आज के ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास के फलस्वरूप रोगमुक्ति, सुदूर अंतरिक्ष-यात्रा और कंप्यूटर की दुलर्भ सफलताएं मनुष्य के बहुतेरे स्वप्न साकार कर रही हैं। विज्ञान ने भौतिक उपलब्धि के सहारे सुख-खुशहाली की आशा का संचार किया। विज्ञान ने धर्म की प्राचीन अवधारणा को भी ध्वस्त किया परंतु आंतरिक-आध्यात्मिक मूल्यों का महत्त्व कम न हो कर और बढ़ा है। बहुतों के लिए निजी अनुभव और अंतश्चेतना की खोज आकर्षक सिद्ध हो रही है। आज तंत्रिका विज्ञान के अध्ययनों से चिंतन, मनन, ध्यान, प्रेम और चित्त की शांति के मस्तिष्क संरचना और व्यवहार पर सकारात्मक परिणाम भी मिल रहे हैं। दूसरी ओर, धर्म और अध्यात्म के नाम पर ठगी, व्यभिचार और अनैतिक कायरे का भी प्रसार हो रहा है। आज भारत में भी जब हम कई धर्म गुरु ओं के अनैतिक आचरण देखते हैं, तो धर्म को लेकर मन में संशय और मजबूत होता है। स्मरणीय है कि मनुष्य का जन्म धर्म से मुक्त स्थिति में होता है पर ममता की आवश्यकता तो सहजात है। इस तरह धर्म से कहीं अधिक आधारभूत हमारी मानवीय आध्यात्मिकता है। प्रीति, करु णा और औदार्य मानवीय प्रकृति के सहज हिस्से हैं, जिनको ख़्ाुद में विकसित कर व्यक्ति आध्यात्मिक होता है। इन विशेषताओं को हम हर किसी व्यक्ति में देखना चाहते हैं। अत: नैतिकता और आंतरिक मूल्यों को विकसित करना मनुष्य के सहज विकास का हिस्सा होता है। परस्पर निर्भरता का सच हमें एक तरह की धर्मनिरपेक्ष नैतिकता का आधार प्रदान करता है । इस तरह हमारी खुशहाली दूसरों की खुशहाली पर निर्भर करती है। यह तय भी विचारणीय है कि भौतिक स्तर पर सूक्ष्म अणु परमाणु से बने हम सबके शरीर में कोई मूल तात्विक अंतर नहीं होता है। यही नहीं जन्म, वृद्धि और मृत्यु की दशाओं से हम ही नहीं, पशु और वृक्ष समेत सकल जीव जगत या सृष्टि भी गुजरती है। हममें सुख और दु:ख का अनुभव भी होता है, जिसके आधार पर हम अपने परिवेश के प्रति प्रतिक्रिया भी करते हैं, और प्रिय-अप्रिय लोगों और वस्तुओं के साथ निकटता और दूरी बनाते हैं। इस तरह की प्रवृत्ति पशुओं में भी मिलती है परंतु मनुष्य के अनुभव की दुनिया और विकास की कड़ी इस अर्थ में जटिल और श्रेष्ठ होती है कि उसमें समानुभूति (इम्पैथी) की खास विशेषता भी होती है यानी वह दूसरे की स्थिति को समझ सकता है। ध्यान से विचार करें तो स्पष्ट होता है कि धन, स्वास्य और मित्रता हमारी खुशहाली के मुख्य कारण होते हैं। वैसे मानसिक समृद्धि और उत्थान पर भौतिक समृद्धि का अस्थायी प्रभाव ही पड़ता है। बढ़ी हुई खुशी जल्दी ही हवा हो जाती है, उत्तेजना जरूर बढ़ जाती है। कुल मिला कर आर्थिक संपत्ति खुशहाली की पक्की गारंटी नहीं है। सच तो यह है कि बड़े-बड़े धनी लोग भी जीवन में असंतुष्ट और अप्रसन्न दिखते हैं। शायद बढ़ते धन से आदमी अपने इर्द-गिर्द एक जाल बुन लेता है, जो उसे अकेला करता जाता है। धन-संपत्ति और प्रतिष्ठा से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण है हमारी आंतरिक मन:स्थिति। गरीब परिवार में प्यार, दया और पारस्परिक भरोसा ज्यादा मिलता है जबकि धनी लोगों के बीच संदेह और विरोध होता है। इसके बीच उन्हें वास्तविक खुशी नहीं मिल पाती। सच तो यह है कि धन-संपत्ति के मानसिक लाभ अस्थायी होते है, और समाज में संतुष्टि तब ज्यादा होती है, जब धन का समान वितरण होता है, और गरीबी-अमीरी की खाई कम होती है। हमारा स्वास्य निश्चय ही खुशहाली को प्रभावित करता है। दु:ख से छटपटाते हुए सकारात्मक मनोभाव नहीं रखा जा सकता। जहां तक मित्रता का प्रश्न है तो मित्र मंडली के साथ समय बिताना और अनुभव साझा करना आनंददायी होता है। सामाजिक प्राणी होने के कारण दूसरों के साथ रिश्ते हमारी खुशहाली के मुख्य आधार होते हैं पर सभी मित्र एक जैसे नहीं होते। सुख में तो सब साथी हो जाते हैं पर वास्तविक मित्र दु:ख में भी साथ नहीं छोड़ते। अलगाव और अकेलेपन से बचने के लिए जरूरी है कि हम दूसरों के साथ लगाव रखें और आदर दें जो हमें दूसरों से जोड़ सके। इंद्रिय सुख पर आश्रित कोई भी खुशहाली अंतत: पीड़ाजनक होती है परंतु आंतरिक संतुष्टि के लिए मन की शांति जरूरी है। मन की शांति, जो सीमित स्वार्थ से हट कर और दूसरों के साथ जुड़ाव या समुदाय के लगाव से आती है, दीर्घकालिक होती है। दूसरों के प्रति करु णा और औदार्य ही इसके आधार होते हैं, जो नैतिकता के लिए भी जरूरी हैं।