हिमाचल की वादियों में यह यक्ष प्रश्न गूंज रहा है कि क्या भाजपा मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किये बगैर सरकार बनाने की स्थिति में होगी? यह सवाल भाजपा नेताओं, कार्यकर्ताओं सहित वह जनता पूछ रही है जिसे वोट देकर सरकार बनानी है। कांग्रेसी नेता चटखारे लेकर भाजपा नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों से पूछ रहे हैं कि अब तो बता दो कि भाजपा का मुख्यमंत्री कौन होगा? मतदाता ही नहीं, भाजपा नेता भी भ्रम में हैं कि उनका मुख्यमंत्री कौन होगा, इसलिए अनमने मन से अपने-अपने नेताओं के साथ चुनाव प्रचार में डटे हैं लेकिन उन्हें भी भरोसा नहीं है कि मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित किये बगैर भाजपा बहुमत का आंकड़ा छू पायेगी।
भाजपा नेतृत्व को अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं और मतदाताओं के मन में जो विश्वास जगाना था वह उसमें असफल दिखाई दे रही है। प्रदेश का मतदाता भ्रमित नहीं रहना चाहता और वह स्पष्ट रूप से जानना चाहता है कि सरकार बनने पर उसका नेतृत्व कौन करेगा। भाजपा में नेतृत्व के लिए घमासान मचा है। भाजपा ऊहापोह की स्थिति से नहीं उभर पाई है। प्रादेशिक नेता केन्द्रीय नेतृत्व के दबाव के चलते खुद भ्रमित हैं और समझ नहीं पा रहे हैं कि भाजपा सत्ता में कैसे आयेगी। प्रदेश भाजपा के नेता, नेता विपक्ष एवं पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल इस बात की पैरवी कर चुके हैं कि मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करना चाहिए लेकिन ऐसा लगता है कि रणनीति के तहत केन्द्रीय नेतृत्व इस मामले को उलझाये रखना चाहता है और उसका सारा फोकस प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के गृह क्षेत्र गुजरात पर है।
इस सबके बीच कांग्रेस भाजपा को नेतृत्व के मुद्दे पर उलझा कर मतदाताओं में पैठ बनाने में सफल होती नजर आ रही है। कांग्रेस ऐसी व्यूह रचना कर रही है कि मतदाता भ्रमित होकर कांग्रेस को ही वोट देने पर विवश हों। नेतृत्व के मुद्दे पर कांग्रेस भाजपा से आगे है। वीरभद्र सिंह की सभाओं और रैलियों में जुटने वाली भीड़ इस बात का इशारा है कि उनका दबदबा कायम है। कांग्रेस ने अपने पुराने महारथी धुरंधरों को ही चुनाव मैदान में उतारा है जो कई बार विधायक और मंत्री रह चुके हैं। इसके अलावा मंत्रियों और विधायकों के बेटे-बेटियां भी विरासत संभालने के लिए मैदान में हैं। वीरभद्र सिंह पर भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद और पार्टी की सिर फुटव्वल समेत तमाम आरोपों के बावजूद कांग्रेस ने उन पर दांव लगाया है और 83 वर्ष की उम्र में भी वह पूरे दम-खम से चुनाव लड़ रहे हैं। लेकिन 15 से अधिक सीटों पर बागी प्रत्याशी उनकी राह में रोड़ा बनकर खड़े हैं।
भाजपा में धूमल बनाम नड्डा की जंग से निपटने के लिए कांग्रेस ने पहले चाल चलते हुए वीरभद्र सिंह के हाथों में न सिर्फ चुनाव की बागडोर सौंपी है बल्कि जीतने पर उन्हें सातवीं बार भी प्रदेश की सत्ता सौंपने का ऐलान किया है जबकि प्रदेश भाजपा असमंजस में है और उसके नेताओं को समझ नहीं आ रहा है कि उनका खेवनहार कौन है। कयास लगाये जा रहे हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ही मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं जबकि नड्डा चुनावों के दौरान भी मीडिया में इंटरव्यू देकर मंशा जाहिर कर रहे हैं कि वह भी रेस में हैं। इससे पहले भी वह मीडिया और समर्थकों के जरिए मुख्यमंत्री के लिए अपना नाम चलाते रहे हैं। धूमल को पटखनी देने के लिए गाहे-बगाहे खुद कांग्रेसी मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह नड्डा को भावी मुख्यमंत्री बताकर आग में घी डालने और नडडा की महत्वाकांक्षा को पंख लगाने का काम करते रहे हैं।
प्रदेश नेतृत्व पूरी तरह प्रेम कुमार धूमल के साथ खड़ा है लेकिन केन्द्रीय नेतृत्व के दबाव में सब चुप हैं। कांग्रेस भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल तोड़ने में कामयाब होती दिखाई दे रही है। अब तक कांग्रेस नेताओं और वीरभद्र सिंह के सारे हमले प्रेम कुमार धूमल और उनके सांसद बेटे अनुराग ठाकुर पर होते थे लेकिन अब रणनीति के तहत कांग्रेस नोटबंदी, जीएसटी, मंहगाई और बेरोजगारी के लिए केन्द्र सरकार को कोस रही है ताकि सत्ता विरोधी लहर को भाजपा विरोधी बनाकर उसका फायदा उठाया जा सके। हिमाचल कांग्रेस एवं वीरभद्र सिंह ने जब भी भाजपा के खिलाफ हमला बोला तो उनके टारगेट पर धूमल और उनका परिवार होता था और राजनीति की पैमाना भी यही है कि जिससे खतरा हो, उस पर हमला करो ताकि वह रक्षात्मक मुद्रा में नजर आये। कई लोग धूमल की तुलना शांता कुमार से करते हैं लेकिन ऐसे लोगों को शायद ही मालूम हो कि विभिन्न कारणों से उनका दो बार का कार्यकाल अधूरा रहा है और इसका एक कारण उनका जिद्दी स्वभाव भी है। जबकि धूमल ने तमाम दिक्कतों के बावजूद दोनों बार मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा किया है। वह मिलनसार व मृदुभाषी हैं और पार्टी का एक अदना-सा कार्यकर्ता भी आसानी से उनसे मिल सकता है। अपने कार्यकाल का दौरान उन्होंने बिना किसी भेदभाव के पूरे प्रदेश का विकास किया है और यही कारण कि कार्यकर्ता उन्हें ही मुख्यमंत्री के रूप में पसंद करते हैं।
प्रदेश का रूख देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने थोड़ी ना-नुकर के बाद यह मान लिया है कि अगर पार्टी की इज्ज़त बचानी है और भाजपा का मुकाबला करना है तो वीरभद्र सिंह को कमान सौंपे बिना काम नहीं चल सकता। इसका असर यह हुआ है कि चुनावों से पूर्व जो कांग्रेस बिखरी हुई दिखाई पड़ रही थी, टिकट बंटवारे के बाद वह एकाएक वीरभद्र सिंह के साथ आ खड़ी हुई है। यह प्रदेश में कांग्रेस के मजबूत होने का संकेत है और नेतृत्व व एकजुटता के मामले में निश्चित तौर पर कांग्रेस बढ़त बनाती हुई नजर आ रही है। भाजपा इस मामले में फिसड्डी साबित हो रही है। मतदान के लिए अब कुछ ही दिन बचे हैं लेकिन भाजपा में पिछले दो सालों के चली आ रही बहस थम नहीं रही है कि मुख्यमंत्री धूमल बनेंगे या नड्डा को मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाया जायेगा। इस बार भाजपा सामूहिक रूप से चुनाव लड़ने की बात कर रही है लेकिन सच्चाई यह है कि पिछले दो साल से पार्टी के अंदर धूमल बनाम नड्डा की बहस चल रही है और नड्डा उसे हवा देते आये हैं। भाजपा में चुनावी माहौल ऐसा बना है मानो लड़ाई कांग्रेस से नहीं बल्कि धूमल और नड्डा के बीच हो। जबकि कांग्रेस चुपचाप मतदाताओं में अपनी पैठ बढ़ा रही है।
जमीनी कार्यकर्ताओं से बात करने पर पता चलता है कि उनका मनोबल भी गिरा हुआ है। कार्यकर्ता मानते हैं कि धूमल को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित न करने से जनता में यह मैसेज जा रहा है कि कोई दूसरा या तीसरा मुख्यमंत्री थोपा जा सकता है, इसलिए पार्टी कार्यकर्ता उलझन में हैं। पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि यदि पार्टी मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित नहीं करती है तो संभावनाएं क्षीण हैं और वह भी घर बैठ जाएंगे। उनका कहना है कि भाजपा कोई अपराजेय पार्टी नहीं है। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री और अमित शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद भी पार्टी दिल्ली, बिहार और पंजाब में बुरी तरह हारी है। उनका कहना है कि हिमाचल में धूमल का वही जलवा है जो देश में नरेन्द्र मोदी का है। यहां के लोग प्रेम कुमार धूमल को पसंद करते हैं और यदि भाजपा को अपनी लोकप्रियता को टेस्ट करना हो तो चुनावों से पूर्व धूमल के अलावा किसी और को मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित करके देख ले। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता को मुताबिक हिमाचल में कद नहीं व्यक्ति का काम और नाम चलता है। केन्द्र की राजनीति का ज्यादा दखल हिमाचलवासियों को रास नहीं आता और यही वजह है कि पंडित सुखराम और आनंद शर्मा सरीखे नेता केन्द्र की राजनीति में तो कामयाब हो गये लेकिन हिमाचलवासियों को मुख्यमंत्री के रूप में वह कभी रास नहीं आये।
हिमाचल में पिछले कई दशकों से यह परम्परा सी बन गई है कि बारी-बारी से भाजपा और कांग्रेस का शासन रहा है। पिछली बार के विधानसभा चुनावों में यह कयास लगाये जा रहे थे कि इस बार भाजपा दुबारा सत्ता में लौटकर इतिहास बदल देगी और इसका कारण यह था कि प्रदेश में धूमल की लोकप्रियता बरकरार थी और केन्द्र की कांग्रेस सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी थी और स्वयं मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह पर केन्द्रीय इस्पात मंत्री रहते हुए इस्पात कम्पनी से रिश्वत के आरोप लगे थे और उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था। लेकिन भाजपा जीती हुई बाजी भी हार गई थी। दरअसल कांगड़ा जिले में विधानसभा की सर्वाधिक 15 सीटें हैं और कांगड़ा के आसपास की 20 सीटों पर टिकट बंटवारे के समय पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार की राय को महत्व देकर टिकट जारी किये गये थे जिससे धूमल समर्थक और जमीनी कार्यकर्ताओं की अनदेखी हुई थी और बड़ी संख्या में भाजपा के बागी प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे थे जिसके कारण पार्टी हार गई थी और भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों के बावजूद वीरभद्र सरकार बनाने में कामयाब हो गये थे। भाजपा यही गलती दुबारा कर रही है। भाजपा आलाकमान को मतदाताओं एवं कार्यकर्ताओं का संशय खत्म कर कांग्रेस की चुनौती का सामना करने के लिए सेनापति के नाम का ऐलान कर देना चाहिए वरना ऐसा न हो कि इस बार भी भाजपा थाली में सजाकर सत्ता कांग्रेस को सौंप दे।