जगत गति रसत;
जो कछु है होत सब सुहात, सुदामा बनत !
ना भनत चहत सुनत पात, ॐ ध्वनि सतत;
राधा की प्रीति श्याम गीति, धेनु वत सुनत !
मोहित महत पे होत, शोध करनौ को चहत;
सब जानि जात भास पात, गुप्त ना रहत !
गोपिन की पीर देखि जात, टेर हिय सुनत;
टेशुन के फूल खिलत देखि, फाग फ़न फुरत !
ब्रज जन के खिले मन में, मधुप बनिकें ‘मधु’ फिरत;
अठ सिद्धि नवहु ऋद्धि रहत, कृष्ण छवि तकत !