सिंहासन खाली करो जनता आती है’ नारे के साथ मैदान में उतरे थे जेपी

asiakhabar.com | October 11, 2017 | 5:19 pm IST

आजादी के आंदोलन से हमें ऐसे बहुत से नेता मिले जिनके प्रयासों के कारण ही यह देश आज तक टिका हुआ है और उसकी समस्त उपलब्धियां उन्हीं नेताओं की दूरदृष्टि और त्याग का नतीजा है। ऐसे ही नेताओं में जीवनभर संघर्ष करने वाले और इसी संघर्ष की आग में तपकर कुंदन की तरह दमकते हुए समाज के सामने आदर्श बन जाने वाले प्रेरणास्त्रोत थे लोकनायक जयप्रकाश नारायण। जो अपने त्यागमय जीवन के कारण मृत्यु से पहले ही प्रातः स्मरणीय बन गये थे। अपने जीवन में संतों जैसा प्रभामंडल केवल दो नेताओं ने प्राप्त किया। एक महात्मा गांधी थे तो दूसरे जयप्रकाश नारायण। इसलिए जब सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद वे 1974 में ‘सिंहासन खाली करो जनता आती है’ के नारे के साथ वे मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा, जैसे किसी संत महात्मा के पीछे चल रहा हो। 11 अक्टूबर, 1902 को जन्मे जयप्रकाश नारायण भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे। वे समाज-सेवक थे, जिन्हें ‘लोकनायक’ के नाम से भी जाना जाता है। 1999 में उन्हें मरणोपरान्त ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें समाजसेवा के लिए 1965 में मैगससे पुरस्कार प्रदान किया गया था। पटना के हवाई अड्डे का नाम उनके नाम पर रखा गया है। दिल्ली सरकार का सबसे बड़ा अस्पताल ‘लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल’ भी उनके नाम पर है।

लोकनायक जयप्रकाशजी की समस्त जीवन यात्रा संघर्ष तथा साधना से भरपूर रही। उसमें अनेक पड़ाव आए, उन्होंने भारतीय राजनीति को ही नहीं बल्कि आम जनजीवन को एक नई दिशा दी, नए मानक गढ़े। जैसे- भौतिकवाद से अध्यात्म, राजनीति से सामाजिक कार्य तथा जबरन सामाजिक सुधार से व्यक्तिगत दिमागों में परिवर्तन। वे विदेशी सत्ता से देशी सत्ता, देशी सत्ता से व्यवस्था, व्यवस्था से व्यक्ति में परिवर्तन और व्यक्ति में परिवर्तन से नैतिकता के पक्षधर थे। वे समूचे भारत में ग्राम स्वराज्य का सपना देखते थे और उसे आकार देने के लिए अथक प्रयत्न भी किए। उनका संपूर्ण जीवन भारतीय समाज की समस्याओं के समाधानों के लिए प्रकट हुआ, एक अवतार की तरह, एक मसीहा की तरह। वे भारतीय राजनीति में सत्ता की कीचड़ में केवल सेवा के कमल कहलाने में विश्वास रखते थे। उन्होंने भारतीय समाज के लिए बहुत कुछ किया लेकिन सार्वजनिक जीवन में जिन मूल्यों की स्थापना वे करना चाहते थे, वे मूल्य बहुत हद तक देश की राजनीतिक पार्टियों को स्वीकार्य नहीं थे। क्योंकि ये मूल्य राजनीति के तत्कालीन ढांचे को चुनौती देने के साथ-साथ स्वार्थ एवं पदलोलुपता की स्थितियों को समाप्त करने के पक्षधर थे, राष्ट्रीयता की भावना एवं नैतिकता की स्थापना उनका लक्ष्य था, राजनीति को वे सेवा का माध्यम बनाना चाहते थे।

लोकनायक जयप्रकाशजी की जीवन की विशेषताएं और उनके व्यक्तित्व के आदर्श कुछ विलक्षण और अद्भुत हैं जिनके कारण से वे भारतीय राजनीति के नायकों में अलग स्थान रखते हैं। उनका सबसे बड़ा आदर्श था जिसने भारतीय जनजीवन को गहराई से प्रेरित किया, वह था कि उनमें सत्ता की लिप्सा नहीं थी, मोह नहीं था, वे खुद को सत्ता से दूर रखकर देशहित में सहमति की तलाश करते रहे और यही एक देशभक्त की त्रासदी भी रही थी। वे कुशल राजनीतिज्ञ भले ही न हो किन्तु राजनीति की उन्नत दिशाओं के पक्षधर थे, प्रेरणास्रोत थे। वे देश की राजनीति की भावी दिशाओं को बड़ी गहराई से महसूस करते थे। यही कारण है कि राजनीति में शुचिता एवं पवित्रता की निरंतर वकालत करते रहे।

महात्मा गांधी जयप्रकाश की साहस और देशभक्ति के प्रशंसक थे। उनका हजारीबाग जेल से भागना काफी चर्चित रहा और इसके कारण से वे असंख्य युवकों के सम्राट बन चुके थे। वे अत्यंत भावुक थे लेकिन महान क्रांतिकारी भी थे। वे संयम, अनुशासन और मर्यादा के पक्षधर थे। इसलिए कभी भी मर्यादा की सीमा का उल्लंघन नहीं किया। विषम परिस्थितियों में भी उन्होंने अपना अध्ययन नहीं छोड़ा और आर्थिक तंगी ने भी उनका मनोबल नहीं तोड़ा। यह उनके किसी भी कार्य की प्रतिबद्धता को ही निरूपित करता था, उनके दृढ़ विश्वास को परिलक्षित करता है।

मैंने जेपी को नहीं देखा लेकिन उनकी प्रेरणाएं मेरे पारिवारिक परिवेश की आधारभित्ति रही है। मेरी माताजी स्व. सत्यभामा गर्ग उनकी अनन्य सेविका थीं। राजस्थान में होने वाले जेपी के कार्यक्रमों को वे संचालित किया करती थीं, उनके व्यक्तिगत व्यवस्था में जुड़े होने के कारण उनके आदर्श एवं प्रेरणाएं हमारे परिवार का हिस्सा थे। मेरे आध्यात्मिक गुरु आचार्य श्री तुलसी के जीवन से जुड़े एक बड़े विरोधपूर्ण वातावरण के समाधान में भी जयप्रकाश का अमूल्य योगदान है। उनकी चर्चित पुस्तक अग्निपरीक्षा को लेकर जब देश भर में दंगे भड़के, तो जेपी के आह्वान से ही शांत हुए। जेपी के कहने पर आचार्य तुलसी ने अपनी यह पुस्तक भी वापस ले ली।

जयप्रकाश नारायण को 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है। इन्दिरा गांधी को पदच्युत करने के लिये उन्होंने ‘सम्पूर्ण क्रांति’ नामक आन्दोलन चलाया। लोकनायक ने कहा कि सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियाँ शामिल हैं- राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक व आध्यात्मिक क्रांति। इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रान्ति होती है। सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जयप्रकाश नारायण की हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी थी। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे। लालमुनि चौबे, लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, रामविलास पासवान या फिर सुशील मोदी, आज के सारे नेता उसी छात्र युवा संघर्ष वाहिनी का हिस्सा थे।

देश में आजादी की लड़ाई से लेकर वर्ष 1977 तक तमाम आंदोलनों की मशाल थामने वाले जेपी यानी जयप्रकाश नारायण का नाम देश के ऐसे शख्स के रूप में उभरता है जिन्होंने अपने विचारों, दर्शन तथा व्यक्तित्व से देश की दिशा तय की थी। उनका नाम लेते ही एक साथ उनके बारे में लोगों के मन में कई छवियां उभरती हैं। लोकनायक के शब्द को असलियत में चरितार्थ करने वाले जयप्रकाश नारायण अत्यंत समर्पित जननायक और मानवतावादी चिंतक तो थे ही इसके साथ-साथ उनकी छवि अत्यंत शालीन और मर्यादित सार्वजनिक जीवन जीने वाले व्यक्ति की भी है। उनका समाजवाद का नारा आज भी हर तरफ गूंज रहा है। भले ही उनके नारे पर राजनीति करने वाले उनके सिद्धान्तों को भूल रहे हों, क्योंकि उन्होंने सम्पूर्ण क्रांति का नारा एवं आन्दोलन जिन उद्देश्यों एवं बुराइयों को समाप्त करने के लिये किया था, वे सारी बुराइयां इन राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं में व्याप्त है।

सम्पूर्ण क्रान्ति के आह्वान में उन्होंने कहा था कि ‘भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना, आदि ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रान्ति, ’सम्पूर्ण क्रान्ति’ आवश्यक है।’ इसलिये आज एक नयी सम्पूर्ण क्रांति की जरूरत है। यह क्रांति व्यक्ति सुधार से प्रारंभ होकर व्यवस्था सुधार पर केन्द्रित हो। कुर्सी पर कोई भी बैठे, लेकिन मूल्य प्रतिष्ठापित होने जरूरी हैं। ऐसा करके ही हम एक महान् लोकनायक को सच्ची श्रद्धांजलि दे पाएंगे।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *