संयोग गुप्ता
अर्थव्यवस्था को गति देने और देश में बेरोजगारी दूर करने के मकसद से छह साल पहले नवोन्मेष की नई
संकल्पना के साथ उद्यम (स्टार्टअप) शुरू करने की जो पहल शुरू हुई थी, उससे बड़ी उम्मीदें जगी थीं। लगा था
कि पड़े-लिखे नौजवान नई सोच के साथ नया काम शुरू करेंगे और इससे विकास का नया मार्ग प्रशस्त होगा।
लेकिन तब किसी ने सोचा भी नहीं था कि ज्यादातर ऐसे नए कारोबारों का बीच में ही दम फूलने लगेगा। लाखों
नौजवानों ने अपनी सकारात्मक ऊर्जा और पूंजी लगाते हुए छोटी-छोटी कंपनियां बनाईं और काम शुरू किया। लेकिन
आज इनमें से ज्यादातर उद्यमी हताश होकर काम बंद कर चुके हैं। फिर, जब से कोरोना महामारी के कारण पैदा
हुए हालात में तो इन नए उद्यमियों पर तो जैसे पहाड़ टूट गया। जिन नए उद्यमों की बदौलत अर्थव्यवस्था को
एक सहारा मिलने की उम्मीद की जा रही थी, वही उद्यम अब दिन दिन गिन रहे हैं।
औद्योगिक संगठन नैस्कॉम के ताजा सर्वे के मुताबिक बीते तीन महीनों में ही 90 फीसद नई कंपनियां कमाई के
सारे स्रोत सूखने के कारण या तो बंद हो गई हैं या बंदी की कगार पर हैं। इनमें से 30 से 40 फीसद ने अपना
कामकाज रोक दिया है। हालांकि 70 फीसद उद्यम इस उम्मीद में हैं कि उन्हें जिंदा रखने के लिए नए सिरे से
कोष मुहैया कराया जाएगा। लेकिन यहां मौजू सवाल यह है कि जिन बड़े पूंजीपतियों ने भारी कमाई के नजरिए से
ऐसी नई कंपनियों में पहले से ही अच्छा निवेश कर रखा था, बेहिसाब घाटे की सूरतों में अब वे इनमें नया निवेश
क्यों करेंगे। सवाल इस तरह के उद्यमों को लेकर सरकार की मंशा पर भी है। जो सरकार करोड़ों रोजगारों के
लुभावने सपनों और दावों के साथ इस तरह के अभियान छेड़ती है, वह इनके डूबने की खबर मिलने पर वैसे ही
आर्थिक पैकेज क्यों नहीं मुहैया कराती, जैसे कि बड़े औद्योगिक घरानों को दिए जाते हैं।
संकट की वजह से हाल में कई उद्यमों को अपने यहां कर्मचारियों की छंटनी के लिए मजबूर होना पड़ा है। इनमें
कई कंपनियां तो ऐसी भी हैं जिन्होंने बीते एक साल में दस करोड़ डॉलर की पूंजी देशी-विदेशी निवेशकों से जुटाई
है। फिर भी एक मोटे अनुमान के मुताबिक देश में 2004 के बाद से खुली एक हजार से ज्यादा कंपनियों में से दो
सौ कंपनियों को तो अब कोई मदद नहीं मिल रही है और तीस से पचास कंपनियां कर्ज में डूब कर दिवालिया हो
चुकी हैं। वर्ष 2016 से ऐसे उद्यमों (स्टार्टअप) के कामकाज का लेखाजोखा रखने वाली शोध कंपनी ट्रैक्सन
टेक्नोलॉजी ने तो बंद हो रही कंपनियों के लिए 'डेडपूलÓ जैसे शब्द का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। इस संगठन के
कहना है कि बीते चार साल में देश के भीतर शुरू हुई छोटी-बड़ी करीब 14 हजार कंपनियां घाटे, बुरे प्रबंधन और
मांग में कमी के कारण बंद कर दी गई हैं। इनमें से ढाई सौ कंपनियां बीते दो महीने में बंद हुई हैं और आने वाले
महीनों में इससे भी बुरा वक्त इनकी किस्मत में है। कहने को कोविड-19 को नया काम शुरू करने वाली कंपनियों
के लिए इतिहास का सबसे बुरा दौर कहा जा रहा है। लेकिन सच्चाई यह है कि इनके लिए शुरुआती दौर को छोड़
कर अच्छा समय तो कभी आया भी नहीं। अभी भी जो स्टार्टअप कंपनियां बची हुई हैं, उनमें से अधिकतर के
संस्थापक-संचालक यह उम्मीद कर रहे हैं कि उनका अधिग्रहण कर लिया जाएगा और किसी न किसी तरह से और
पूंजी जुटा कर उन्हें तब तक चलाने की कोशिश की जाएगी, जब तक कि वे लाभ की स्थिति में नहीं आ जातीं।
देश को हर मामले में आत्मनिर्भर बनाने और युवाओं से कोई कामधंधा खड़ा कर अपने जैसे दूसरे बेरोजगार युवाओं
को नौकरी देने के लिए शुरू किए गए स्टार्टअप अभियान का फिलहाल हासिल यही है कि बड़े पूंजीपति भी अब
उनके नाम से कन्नी काटने लगे हैं। इस बारे में उनका मत है कि इस अभियान के नाम पर नए नजरिए वाले
कारोबार को अनंतकाल तक पैसा देते हुए घाटा नहीं सहा जा सकता। हालांकि कई बड़े उद्योगपति आरंभ में इस
तरह की नई कारोबारी कंपनियों के मुरीद रहे हैं। उन्होंने यह मानते हुए इनमें काफी पैसा लगाया है कि आगे चल
कर ये पुरानी कंपनियां का बेहतर विकल्प बन सकती हैं। लेकिन आधे दशक में ही इनका बुरा हाल देख कर
नजरिया बदल गया है। पूंजीपतियों के अलावा खुद उन युवाओं का भी ऐसे उद्यमों से मोहभंग हुआ है जिन्होंने
नौकर के बजाय मालिक बन कर कंपनी बनाने के सपने के साथ इन्हें शुरू किया था।
अगर आइटी स्टार्टअप कंपनियों की बात करें, तो नौकरी छोड़ कर इन्हें शुरू करने वाले आइटी इंजीनियरों ने पाया
कि जब तक ये किसी सेवा या उत्पाद से जुड़े नए विचार को मूर्त रूप लेकर बाजार में उतरती हैं, तब उस उत्पाद
या सेवा की मांग में तब्दीलियां आ जाती हैं। इससे साबित होता है कि कम संसाधन और छोटे स्तर पर कामकाज
शुरू करने पर ये कंपनियां भविष्य में पैदा होने वाली मांग का सही-सही अनुमान नहीं लगा पाती हैं और पिछड़
जाती हैं। इसके अलावा यदि बड़ी कंपनियां उन्हीं के समान सेवा और उत्पाद बाजार में उतार देती हैं, तो प्रचार
आदि सहूलियतों के अभाव में ऐसे उद्यम अपने उत्पाद या सेवा के बारे में उपभोक्ताओं को न तो असरदार ढंग से
बता पाते हैं और न ही अपने उत्पाद खरीदने के लिए उन्हें राजी कर पाते हैं। कमाई और विकास करने के मामले
में पिछडऩे की वजह से उनके संस्थापकों को वित्तीय मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसलिए या तो स्टार्टअप
अधिग्रहण की प्रक्रिया के तहत खुद को बड़ी कंपनियों के हवाले कर देते हैं या काम ही बंद कर देते हैं।
खुद उद्यम खड़े करने वाले युवाओं को सोचना होगा कि कोई भी कंपनी अंतत: कारोबारी फायदे के लिए बनाई
जाती है। अगर वे इस एक मकसद के साथ सारा कौशल इसमें झोंक दें तो उन्हें सफल होने से रोका नहीं जा
सकेगा। एक अच्छा संकेत यह है कि हमारे देश में थोड़ा-बहुत संपन्न हुए मध्यवर्ग ने अपने बच्चों के सपनों को
साकार करने के लिए स्टार्टअप की बढऩे का हौसला दिखाया है। शर्त यही है कि सरकार और समाज नए संकल्पों
के साथ सामने आ रहे युवाओं का उत्साहवर्धन करें और युवा यह मान कर उद्यम खड़े करें कि यह उनके जीवन-
मरण का प्रश्न है, यानी यदि वे इसमें नाकाम हुए हो, तो वापसी का कोई विकल्प उनके लिए नहीं बचा है।