स्वतंत्रता दिवस: बंटवारे की विभीषिका को याद करने की क्या ज़रुरत है

asiakhabar.com | August 23, 2023 | 4:08 pm IST
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-राम पुनियानी-
हम अपना स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त को मनाते हैं और हमारा पड़ोसी पाकिस्तान 14 अगस्त को। भारत के लोगों ने आज़ादी हासिल करने के लिए लंबा और कठिन संघर्ष किया था। स्वधीनता दिवस हमें औपनिवेशिकता के विरुद्ध हमारे संघर्ष की याद दिलाता था। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की एक पुस्तक का शीर्षक है ‘नेशन इन द मेकिंग’। इसमें वे बताते हैं कि औपनिवेशिक काल में भारत “बनता हुआ राष्ट्र” था। स्वतंत्रता दिवस हमें राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के नेतृत्व में देशवासियों द्वारा किये गए संघर्षों और आंदोलनों की याद भी दिलाता है (विशेषकर 1920, 1930 और 1942 में)। यह दिन हमें भगत सिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद जैसे क्रांतिकारियों की याद भी दिलाता है जो न गोलियों से डरे और ना ही फांसी से। उन्होंने हँसते-हँसते सीने पर गोलियां खाईं और फांसी पर चढ़ गए। स्वाधीनता दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि कैसे हिन्दुओं, मुसलमानों और सिक्खों ने कंधे से कंधा मिलाकर औपनिवेशिक शासन का जुआ उतार फेंकने की लड़ाई लड़ी थी।
पिछले तीन सालों से मोदी सरकार ने 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में मनाना शुरू किया है। इसके साथ ही यह प्रचार भी किया जा रहा है कि जिन्ना की पाकिस्तान की मांग के कारण देश का बंटवारा हुआ। मुसलमान अलग देश की मांग पर अड़े हुए थे और नेहरु किसी भी तरह प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। इसलिए देश बंटा। स्वतंत्रता के 71 साल बाद सरकार ने यह दिवस बनाने का निर्णय लिया। ऐसी प्रदर्शनियां आयोजित की गईं जिसमें हिन्दुओं के बेघरबार होने और उनके नरसंहार की त्रासदी को दिखाया गया है। इस सिलसिले में एक सांप्रदायिक विमर्श शुरू कर दिया गया जिसका सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है और जिसका एकमात्र उद्देश्य नफरत फैलाना है।
यह विमर्श बहुत योजनाबद्ध ढंग से फैलाया जा रहा है। इसमें ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं से लेकर गोदी मीडिया और उससे लेकर अफवाहों फैलाने वाला तंत्र शामिल है। इस प्रचार में यह बताया जाता है कि जिन्ना कहते थे कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं और वे एक साथ नहीं रह सकते। नफरत फैलाने में झूठ का बड़ा योगदान होता है परन्तु अर्धसत्य भी इसमें महती भूमिका अदा करते हैं।
यह सच है कि सन 1940 में जिन्ना ने पाकिस्तान के निर्माण की मांग को लेकर प्रस्ताव पारित करवाया था। परन्तु यह प्रस्ताव, दरअसल, दो समानांतर किन्तु विरोधी प्रक्रियाओं का नतीजा था। इन दोनों प्रक्रियाओं के मूल में थी मुस्लिम साम्प्रदायिकता (मुस्लिम लीग) और हिन्दू साम्प्रदायिकता (हिन्दू महासभा, आरएसएस)।
हिन्दू और मुस्लिम साम्प्रदायिकता एक साथ परवान चढीं। पूना सार्वजनिक सभा, मद्रास महाजन सभा और बॉम्बे एसोसिएशन सहित कई संगठनों ने मिलकर सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन किया था। कांग्रेस नए उभरते सामाजिक तबकों का प्रतिनिधित्व करती थी जिनमें शामिल थे व्यापारी, उद्योगपति और श्रमिक वर्क व शिक्षित वर्ग। इसके साथ ही दलितों और महिलाओं को शिक्षित करने की प्रक्रिया भी शुरू हुई।
इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप सामंती वर्गों, जिनमें हिन्दू और मुसलमान ज़मींदार और राजे-महाराजे शामिल थे, ने मिलकर यूनाइटेड इंडिया पेट्रियोटिक एसोसिएशन का गठन किया। सर सैयद अहमद और काशी के राजा शिवप्रसाद सिंह ने अंग्रेजों के प्रति अपनी वफ़ादारी जाहिर की। समय के साथ, इस एसोसिएशन के हिन्दू और मुस्लिम घटक अपनी-अपनी राहों पर चल पड़े और उन्होंने अपने-अपने संगठन -हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग -बना लिए।
जहाँ कांग्रेस के नेतृत्व वाला राष्ट्रीय आन्दोलन, समग्र राष्ट्रवाद की बात करता था वहीं मुस्लिम लीग, भारत को मुस्लिम राष्ट्र, और हिन्दू महासभा और आरएसएस हिन्दू राष्ट्र बताते थे। द्विराष्ट्र की बात सबसे पहले जिन्ना ने नहीं बल्कि सावरकर ने की थी। सन 1923 में प्रकाशित अपनी पुस्तक “हिंदुत्व ऑर हू इज़ अ हिन्दू” में सावरकर ने लिखा कि भारत में दो राष्ट्र हैं – हिन्दू राष्ट्र और मुस्लिम राष्ट्र। आरएसएस के मुखिया गोलवलकर ने इस सिद्धांत को अपनी पुस्तक “वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड” में और आगे बढ़ाया। उन्होंने हिटलर का गुणगान किया और कहा कि मुसलमानों को द्वितीय श्रेणी के नागरिक का दर्जा दिया जाए। उन्होंने लिखा “… हिंदुस्तान में रहने वाली विदेशी नस्लों को या तो हिंदू संस्कृति और भाषा अपना लेनी चाहिए, हिंदू धर्म के प्रति आदर और सम्मान करना सीख लेना चाहिए, हिंदू नस्ल और संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले विचारों को अपना लेना चाहिए और अपने पृथक अस्तित्व को हिंदू नस्ल में पूरी तरह समर्पित कर देना चाहिए या पूर्ण रूप से हिंदू राष्ट्र के अधीन रहते हुए देश में टिके रहना चाहिए और ऐसा करते समय उन्हें न तो किसी तरह का दावा करना होगा, न किसी तरह का उन्हें कोई विशेषाधिकार मिलेगा और किसी तरह के सुविधाप्राप्त व्यवहार की तो बात दूर उन्हें एक नागरिक का भी अधिकार प्राप्त नहीं होगा।”
सावरकर ने द्विराष्ट्र सिद्धांत की विस्तार से व्याख्या करते हुए लिखा: “भारत में दो परस्पर विरोधी राष्ट्र एक साथ रहते हैं। कुछ बचकाने राजनीतिज्ञ यह मानने की गंभीर भूल करती है कि भारत एक समरसतापूर्ण राष्ट्र बन चुका है…हमें हिम्मत के साथ कुछ अप्रिय तथ्यों को स्वीकार कर लेना चाहिए। आज के भारत को एकताबद्ध और एकसार राष्ट्र नहीं माना जा सकता। इसके विपरीत भारत में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं – हिन्दू और मुस्लिम।”
जहां तक विभाजन के लिए नेहरू की सत्ता की लिप्सा को जिम्मेदार ठहराने का प्रश्न है, इसमें सच्चाई का तनिक भी अंश नहीं है। सच यह है कि देश के दो टुकड़े करने के माउंटबेटन के प्रस्ताव को सबसे पहले सरदार पटेल ने मंजूरी दी थी। सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन ने ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों को यह एहसास करा दिया था कि अब वे लंबे समय तक भारत पर राज नहीं कर पाएंगे अतः उन्होंने भारत को स्वाधीनता देने का निर्णय लिया परंतु अपने राजनैतिक और रणनीतिक हितों की रक्षा के लिए यह भी तय किया कि वे आजाद भारत को एक नहीं रहने देंगे। अंग्रेज अध्येता डेविड सेन्डर्स लिखते हैं कि ‘‘एटली की सरकार को यह समझ में आ गया था कि राष्ट्रवाद की भावना से प्रेरित नागरिक असंतोष जिस तेजी से बढ़ रहा है उसके चलते ब्रिटिश राज को कायम नहीं रखा जा सकता।”
औपनिवेशिक ताकतों को यह भी पता था कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व वामपंथ की ओर झुका हुआ है और इसलिए स्वतंत्र भारत के साम्राज्यवादी गुट की बजाए सोवियत गुट के साथ जुड़ने की अधिक संभावना है। इसलिए वे चाहते थे कि दक्षिण एशिया में उनका एक ठिकाना हो और इसी ठिकाने के निर्माण के लिए वे देश को बांटना चाहते थे।
विभाजन विभिषिका स्मृति दिवस केवल हिन्दुओं के विरूद्ध हुई हिंसा पर जोर दे रहा है। सच यह है कि पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले हिन्दुओं और सिक्खों और भारत से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों दोनों को भयावह परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। और जहां तक देश के विभाजन का प्रश्न है उसके लिए हिन्दू और मुस्लिम दोनों साम्प्रदायिक तत्व जिम्मेदार हैं।
विभाजन विभिषिका स्मृति दिवस का एजेंडा केवल मुसलमानों को पृथकतावादी सिद्ध करना है और वह इस बहाने से कि केवल जिन्ना ही पाकिस्तान के निर्माण के लिए जिम्मेदार थे। साथ ही इसका एक और लक्ष्य पंडित नेहरू को ऐसे नेता के रूप में प्रस्तुत करना है जो अपने देश के बंटवारे की कीमत पर भी सत्ता हासिल करना चाहता था। विभाजन विभिषिका स्मृति दिवस की दरअसल कोई जरूरत नहीं है। यह साम्प्रदायिक ताकतों के हाथ में सौंपा गया एक औजार है जिसका उद्धेश्य दोनों समुदायों के बीच की खाई को और गहरा करना और उन लोगों को कलंकित करना है जिन्होंने अपना सब कुछ स्वाधीनता के संग्राम को समर्पित कर दिया था।


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