-निर्मल रानी-
तुम मुझे ख़ून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा, यह नारा 4 जुलाई 1944 को बर्मा में हज़ारों भारतवासियों की मौजूदगी में
नेता जी सुभाष बोस ने दिया था। अब लगभग इसी तर्ज़ का नारा भूखमरी और सत्ता के बीच उछलता दिखाई दे रहा
है। कुछ समय पूर्व ही पांच राज्यों में हुये विधानसभा चुनावों के दौरान मतदाताओं का एक नया वर्ग उभर कर
सामने आया जिसे मीडिया द्वारा 'लाभार्थी' वर्ग के नाम से प्रचारित किया गया। 'लाभार्थी' उस वर्ग को बताया गया
जो राशन कार्ड धारी व ग़रीबी रेखा से नीचे रहने वाला विशेषकर वह वर्ग जो कोरोना काल में नौकरी या व्यवसाय
समाप्त हो जाने के बाद दो वक़्त की रोटी का भी मोहताज हो गया था। इस ग़रीब व बेसहारा वर्ग को सरकार
द्वारा प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत गेहूं, चावल, चना आदि राशन मुफ़्त में वितरित किया
गया। सरकारी दावों के अनुसार पूरे देश में प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत मुफ़्त राशन प्राप्त
करने के अतिरिक्त केंद्र सरकार की उज्जवला योजना, किसान सम्मान निधि योजना, आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री
आवास तथा शौचालय निर्माण योजना जैसी कई योजनाओं का फ़ायदा उठाने वाले लाभार्थी वर्ग की संख्या लगभग
80 करोड़ बताई गयी।
विभिन्न राज्यों में इन ग़रीब, मजबूर व बेसहारा लोगों को बाक़ायदा 'उत्सव' आयोजित कर इन्हें राशन बांटा गया।
यह अलग बात है कि अनेक वितरण केंद्रों पर इन ग़रीबों को दिया जाने वाला राशन निहायत घटिया क़िस्म का
था। तथा योजना के तहत बनाये गये शौचालय भी टूट फूट गए। उज्ज्वला योजना के अंतर्गत मुफ़्त दिया गया गैस
सिलिंडर व गैस चूल्हा भी मकान के किसी कोने में पड़ा इसलिए धूल खाने लगा क्योंकि गैस सिलिंडर रिफ़िल करने
के दामों में बेतहाशा वृद्धि कर दी गयी। और उन्हीं उज्ज्वला लाभार्थियों ने पुनः लकड़ी व चूल्हे पर खाना बनाना
शुरू कर दिया। परन्तु प्रधानमंत्री व कहीं कहीं प्रधानमंत्री के साथ साथ राज्यों के मुख्यमंत्रियों का चित्र छपा हुआ
वह थैला जो मुफ़्त राशन के साथ ही मुफ़्त में दिया गया उसकी मज़बूती में कोई कमी न थी। इसके पीछे भी
रणनीतिकारों की बड़ी दूरदर्शिता यह थी कि 'लाभार्थी' इसी थैले का इस्तेमाल राशन लेने के बाद बाज़ार लेकर आने
जाने व सामानों को रखने के लिये भी कर सकता है। और वह लाभार्थी जितनी बार भी उस 'इश्तेहारी थैले' के साथ
घर से बाहर निकलेगा उतनी बार 'अन्नदाता महा मानव' रुपी राजनेताओं के चेहरे बाज़ारों में एक 'मसीहा' के रूप में
प्रचारित होंगे। और मुफ़्त राशन पाने वाला न चाहते हुये भी लोगों को यह सन्देश देने के लिये मजबूर होगा कि वह
मुफ़्त राशन के लिये सरकार पर आश्रित रहने वाला एक मजबूर, ग़रीब व उपकृत लाभार्थी है। इस तरह की मुफ़्त
वाली योजनाओं में से अधिकतर योजनाओं का संबंध महिलाओं से था। चाहे वह मुफ़्त राशन हो, शौचालयों का
निर्माण हो या उज्ज्वला योजना के अंतर्गत मिले सिलेंडर का लाभ। रणनीतिकारों ने इन योजनाओं से महिलाओं को
ही सबसे अधिक उपकृत हुआ पाया। यहां तक कि प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत प्रायः मकानों का आवंटन
भी महिलाओं के नाम से ही किया गया।
80 करोड़ लोगों को सरकारी योजनाओं का लाभ देने वाले भले ही इसे अपनी उपलब्धि बता रहे हों परन्तु इसी देश
का एक बड़ा बुद्धिजीवी वर्ग देश में लाभार्थियों की इतनी बड़ी तादाद होने को ही सरकार की घोर विफलता मान
रहा है। सवाल यह है कि उसी कोरोना काल में बिना किसी योजना व तैयारी के जिसतरह अचानक लॉक डाउन
घोषित किया गया जिसके परिणाम स्वरूप देश के करोड़ों लोगों को अपने रोज़गार गंवाने पड़े, अपनी नौकरियों से
हाथ धोना पड़ा और भूखमरी की कगार पर पहुंचना पड़ा आख़िर इन हालात की ज़िम्मेदारी किसकी थी? इतना बड़ा
'लाभार्थी' वर्ग खड़ा करने का ज़िम्मेदार भी आख़िर कौन है? मोदी सरकार की रणनीति से एक बात तो साफ़
झलकती है कि सरकार लोगों को रोज़गार व सेवा के अवसर व अधिकार देने के विपरीत इसी प्रकार की कुछ
कल्याणकारी योजनाओं से ही उन्हें उपकृत कर अपने पक्ष में 'लाभार्थियोंका एक बड़ा वर्ग खड़ा करना चाहती है।
जिसका व्यापक प्रभाव पिछले दिनों 5 राज्यों में हुये चुनावों में देखने को भी मिला कि भाजपा की ख़ास रणनीति
के तहत किस प्रकार 'लाभार्थियों' का वर्ग भाजपा के 'वफ़ादार' मतदाताओं के रूप में परिवर्तित हो चुका है। ज़ाहिर है
चुनाव परिणामों से ही उत्साहित होकर सरकार ने देश के अस्सी करोड़ लोगों तक पहुँचने वाली प्रधानमंत्री ग़रीब
कल्याण अन्न योजना जैसी 'मुफ़्त' राशन वितरण योजना को सितंबर 2022 तक के लिये और आगे बढ़ा दिया है।
मुफ़्त राशन लाभार्थियों के प्रति सरकार की दिलचस्पी व उसके 'विश्वास' का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा
सकता है कि स्वयं प्रधानमंत्री द्वारा ट्ववीट कर बताया गया कि -'भारतवर्ष का सामर्थ्य देश के एक-एक नागरिक
की शक्ति में समाहित है। इस शक्ति को और मज़बूती देने के लिए सरकार ने प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न
योजना को छह महीने और बढ़ाकर सितंबर 2022 तक जारी रखने का निर्णय लिया है। देश के 80 करोड़ से अधिक
लोग पहले की तरह इसका लाभ उठा सकेंगे'।
भाजपा द्वारा अब अपने कार्यकर्ताओं को यह निर्देशित किया जा रहा है कि वे लाभार्थियों से निरंतर संपर्क बनाये
रखें। ज़ाहिर है 'संपर्क' बनाये रखने का मक़सद यह तो हरगिज़ नहीं हो सकता कि वे लाभार्थियों से यह पूछें कि
आपको जो मुफ़्त अनाज मिला है उसकी गुणवत्ता कैसी थी या उसका वज़न पूरा था या नहीं। बल्कि इसका अर्थ
केवल यही है कि 'लाभार्थी' याद रखे कि सरकार ने मुफ़्त राशन देकर उनपर जो उपकार किया है वह उसका
प्रतिफल मतदान की शक्ल में उनकी पार्टी को वापस करे। यानी चूँकि हमने तुम्हें 'राशन' दिया इसलिये तुम मुझे
वोट दो। भाजपा के अतरिक्त अन्य पार्टियों द्वारा भी जिस तरह मतदाताओं को 'मुफ़्तख़ोरी' की अनेक योजनाओं
का प्रस्ताव देकर अपने पक्ष में लुभाने की कोशिशें की जाती हैं उससे यह साफ़ ज़ाहिर होता है कि सरकार हो या
विपक्ष सभी की दिलचस्पी आत्म निर्भर भारत बनाने बजाये शासनाधीन मतदाता बनाने की ज़रूर है। अन्यथा
मुफ़्तख़ोरी की योजनाओं में जो पैसा ख़र्च किया जाता है, सरकार चाहे तो उन्हीं पैसों से मतदाताओं को आत्मनिर्भर
बनाने की अनेक योजनायें भी शुरू की जा सकती है।