जब 23 अप्रैल को लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण का मतदान चल रहा था, सत्ताधारी बीजेपी
समारोहपूर्वक फिल्मी हस्तियों की नई खेप अपने कुनबे में शामिल कर रही थी। इनमें कुछेक को
लोकसभा चुनाव के टिकट भी घोषित हो गए। न्यूज चैनलों ने मतदान कवरेज छोड़ राजनीति में दाखिल
हो रहे सनी देओल की ‘युद्ध और राष्ट्रवाद’ के थीम वाली फिल्मों के फुटेज दिखाने शुरू कर दिए। उत्तर
भारत की राजनीति में फिल्मी हस्तियों और नामचीन कलाकारों को एकाएक राजनीति में दाखिल कराकर
उन्हें संसद भेजने के मामले में बीजेपी अब कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और टीएमसी आदि से आगे निकल
चुकी है। दक्षिण के राज्यों, खासतौर पर तमिलनाडु में फिल्मी हस्तियों के राजनीति में आने का
सिलसिला बहुत पुराना है, लेकिन यह प्रक्रिया उत्तर की राजनीति से गुणात्मक स्तर पर बिल्कुल अलग है!
विचार की ताकत
तमिल राजनीति में इसकी शुरुआत स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही हो गई। सिनेमा वहां नई
राजनीतिक-सामाजिक चेतना के विस्तार का मंच बना जबकि आज उत्तर भारत की राजनीति में आने
वाली ज्यादातर फिल्मी हस्तियां सिर्फ अपना या अपने कुलीन मित्रों का भला करती हैं। जनता से उनका
जुड़ाव कुछ खास नहीं रहता। आंध्र और केरल की राजनीति में आने वाले फिल्मी कलाकारों के सामाजिक
सरोकार भी हिंदी क्षेत्र की हस्तियों से ज्यादा साफ और सुसंगत दिखते हैं। तमिलनाडु में सी. एन.
अन्नादुरै, एम करुणानिधि, एमजी रामचंद्रन और जे. जयललिता जैसी बड़ी सियासी हस्तियों की पृष्ठभूमि
रंगमंच या फिल्म ही है। लेखन-अभिनय के रास्ते ही वे सियासत में चमके। जयललिता को छोड़कर तीनों
प्रमुख नेता सामाजिक-राजनीतिक आंदोलन से जुड़े रहे। सियासत में जाने का सफर उनका निजी अजेंडा
नहीं था, उसके पीछे सामाजिक-वैचारिकी और राजनीतिक-प्रशासनिक सुधार का नजरिया था।
अन्नादुरै अपने मार्गदर्शक ईवी रामास्वामी पेरियार की जस्टिस पार्टी के जरिए राजनीति मे आए। फिर
द्रविड़ कड़गम और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम के शीर्ष नेता रहे। चंद्रमोहन, कदाल-ज्योति, वेलाइकरी, निधि
देवन मयक्कम और ऊल इरावू जैसे उनके नाटकों ने तमिल रंगमंच ही नहीं, सामाजिक जीवन को भी
प्रभावित किया। अन्नादुरै और उनके उत्तराधिकारी करुणानिधि की फिल्मी और सियासी शख्सियत में
अलगाव नहीं था। अपने नाटकों-फिल्मों के जरिए जिस वैचारिकी को इन दोनों ने प्रतिपादित किया,
मुख्यमंत्री बनने के बाद उस पर दृढ़ता से अमल भी किया। प्रतिभाशाली पटकथा लेखक के तौर पर
मशहूर हुए करुणानिधि ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत अन्नादुरै की अगुआई में की। एमजीआर
भी इसी धारा से जुड़कर आगे बढ़े। जयललिता निजी तौर पर द्रविड़ आंदोलन से प्रभावित नहीं थीं लेकिन
एमजीआर की उत्तराधिकारी बनकर उन्होंने फिर उसी धारा का ध्वज थामा और मरते दम तक उसे नहीं
छोड़ा। आंध्र में एनटी रामाराव का वैचारिक फलक तमिल फिल्म जगत से उभरी बड़ी सियासी हस्तियों
जैसा बड़ा नहीं है, पर इस बात से कौन इनकार करेगा कि सन् 1982 में गठित अपनी नई पार्टी तेलुगू
देशम् के जरिए उन्होंने केंद्र-राज्य संबंध को पुनर्परिभाषित करने का राष्ट्रव्यापी दबाव बनाया। राजनीति
में बढ़ती केंद्रीयता और निरंकुशता पर सवाल उठाया। मम्मोट्टी और मोहनलाल जैसी केरल की कई
फिल्मी हस्तियों की समाज कल्याणकारी कार्यक्रमों में सक्रिय हिस्सेदारी रही है। हालांकि तमिलनाडु या
आंध्र की तरह मलयाली फिल्मजगत का कोई बड़ा कलाकार राजनीति में कामय़ाब नहीं हुआ।
उत्तर या मध्य भारत की फिल्मी हस्तियों के लिए राजनीति एक तरह की आरामगाह है, जो उनके ढलते
स्टारडम में हर तरह की सुरक्षा का भरोसा देती है। समाजोन्मुखता का कंटेंट यहां सिरे से गायब है। राज
बब्बर को छोड़कर हिंदी क्षेत्र की राजनीति में आने वाली ज्यादातर फिल्मी हस्तियों या अन्य बॉलिवुड
कलाकारों का मिजाज भी हमेशा अराजनीतिक या व्यावसायिक रहा। बब्बर सिनेमा में जाने से पहले भी
युवा कार्यकर्ता के तौर पर राजनीति में सक्रिय रहे। लेकिन अमिताभ बच्चन, शत्रुघ्न सिन्हा, सुनील दत्त,
धर्मेंद्र, विनोद खन्ना, राजेश खन्ना, जया बच्चन, लता मंगेशकर, रेखा, अरुण गोविल, गोविन्दा, दीपिका
चिखालिया, नीतीश भारद्वाज, हेमा मालिनी, प्रिया दत्त, जयप्रदा, मनोज तिवारी, रवि किशन या निरहुआ
जैसों के लिए राजनीति के कभी खास मायने नहीं रहे। किसी सामाजिक सुधार आंदोलन या वैचारिकी से
इनका कोई लेना-देना नहीं रहा। संसद का रेकॉर्ड देखें तो एक सांसद के रूप में इन फिल्मी हस्तियों की
भूमिका बेहद निराशाजनक रही।
सिर्फ सजावटी चेहरे
उत्तर और दक्षिण के इस फर्क के पीछे सामाजिक-राजनीतिक सोच बड़ा कारण है। दक्षिण की राजनीति
और प्रशासन पर वहां के सामाजिक सुधार आंदोलनों का गहरा असर रहा है। भेदभाव, उत्पीड़न और
शोषण के खिलाफ फिल्मी हस्तियों पर्दे के बाहर भी रही है। उनमें ज्यादातर स्वयं भी उत्पीड़ित समुदायों
से आए, जबकि उत्तर क्षेत्र की ज्यादातर सिने हस्तियां अपेक्षाकृत कुलीन पृष्ठभूमि से हैं। तमिल समाज
पर अगर द्रविड़ आंदोलन का असर रहा तो मलयाली समाज पर श्रीनारायण गुरु और अय्यंकाली के सुधार
आंदोलनों का रहा। ये सभी आधुनिक काल के आंदोलन हैं। पर उत्तरी राज्यों में भेदभाव और संकीर्णताओं
के खिलाफ मध्यकाल के कबीर-रैदास-नानक आदि के बाद कहां कोई बड़ा समाज सुधार अभियान चला?
ऐसे में उत्तर भारत की राजनीति भला कैसे ज्यादा सुसंगत और समावेशी होती! यह संयोग नहीं कि वह
दक्षिण के मुकाबले ज्यादा वर्णवादी, कॉरपोरेट-पक्षी और कम्युनल होती गई! उसमें दाखिल होने वाली
आज की सिने-हस्तियां अपने आकाओं के लिए भीड़ बटोरने या चंदा जुटाने का जरिया भर हैं! उनका
समाज से कोई लेना-देना नहीं है। उत्तर और दक्षिण का यह बड़ा फर्क है!