विकास गुप्ता
वाह रे सियासत तेरी महिमा न्यारी! आज देश की क्या स्थिति है वह किसी से भी छिपी हुई नहीं है। कोरोना के
कारण सुराक्षा हेतु लगाए गए लाकडाउन ने पूरी तस्वीर उजागर कर दिया। देश की आर्थिक स्थिति क्या है। देश का
प्रत्येक नागरिक कितना सशक्त है एवं मजबूत है यह स्पष्ट हो गया। दो जून की रोटी के लिए भटकता हुआ देश
आज भुखमरी के कगार पर जा खड़ा हुआ है। इस लाकडाउन ने देश की मुखौटा रूपी चमक-दमक को उतार कर
रखने का कार्य किया तथा वास्तिक चेहरा प्रस्तुत करने कार्य किया जोकि आँकड़ों से बहुत ही दूर है। क्योंकि,
विभाग एवं कर्मचारियों के द्वारा प्रस्तुत किए गए डाटे एवं वास्तविकता में बहुत बड़ा अंतर है। देश का 80 प्रतिशत
गरीब दो जून की रोटी के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। लाकडाउन लगते ही काम-धाम बंद हो गया उसका
परिणाम यह हुआ कि देश की गरीब जनता अपने-अपने कमरों से परिवार के साथ सड़कों पर आ खड़ी हुई इसके
पीछे कारण क्या था। इसके पीछे मूल कारण यह था कि किसी के भी पास अपने परिवार को दो जून की रोटी का
प्रबन्ध करने की क्षमता नहीं थी। यदि शब्दों को और सरल करके कहा जाए तो शायद गलत नहीं होगा कि देश की
80 प्रतिशत जनता के पास एक दो माह के भोजन का बैकप नहीं है। यदि काम-धाम ठप हो जाता है तो इतनी बड़ी
आबादी बिना किसी बीमारी के मात्र भूख के कारण ही मर जाएगी। देश की इतनी बड़ी आबादी भुखमरी का शिकार
हो जाएगी। क्योंकि एक माह भी बैठकर दो जून की रोटी अपने परिवार को नहीं खिला सकता। देश की यह आर्थिक
तस्वीर है, देश का यह वास्तविक विकास है। यह देश की प्रगति है।
लेकिन वहीं देश का दूसरा रूप भी सबके सामने है। जोकि एक ऐसा रूप है जिसके पास धन की कोई सीमा ही नहीं
है। बड़ा से बड़ा महल, बड़ी से बड़ी गाड़ी, बेइन्तेहा सम्पत्ति, अनुमान से अधिक बेशकीमती आभूषण। ऐसा है देश
का वास्तविक दृश्य है। अब सोचिए और समझिए कि वास्तव में इतनी बड़ी खाई का कारण क्या है। इतनी बड़ी
खाई के पीछे के पीछे का रहस्य क्या है। क्योंकि एक ओर धन की कोई सीमा नहीं तो दूसरी ओर धन का नाम
नहीं हैं। सत्य यह है कि दो जून की रोटी के लिए दिन-रात संघर्ष हो रहा है। इसके पीछे कई सवाल हैं जोकि ऐसे
सवाल हैं जिसका उत्तर कोई देने को तैयार नहीं है। और उत्तर देगा कौन…? यह बड़ा सवाल है। क्योंकि देश का
ताना-बाना ही इसी प्रकार बुना गया है। क्योंकि देश का सिस्टम ही इसी प्रकार से कार्य कर रहा है। सब कुछ
राजनीति के भरोसे है। यदि राजनीति है तो सब कुछ ठीक है कोई भी कुछ पूछने वाला नहीं है। किसी भी प्रकार का
सवाल आपसे हो नहीं सकता। इतनी संपत्ति आई कैसे…? अकूत संम्पत्ति अर्जित करने का फार्मूला क्या है…? क्या
कोई विशेष फार्मूला है…? क्योंकि एक ओर फटेहाल देश की तस्वीर है तो दूसरी ओर मालामाल देश की चकाचौंध।
यह अजब असमंजस की स्थिति है क्योंकि सवाल तो बहुतेरे हैं लेकिन जवाब किसी एक का भी नहीं मिलता। इसके
पीछे कारण यह है कि देश का पूरा सिस्टम ही राजनीति की परिक्रमा में लगा हुआ। राजनीति की परिक्रमा करता
हुआ देश का सिस्टम सवाल पूछे तो किससे पूछे क्योंकि जो भी अकूत दौलत है वह राजनीति की क्षत्र छाया में ही
संजोई जाती है। यह अलग बात है कि वह राजनीति प्रत्यक्ष रूप से हो अथवा अप्रत्यक्ष रूप से। लेकिन एक बात तो
सत्य है कि राजनीति की हनक और राजनीति की चमक के आगे कामगारों का कोई वजूद ही नहीं। कोई भी
कामगार कहीं दूर-दूर टिकता हुआ दिखाई नहीं देता। दिखाई देगा भी तो कैसे क्योंकि राजनीति की परिक्रमा में देश
का सिस्टम लगा हुआ है। देश के सिस्टम का ढाँचा ही इसी प्रकार गढ़ दिया गया है। कि जिससे आम आदमी इस
व्यवस्था से अनजान रहे। आम आदमी को इतना दूर फेंक दिया कि वह इस सिस्टम के करीब ही नहीं आ सकता।
कुछ बुद्धिमान एवं चतुर महारथी प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में न आकर अप्रत्यक्ष रूप से राजनीति का सदैव ही पूरा
आनंद लेते रहते हैं। सरकार कोई भी सत्ता किसी के भी हाथ में हो परन्तु वर्चस्व उनका कायम रहता है। इसके पीछ
का रहस्य भी बहुत ही साफ एवं स्पष्ट है। क्योंकि चतुर महारथी सियासी पार्टियों को चंदा देते रहते हैं। इसी चंदे
की बुनियाद पर उनका पूरा खेल चलता रहता है। कोई भी अधिकारी की हिम्मत नहीं होती कि वह उनसे सवाल कर
सके क्योंकि सवाल उससे ही होता जो कि सिस्टम के बाहर हो। बड़ी अजब स्थिति है। यह चंदा दाता किसी मौसम
वैज्ञानिक से कम नहीं होते। राजनीति का मौसम तुरंत भाँप लेते हैं और उसी अनुसार अपना रूप भी साध लेते हैं।
कुछ महारथी प्रत्यक्ष रूप से राजनीति में प्रवेश करते हैं जोकि किसी के इशारे पर किसी खास मकसद के लिए कार्य
करते हैं। जिनका उद्देश्य कुछ अलग ही होता है। जोकि किसी मिशन के लिए कार्य करते रहते हैं। जिन्हें साधारण
भाषा में वोट कटुवा कहा जाता है। यह एक ऐसा रूप होता है जोकि राजनीति के गलियारे में बहुत ही अहम माना
जाता है क्योंकि जो कार्य बड़े-बड़े पुराने राजनेता नहीं कर पाते वह कार्य यह वोट कटुआ बखूबी कर देते हैं। क्योंकि
राजनीति का खेल ही संख्या बल का है। संख्या बल के आधार पर ही प्रत्याशी विजयी एवं पराजित होता है। जिसके
पक्ष में जितनी संख्या में मत पड़ेगें उसी के आधार पर उसकी गणना होगी। अधिक मत होने पर विजयी तथा कम
मत होने पर पराजित यह चुनाव की व्यवस्था है। तो वोट कटुआ इस कार्य में बहुत ही अहम किरदार निभाते हैं।
वह वोट को काट कर अपने पाले में कर लेते हैं जिससे की उस प्रत्याशी के लिए रास्ता साफ हो जाता है जिसके
लिए वह कार्य कर रहे हैं। तो ऐसी स्थिति में भला कौन किससे सवाल पूछेगा। जब सत्ता प्राप्ति ही मात्र उद्देश्य
बन चुका हो। इस पूरे खेल में जनता ही मात्र पिसती है जोकि चक्की के दो पाटों के बीच फंसी हुई होती है।
मौजूदा बिहार की राजनीति पर यदि प्रकाश डालें तो बहुत कुछ साफ एवं स्पष्ट हो जाता है। विकास किसका हुआ
है। बिहार की वास्तविक स्थिति यह है कि एक पुल के लिए ग्रामीण संघर्ष कर रहे हैं। ग्रामीणों को आवागमन के
लिए एक पुल तक नसीब नहीं है। जिसके लिए ग्रामीण प्रदर्शन कर रहे हैं। चुनाव से दूरी बना रहे हैं। यह है बिहार
का विकास। यह है बिहार की विकासशील तस्वीर। यह है प्रगतिशील बिहार का ढ़ाँचा। अब सवाल यह उठता है कि
विकास किसका हुआ है। जिस विकास का ढ़िंढ़ोरा जोर-जोर से पीटा जा रहा है। जब एक पुल और एक सड़क
आजादी के बाद से अबतक ग्रामीणों को नही मिल पाई तो स्थिति क्या है इसकी तस्वीर एकदम साफ एवं स्पष्ट है।