-ललित गर्ग-
देश की सर्वोच्च अदालत ने हिन्दू विवाह को लेकर बड़ा फैसला देकर न केवल हिन्दू विवाह के संस्कारों एवं पारंपरिक रिवाजों को पुष्ट किया है बल्कि उन्हें कानूनी दृष्टि से आवश्यक स्वीकार किया है। आज जबकि हिन्दू विवाह की पवित्रता एवं परम्परा तथाकथित आधुनिक जीवन एवं प्रभाव के कारण धुंधली होती जा रही है, पाश्चात्य संस्कृति की आंधी में हिन्दू विवाह की पवित्रता समाज में समय के साथ घटी है और उसमें सुधार एवं सुदृढ़ता की जरूरत है। जो लोग विवाह को मात्र एक पंजीकरण मानते हैं, उन्हें चेत जाना चाहिए। उन्हें सात फेरों का अर्थ समझना होगा। बिना सात फेरों, हिन्दू रीति-रिवाजों एवं वैवाहिक आयोजनों के कोर्ट की दृष्टि में भी विवाह मान्य नहीं होगा। हिंदू विवाह पर कोर्ट का ताजा फैसला न केवल स्वागतयोग्य है बल्कि इसके दूरगामी परिणाम सुखद होंगे। इससे हिन्दू संस्कृति एवं संस्कारों को बल मिलेगा। पारिवारिक-संस्था को मजबूती मिलेगी।
हिंदू विवाह से जुड़ा यह फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शादी ‘गाने और डांस’, ‘शराब पीने और खाने’ का आयोजन या अनुचित दबाव डालकर दहेज और गिफ्ट्स की मांग करने का मौका नहीं है। विवाह कमर्शियल ट्रांजैक्शन नहीं है। यह एक गंभीर बुनियादी सांस्कृतिक एवं पारिवारिक आयोजन है, जिसे एक पुरुष और एक महिला के बीच संबंध बनाने के लिए मनाया जाता है, जो भविष्य में एक अच्छे परिवार के लिए पति और पत्नी का दर्जा प्राप्त करते हैं। यह भारतीय हिन्दू समाज-व्यवस्था की एक बुनियादी इकाई एवं मजबूत सांस्कृतिक एवं पारिवारिक आयाम है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया है कि बिना सात फेरों के हिन्दू विवाह को मान्यता नहीं मिल सकती है अर्थात शादी के लिए हिन्दू विवाह अधिनियम में जो नियम और प्रावधान बनाए गए हैं उसका पालन करना होगा। इस तरह कोर्ट ने अपने फैसले में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत हिंदू विवाह की कानूनी आवश्यकताओं और पवित्रता को स्पष्ट किया है। अधिनियम के अनुसार, एक हिंदू विवाह किसी भी पक्ष के पारंपरिक संस्कारों और समारोहों के अनुसार संपन्न किया जाएगा। समारोहों में सप्तपदी (दूल्हा और दुल्हन द्वारा पवित्र अग्नि के चारों ओर संयुक्त रूप से सात कदम उठाना) शामिल है, और जब वे सातवां चरण एक साथ लेते हैं तो विवाह पूर्ण और बाध्यकारी हो जाता है। कुल मिलाकर हिन्दू विवाह एक संस्था है, संस्कार है और विवाह कोई व्यावसायिक लेन-देन नहीं है।
कोर्ट ने जोर दिया है कि हिंदू विवाह की वैधता के लिए सप्तपदी (पवित्र अग्नि के चारों ओर सात फेरे) जैसे उचित संस्कार और उससे जुड़े समारोह जरूरी है। विवाद की स्थिति में समारोह के प्रमाण पेश करना जरूरी है। कोर्ट की सात फेरों और उससे जुड़े समारोह का मूल्य समझाने की यह कोशिश हिन्दू विवाह को न केवल मजबूती प्रदान करेंगी बल्कि आधुनिकता की आंधी में धुंधलाते मूल्यों को नियंत्रित करने का काम करेगी। इसमें कोई शक नहीं कि विवाह संस्कार का मूल महत्व पहले की तुलना में कम हुआ है, अब विवाह बहुतों के लिए एक दिखावा, मजबूरी या समझौता भर रह गया है। न्यायमूर्ति बी नागरत्ना ने अपने प्रासंगिक एवं उपयोगी फैसले में बिल्कुल सही कहा है कि हिंदू विवाह एक संस्कार है, जिसे भारतीय समाज में एक महान मूल्य की संस्था के रूप में दर्जा दिया जाना चाहिए। पारंपरिक संस्कारों या सात फेरों जैसी रीतियों के बिना हुए विवाह को हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 7 के अनुसार हिंदू विवाह नहीं माना जाएगा। इस वजह से कोर्ट ने युवा पुरुषों और महिलाओं से आग्रह किया हैं कि वो विवाह की संस्था में प्रवेश करने से पहले इसके बारे में गहराई से सोचें और भारतीय समाज में उक्त संस्था कितनी पवित्र है, इस पर विचार करें।
प्रश्न है कि हिन्दू विवाह को लेकर कोर्ट को जागरूक होने एवं हिन्दू संस्कारों को मजबूती देने की जरूरत क्यों पड़ी? हिन्दू विवाह से जुड़े संस्कारों एवं पारंपरिक रीति-रिवाजों को लेकर अनेक मामले कोर्ट की चौखट पर आते रहे हैं, हर बार कोर्ट सजगता, दूरदर्शिता एवं विवेक से विवाह-संस्था से जुड़े मामलों पर अपना नजरिया प्रस्तुत करती रही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ पीठ ने पिछले दिनों यह माना कि हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार, हिंदू विवाह को संपन्न करने के लिए कन्यादान का समारोह जरूरी नहीं है। उस फैसले में भी सप्तपदी के महत्व को दर्शाया गया था। मध्यप्रदेश की एक परिवार अदालत के फैसले में महिला पक्ष को यह समझाया गया था कि सिंदूर लगाना एक विवाहित हिंदू महिला का धार्मिक कर्तव्य होता है। सर्वोच्च न्यायालय के ताजा फैसले में ऐसी ही समझाइश की कोशिश झलकती है। कुल मिलाकर, न्यायालय का संदेश यह है कि फिजूल के तमाशे-दिखावे से बचते हुए विवाह के मूल अर्थ को समझना चाहिए। हिंदू विवाह को लेकर अब ज्यादा स्पष्टता की जरूरत है और विशेषतः हिन्दू संस्कारों एवं संस्कृति को बल देने की भी। क्योंकि भारत में परिवार संस्था कायम है तो इसका कारण हिन्दू संस्कार एवं परम्पराएं ही हैं। इस तरह कोर्ट ने अपने फैसले में हिंदू विवाह अधिनियम 1955 के तहत हिंदू विवाह की कानूनी आवश्यकताओं और पवित्रता को स्पष्ट किया है।
हिन्दू विवाह एक आदर्श परम्परा एवं संस्कार है। हिंदू धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह = वि $ वाह, अतः इसका शाब्दिक अर्थ है – विशेष रूप से उत्तरदायित्व का वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है। अन्य धर्मों में विवाह पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी क बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे लेकर और ध्रूव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं। यह दो परिवारों का भी मिलन है। हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस सम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।
हिन्दू विवाह का न केवल पारिवारिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक महत्व है, बल्कि उसका गहन आध्यात्मिक महत्व भी है। हिंदू धर्म ने चार पुरुषार्थ (जीवन की चार बुनियादी खोज), यानी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष निर्धारित किया है। विवाह संस्कार का उद्देश्य ‘काम’ के पुरुषार्थ को पूरा करना और फिर धीरे-धीरे ‘मोक्ष’ की ओर बढ़ना है। एक पुरुष और महिला के जीवन में कई महत्वपूर्ण चीजें शादी से जुड़ी होती हैं; उदाहरण के लिए, पुरुष और महिला के बीच प्यार, उनका रिश्ता, संतान, उनके माता-पिता, उनके जीवन में विभिन्न सुखद घटनाएं, सामाजिक स्थिति और समृद्धि। हिंदू समाज में एक विवाहित महिला को अत्यंत सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। उसके माथे पर कुमकुम-सिन्दूर के साथ एक महिला की दृष्टि, उसके गले में एक मंगलसूत्र पहने हुए, हरी चूड़ियाँ, पैर के अंगूठे के छल्ले और छह या नौ-यार्ड साड़ी स्वचालित रूप से एक पर्यवेक्षक के मन में उसके लिए सम्मान उत्पन्न करता है। हिंदू विवाह के सात वचनों में से, कम से कम तीन ऐसे हैं, जहां जोडे अपने बुजुर्गों की देखभाल करने का वादा करते हैं। पांचवां वचन अपनी संतान पैदा करने और उसकी देखभाल करने का है।
हाल के वर्षों में, भारत में हिन्दू विवाह परम्परा एवं संस्कृति से अनेक विसंगतियां एवं विकृतियां जुड़ गयी है, डेटिंग संस्कृति की शुरुआत के साथ, लव-मेरिज का प्रचलन बढ़ा है। संभावित दूल्हा और दुल्हन अपने दम पर जीवनसाथी चुनना पसंद करते हैं। आज के रोमांटिक-रिश्ते वास्तव में विवाह नहीं हैं, बल्कि एक नई प्रथा है, जिसके विपरीत प्रभाव से परिवार-संस्था बिखरने लगी है। विवाह के साथ प्रीवेडिंग का प्रचलन भी अनेक विकृतियों का वाहक बना है, बड़े-बडे़ भव्य आयोजन एवं होटल संस्कृति ने भी विवाह की पवित्रता को धुंधलाया है। आयोजनों में शराब एवं अन्य नशों का बड़ा प्रचलन भी दुर्घटनाओं का कारण बना है। जिनके कारण विवाह होने से पहले ही उसमें दरारें पड़ते हुए देखी गयी है।