लोकतंत्र में हमारे अधिकार हिंसक क्यों बन रहे हैं? हम संविधान उसके विधान और व्यवस्था को हाथ में लेकर खुद न्यायी क्यों बनना चाहते हैं? संविधान में लोकतांत्रिक ढंग से अपनी बात रखने की पूरी आजादी है। हर वह व्यक्ति, संस्था, समूह, दल और संगठन अपनी बात रख सकता है। यह लोकतांत्रिक तरीके से शांतिपूर्ण प्रदर्शन के जरिए भी हो सकता है। अपनी बात रखने के लिए हमारे पास संसद, राज्य विधानसभाएं, संबंधित विभाग और अधिकारी भी हैं। हम फिर भी हिंसा का रास्ता क्यों अपनाते हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में आरक्षण की मांग कर रहे निषाद पार्टी के समर्थकों ने जिस तरह का नंगा नाच किया उसे किसी भी तरह से लोेकतांत्रिक नहीं कहा जा सकता।
गाजीपुर में उस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सभा थी। पुलिस वहां से वापस लौट रही थी। अटवा मोड पर निषाद पार्टी की तरफ से आरक्षण की मांग को लेकर प्रदर्शन चल रहा था। पुलिस लोगों को समझा-बुझा कर रास्ता खुलवाना चाहती थी। उसी दौरान भीड़ हिंसक हो गयी और पुलिस पर पथराव करने लगी जिसकी वजह से सुरेश वत्स की मौत हो गयी। अब भला पुलिस का दोष क्या था? पुलिस पर पथराव की जरूरत क्या थी? भीड़ को हिंसक बनने की क्या आवश्यकता थी? किसी बेगुनाह इंसान की जान लेकर ही क्या न्याय मिल जाएगा? उत्तर प्रदेश में भीड़ की हिंसा का शिकार कोई पहला पुलिसकर्मी नहीं हुआ। हाल में बुलंदशहर में इंस्पेक्टर सुबोध सिंह को भी माब लींचिंग का शिकार होना पड़ा। इसके पूर्व समाजवादी सरकार में प्रतापगढ़ में सीओ जियाउल हक और मथुरा में एसपी सिटी मुकुल द्विवेदी के साथ एक एसएचओ की मौत हो चुकी है। सवाल उठता है कि हम पुलिस को अपने से अलग क्यों समझते हैं। हम अपना गुस्सा पुलिस पर क्यों उतारते हैं। यह जघन्य वारदात पूर्वांचल के उस जिले में हुई, जहां से सबसे अधिक लोग सेना और यूपी पुलिस में कार्यरत हैं।
हमारे दिमाग में शायद यह बात घर कर गई है कि पुलिस सरकार की कठपुतली होती है। यह कुतर्क है। पुलिस समाज में शांति व्यवस्था कायम रखने की प्राथमिक इकाई है। वह हमारे साथ हमेशा खड़ी दिखती है। अपराधियों से हमें बचाने में पुलिस सहयोग और बलिदान देती है। आतंकी और आपराधिक मुठभेड़ों में पुलिस को अपनी जान गंवानी पड़ती है। अगर पुलिस हमारे साथ हमेशा खड़ी रहती है तो उसके साथ हमें और समाज को नजरिया बदलना होगा। पुलिस को मित्रवत देखना होगा साथ ही पुलिस को भी अपनी सोच बदलनी होगी। सत्ता के लिए पुलिस का उपयोग भी बंद करना होगा। गाजीपुर में जो कुछ हुआ, उसमें पुलिस का कोई गुनाह नहीं है। वहां पुलिस ने बेहद संयम बरता। उसे अपनी आत्मरक्षा का पूरा अधिकार है। वह चाहती तो भीड़ पर पथराव के जबाब में फायरिंग कर सकती थी। उसके बाद की स्थिति क्या होती, इसका जबाब निषाद पार्टी के लोगों के पास ही हो सकता है। पता नहीं कितने बेगुनाह मारे जाते। तब यह राष्टीय राजनीति का मसला भी बन जाता। पूरी यूपी पुलिस कटघरे में होती।
संसद से लेकर सड़क तक राजनीतिक लामबंदी देखी जाती। निश्चित रुप से यह प्रदर्शन निषाद पार्टी की तरफ से लोकसभा चुनावों को ध्यान में रख कर किया गया था। समय भी उचित चुना गया था क्योंकि उसी दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गाजीपुर आ रहे थे। यह उनका लोकतांत्रिक अधिकार था। अच्छी बात तब थी जब भीड़ हिंसक न होती। लोकतंत्र तभी समृद्ध और मजबूत बन सकता है जब हमारे अंदर वैचारिकता जिंदा होगी। बुलंदशहर में माब लींचंग का शिकार हुए इंस्पेक्टर सुबोध सिंह हों या फिर गाजीपुर में सुरेश वत्स की मौत, यह घटना पूरे देश को शर्मसार करती है। हम सरकार या सत्ता से बाहर रख कर अपनी जिम्मेदारियों से नहीं बच सकते हैं। जितनी अधिक सरकार की जिम्मेदारी है उससे कहीं अधिक विपक्ष की बनती है। क्या समाजवादी सरकार में इस तरह की घटनाएं नहीं हुई थीं। सिर्फ वर्दी धारण करने भर से कोई व्यक्ति हिंसक और हिटलर नहीं बन जाता। वह हमारी संवैधानिक व्यवस्था का एक अंग होता है। उसका भी अपना परिवार और सपना होता है। जरा सोचिए अगर कोई अपना असमय हादसे का शिकार हो जाता है तो हमारी उम्मीद टूट जाती है। फिर सुबोध सिंह और सुरेश सिंह क्या इंसान नहीं थे? उनका अपने परिवार, बच्चों, मां-बाप और पत्नी के प्रति कोई दायित्व नहीं था?
देश में बढ़ती हिंसा ससंद और टीवी डिबेट का अहम विषय है। सवाल उठता है कि क्या तरह की हिंसा के पीछे कौन है? सयम रहते हम उन्हें पहचान क्यों नहीं पाते? उकसावे की राजनीति के पीछे मकसद क्या होता है? सरकारों की बदनामी या और कुछ? सरकारों का दोष क्या कहा जा सकता है? फिर भी सरकारें अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती। राज्य की योगी सरकार ने घटना को गंभीरता से लिया है। पीड़ित परिवार को 50 लाख की सरकारी सहायता और परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी के अलावा पेंशन का एलान किया है। घटना में 32 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गयी है। 22 लोग गिरफतार भी हुए हैं, लेकिन यह चुनावी मौसम है, राजनीतिक हवन होंगे। सरकार को विपक्ष घेरेगा। सवाल उठता है कि इस तरह की घटनाएं कब रुकेंगी। अगला दूसरा पुलिसकर्मी निशाना न बने, इस पर कब गौर होगा। सरकार अपनी जिम्मेदारी से नहीं बच सकती है। सवाल उठता है कि जब निषाद पार्टी ने प्रदर्शन की घोषणा कर रखी थी तो उस सयम जिला प्रशासन का खुफिया विभाग क्या कर रहा था। प्रदर्शन इतना हिंसक होगा इसकी जानकारी उसे क्यों नहीं लगी। इस पूरे प्रकरण की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। दोषियों के लिखाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए। प्रदर्शन के आयोजकों को कड़ी सजा मिलनी चाहिए। समाज, सत्ता, विपक्ष को पुलिस के प्रति नजरिया बदलना होगा। पुलिस को भी इस तरह की छूट मिलनी चाहिए जिससे की वह इस तरह के हिंसक प्रदर्शनों से अपने मुताबिक निपट पाए। इस तरह की घटनाओं पर राजनीति नहीं मंथन होना चाहिए।