-सनत जैन-
पिछले कुछ वर्षों से हड़ताल की अनुमति प्रशासन नहीं देता है। यदि हड़ताल करने वाले जबरदस्ती हड़ताल पर उतारू हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में सरकार न्यायालयों का सहारा लेकर, हड़ताल पर रोक लगवा देती है। जिन कारणों से लोगों को हड़ताल पर जाना पड़ता है। शासन और प्रशासन उनकी बात किसी भी स्तर पर नहीं सुनना चाहता है। नाही उनसे बात कर समस्याओं को सुलझाना चाहता है। हड़ताल तोड़ने के लिए शासन और प्रशासन द्वारा वायदे तो कर दिए जाते हैं। लेकिन उन वायदों पर अमल नहीं किया जाता है।अब तो हद हो गई कि सरकार और प्रशासन लिखित वायदे करती है। उस पर भी समय रहते कोई कार्यवाही नहीं करती है। कई वर्ष निकल जाते हैं। जिनके कारण लोग शासन प्रशासन और जिन समस्याओं को लेकर हड़ताल पर जाने के लिए विवश होते हैं। उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होता है। अब तो हद हो गई है, कि न्यायालय के आदेशों का क्रियान्वयन प्रशासन और सरकार द्वारा नहीं किया जाता है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर में भी बट किंतु परंतु लगाकर शासन और प्रशासन अपनी जिम्मेदारियों से बचता है।
किसानों की हड़ताल कई माह तक चलती रही। सरकार और प्रशासन उनसे बात करने तैयार नहीं हुआ। उल्टे उत्पीड़न करने के लिए सड़कों को खोद दिया गया। किसानों को आने से रोकने के लिए जगह-जगह पर प्रतिबंधित आदेश लागू कर दिए गए।बैरियर लगा दिए गए।उन्हें तरह-तरह से राष्ट्र विरोधी, खालिस्तानी इत्यादि बताकर उन्हें प्रताड़ित करने का कोई भी मौका शासन प्रशासन द्वारा नहीं छोड़ा गया। किसान भी शांतिपूर्ण आंदोलन करते रहे देश और दुनिया में इस आंदोलन की छाप भी पड़ी। निष्पक्षता के साथ यदि हम देखें, तो पिछले 5 वर्षों में सरकारें आंदोलन और हड़ताल को लेकर पूरी तरह से असंवेदनशील हैं। शासन एवं प्रशासन दूसरे पक्ष से बात भी नहीं करना चाहते हैं। शासन और प्रशासन का ईगो हर्ट होता है। जिसके कारण अब, लोगों के बगावती स्वर उभर कर सामने आने लगे हैं। प्रशासन के पास जब लोग परमिशन मांगने जाते हैं। तब प्रशासन उन्हें परमिशन नहीं देता है। धारा 144 और अन्य प्रतिबंध लागू करके विरोध प्रदर्शन करने से रोका जाता है। हड़ताल ना हो, इसके लिए शासन और प्रशासन समय रहते समाधान नहीं करना चाहते हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह संभव नहीं है। पिछले कई वर्षों से लगातार यही हो रहा है। सेना के जवान भी जंतर-मंतर पर बैठे।किसान भी बैठे,सरकारी कर्मचारी भी बैठे, सरकार हमेशा असंवेदनशील रही।प्रदर्शन और आंदोलन को कुचलने के हरसंभव प्रशासनिक स्तर पर प्रयास किए गए।
हाल ही में मध्यप्रदेश के डॉक्टरों की हड़ताल को न्यायालय ने अवैध घोषित कर दिया। जिसके कारण डॉक्टरों ने हड़ताल तो वापस ले ली। डॉक्टरों का कहना था, कि जब सरकार ने उनके साथ लिखित में वायदा किया है। उसके कई महीने गुजर गए हैं। सरकार ने जो वायदे किए थे, उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। उन्हें फिर सरकार के वायदे याद दिलाने के लिए सड़क पर उतरना पड़ा रहा है। पिछले कई वर्षों का इतिहास देखें, तो लगभग-लगभग देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में, संबंधित पक्ष से सरकार और प्रशासन बात ही नहीं करना चाहता है। अब लोग नियम, कायदे कानूनों और परमिशन नहीं मिलने के कारण, अपना रोष बिना परमिशन लिए जाहिर करने लगे हैं। जनता के बीच भी एक संदेश गया है, किसानों के साथ केंद्र सरकार ने जो लिखित वायदे किए थे, वह आज तक पूरे नहीं हुए। सैकड़ों किसानों की मौत आंदोलन के दौरान हुई। किसानों की भीड़ के ऊपर गाड़ी चढ़ा देने से कई किसानों की मौत हुई थी। यह आंदोलन कई महीने चला था। इसमें कई राज्यों के किसान शामिल हुए थे। लिखित वायदे और निर्धारित समय व्यतीत हो जाने के बाद भी, सरकार कोई निर्णय नहीं कर पा रही है।
सरकार की यह असंवेदनशीलता लोगों में गुस्सा उत्पन्न करने का कारण बनती है। महिला पहलवानों के बारे में भी लगभग यही स्थिति देखने को मिल रही है। महिला खिलाड़ियों के साथ लगातार यौन उत्पीड़न हो रहा था। उनकी शिकायतों पर लंबे समय तक कोई कार्यवाही नहीं हुई। उसके बाद वह प्रदर्शन के लिए मजबूर हुए। सरकार ने 2 कमेटी भी बना दी।3 माह बाद भी कोई कार्यवाही नहीं हुई। जिसके कारण उन पहलवानों को फिर से जंतर-मंतर में प्रदर्शन करना पड़ा। शांतिपूर्ण तरीके से चल रहे इस प्रदर्शन को खत्म करने के लिए प्रशासन ने वहां लाइट, पानी, बिजली की व्यवस्था बंद कर दी। प्रदर्शन को खत्म करने के लिए वह हर काम पुलिस और प्रशासन द्वारा किया गया,जो नैतिक, कानूनन, नियम विरुद्ध ओर लोकतांत्रिक दृष्टि से अशोभनीय था। पास्को एक्ट जैसे मामले में सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को धता बता दिया। सुप्रीम कोर्ट में मामला जाने के बाद किसी तरह से रिपोर्ट तो दर्ज हो गई। उनके बाद भी पहलवानों को सबक सिखाने का कोई भी मौका शासन और प्रशासन नहीं छोड़ रहा है। ऐसी स्थितियों में जनता के बीच में धारणा बन रही है,सरकार और प्रशासन उनकी बात को नहीं सुन रहा है। जुल्म करने वालों को संरक्षण दे रहा है। उन पर जुल्म लगातार हो रहे हैं। न्यायालयों को यह भी ध्यान रखना चाहिए,कि वह दोनों पक्षकारों के साथ न्याय करते हैं। उसमें सरकार और साधारण आदमी जैसी कोई भूमिका नहीं होती हैं।
न्यायालय में दोनों को समान अधिकार होते हैं।विषय वस्तु, परिस्थिति और संभावनाओं को देखते हुए न्यायालय अपना निर्णय संवैधानिक व्यवस्था के अनुरूप जनहित में देती हैं। सरकार सबल होती है। सरकार के खिलाफ जो पक्षकार होते हैं, वह बहुत निर्बल होते हैं। न्यायालयों को उन्हें संरक्षण देना आवश्यक होता है। पिछले कुछ वर्षों से यह देखा जा रहा है,कि सरकार और प्रशासन, न्यायालयो के कंधे से बंदूक चलाकर अपने को बचाने का प्रयास करता है। जिस तरह से हर मामले में शासन और प्रशासन न्यायालयों की आड़ लेकर, बचता है, उससे स्थितियों को भविष्य में काबू कर पाना बड़ा मुश्किल होगा। पिछले 65 सालों में जो स्वतंत्रता भारत के नागरिकों को मिली हुई थी। जिसके वह आदी हो चुके हैं। नागरिक की स्वतंत्रता को खत्म नहीं जा सकता है। भारत में राजशाही व्यवस्था नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था है। न्यायालयों के अपने अधिकार हैं। वह आम जनता और सरकार के बीच में न्याय करें, यह अपेक्षा की जाती है। अब ऐसा होता हुआ दिख नहीं रहा है। लगता है,कि न्यायालय भी कहीं ना कहीं सरकार के दबाव में काम कर रही हैं। जिसके कारण जनता के मन में अब न्यायालयों के प्रति वह विश्वास नहीं रहा, जो पूर्व में था। शासन,प्रशासन और न्यायालय को वर्तमान स्थिति को देखते हुए, संवेदनशीलता के साथ कार्य करना होगा। अन्यथा स्थिति विस्फोटक हो सकती है। आम जनता के पास खोने के लिए कुछ नहीं होता है। जब उसका जीवन संकट में पड़ता है, तो वह किसी भी स्तर तक जाकर अपने आप को बचाने का प्रयास करती है। न्यायालय दोनों पक्षों की गार्जियन है। विशेष रूप से कमजोर वर्ग के साथ न्यायालय की संवेदनशीलता अब खत्म होती जा रही है। यह चिंता का सबसे बड़ा कारण है। हर मामले में न्यायालय का हस्तक्षेप जरूरी नहीं है। सरकार और प्रशासन की जिम्मेदारी तय की जानी चाहिए।