विकास गुप्ता
यह समय संकट का है, यह सभी जानते हैं। कोरोना वायरस के चलते स्कूल-कॉलेज बंद हैं। स्कूलों में छात्रों की
आमद कब होगी पता नहीं। कई राज्यों ने अपने यहां स्कूलों को खोलने की कोई गाइडलाइन जारी करने से बच रहे
हैं। हालांकि, एक न एक दिन देश कोरोना की जंग जीतेगा और सब कुछ फिर से पटरी पर आएगा। लेकिन अभी
सिर्फ स्कूल-कॉलेजों की बात करें तो सरकार अपना एक आदेश आज तक लागू नहीं कर पाई है और बहुत संभव है
कि स्कूल दोबारा खुलने के बाद लागू न हो। यह आदेश बच्चों के बस्ते के वजन से जुड़ा है। हर साल बस्ते का
वजन कम करने का आदेश जारी होता है, मगर अमल नहीं होता। यह इसलिए क्योंकि जब तक आदेश आता है,
तब तक शिक्षा सत्र शुरू हो चुका होता है और आदेश रस्म अदायगी बन जाता है। इस बार अब तक सत्र शुरू नहीं
हुआ है। लिहाजा सरकार इस दिशा में सोचे। हालांकि, सीबीएसई ने कोर्स कम करने की बात की है, लेकिन यह
फैसला तात्कालिक है। अगले साल पुराना ढर्रा लौटेगा और बस्तों का वजन लादे बच्चे फिर से स्कूल जाते दिखेंगे।
देखा जाए तो बचपन और बोझ, यह दोनों शब्द एक-दूसरे के साथ अजीब ही नहीं गैर-जरूरी भी लगते हैं, लेकिन
भारत में अनगिनत अपेक्षाओं और महत्वाकांक्षाओं के बोझ तले दबे बच्चे हर दिन बस्ते का भारी बोझ भी ढो रहे
हैं। यह हमारी शिक्षा व्यवस्था से जुड़ा बेहद निराश करने वाला पहलू है कि सहजता से सीखने-समझने और शिक्षा
पाने के मासूमियत वाले पड़ाव बच्चे किताबों का वजन ढो रहे हैं। इससे भी ज्यादा दुखद यह कि बच्चों की पीठ पर
लदे बस्ते के वजन को कम करने के लिए कई बार दिशानिर्देश जारी किए गए पर हालात जस के तस हैं। इस कड़ी
में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सर्कुलर जारी कर दसवीं कक्षा तक के
विद्यार्थियों के स्कूली बस्ते का बोझ भी कम करने के दिशानिर्देश दिए हैं। एचआरडी मंत्रालय के निर्देशों के
मुताबिक छोटे बच्चों को गृहकार्य से भी छुट्टी मिल गर्ई है। यानी अब पहली और दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों को
होमवर्क से मुक्त करने के निर्देश दिए गए हैं। रिपोर्ट के अनुसार बस्ते के बोझ की वजह से 10 से 12 साल के
बच्चे ज्यादा बीमार हो रहे हैं। इसीलिए सीबीएसई ने स्कूलों को हिदायत दी थी कि वे इस समस्या के निदान के
लिए संचार प्रौद्योगिकी के इस्तेमाल को बढ़ावा दें और टाइम टेबल को इस तरह से तैयार करें कि बच्चों को
रोजाना सभी किताबें स्कूल लाने की जरूरत ही न रह जाए, लेकिन देखने में आ रहा है बैग में पुस्तकों का वजन
अब भी विशेषज्ञों द्वारा नियत भार से ज्यादा ही है। हमारे देश में स्कूली शिक्षा में क्षेत्र में लंबे समय से ऐसी
सराहनीय पहल दरकार है जो बच्चों को व्यावहारिक रूप से इस बोझ से मुक्ति दिला सके। यूं भी शिक्षा का अर्थ
केवल किताबी बोझ ढोना भर नहीं है। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों का सर्वांगीण विकास करना है लेकिन देखने में आ
रहा है कि आजकल सरकारी हो या निजी, सभी स्कूलों में बच्चों को भारी-भरकम बस्ता थमा दिया जाता है। छोटे-
छोटे विद्यार्थियों के कंधों पर भी वजनी बैग लदे हैं। जो उनकी सेहत और शिक्षा दोनों पर ही भारी पड़ रहा ह।
निजी स्कूलों में तो यह वजन और भी ज्यादा है। मोटी फीस चुकाने वाले अभिभावक भी इसे लेकर सवाल नहीं
उठाते क्योंकि उन्हें यह बच्चों की बेहतरी से जुड़ी बात लगती है। ऐसे में मासूमों का शरीर और मन इस बेवजह के
वजन को ढोने को विवश है।
1990 में यशपाल समिति ने भी बच्चों के पाठ्यक्रम में बोझ की कमी की सिफारिश की थी, ढाई दशक से ज्यादा
का समय बीत जाने के बाद भी व्यावहारिक धरातल पर इसका असर नहीं दिखता। महाराष्ट्र में कुछ समय पहले
मानवाधिकार आयोग भी इस मामले में दखल दे चुका है। आयेाग के मुताबिक निचली कक्षाओं को बस्ता पौने दो
किलो और ऊंची कक्षाओं का बस्ता साढ़े तीन किलो से ज्यादा भारी नहीं होना चाहिए। आयोग ने फैसला बच्चों की
पीठ दर्द और कंधे की जकडऩ की समस्या से निजात दिलाने के लिए दिया था। इतना ही नहीं सोशल डेवलपमेंट
फाउंडेशन के तहत करवाए गए ऐसोचैम के सर्वेक्षण के अनुसार भारत में पांच से बारह वर्ष के आयु के 82 फीसदी
बच्चे अत्यधिक भारी स्कूल बैग ढोते हैं। चिंतनीय है कि बस्ते का यह बोझ बच्चों में पढ़़ाई के प्रति वितृष्णा का
भाव तो ला ही रहा है, बीमारियां भी नई पीढ़ी को गिरफ्त में ले रही हैं गांवों से लेकर शहरों तक बच्चों का एक
बड़ा प्रतिशत इस बोझ के चलते मानसिक तनाव व शारीरिक व्याधियों का शिकार बन रहा है।