प्रो. डॉ. सारिका मुकेश
अनंत कल्पनाएँ, असीम भावनाएँ और असंख्य सौन्दर्यानुभूतियाँ जब नये-नये प्रतीकों, बिंबों और उपमाओं के साथ काव्य में बिंबित-प्रतिबिंबित होती हैं, तो काव्य-रस का आनन्द अनूठा हो उठता है। कविता हो या गीत सब कुछ भले ही स्वान्तः सुखाय के भाव से लिखा गया हो परन्तु कवि की आकांक्षाओं, भावनाओं का कैनवास विस्तृत वैश्विक हो बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय होना ही इसकी परम उपलब्धि है। कवि युग-दृष्टा के साथ-साथ युग सृष्टा भी होता है। शायद इसीलिए टेरेंस मैककेना कहती हैं-“द इंजीनियर्स ऑफ़ द फ्यूचर विल बी पोएट्स अर्थात् भविष्य के इंजीनियर कवि होंगे”।
आज हम श्री विजय कनौजिया के सद्य: प्रकाशित काव्य संग्रह “विजय के भाव” से आपको रूबरू कराने हेतु उपस्थित हुए हैं। देश के तमाम हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों के असीम स्नेह और दुलार से विजय कनौजिया अनेकों हिन्दी दैनिक समाचार पत्रों में नियमित रूप से छपते रहते हैं (जा पर कृपा सम्पादक की होई, वाको रोक सके न कोई!) और साथ ही कई साझा-संकलनों में भी अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हुए आज वह अपनी तीसरी काव्य कृति के साथ हमारे समक्ष उपस्थित हैं। वो अपने मनोभावों को वो सदा काव्य के माध्यम से काग़ज़ पर उतारकर सबसे साझा करते रहते हैं। दुष्यंत के शब्दों में-वो काव्य को ओढ़ते बिछाते हैं। “क़िस्सा बयान गम का तबस्सुम में करेंगे, हम आज ज़िक्र तेरा तरन्नुम में करेंगे”-(ए.एम.तुराज)। अपने मनोभावों को सदा काव्य के माध्यम से काग़ज़ पर उतारकर सबसे साझा करने वाले विजय अपने लेखन के विषय में बड़ी सादगी बरतते हुए कहते हैं-“मैं तो बस यूँ ही लिखता हूँ/भावों की लड़ियाँ बुनता हूँ/ख़ुद से ख़ुद को पहचानूँ मैं/इसीलिए कविता लिखता हूँ।” उनके द्वारा माँ सरस्वती से की गई प्रार्थना को मंगलाचरण के रूप में रखा जा सकता है-“मैं भी काव्य पथिक बन जाऊँ/थोड़ी-सी कविता लिख पाऊँ/भावों की लड़ियाँ मैं गूथूँ/माँ मुझको ऐसा वर दे।”
आज जबकि हम एक अजीब-सी कशमकश के कोलाहल भरे दौर से गुज़र रहे हैं, वहाँ प्रेम पर बातें करना और कविता लिखना सुखद आश्चर्य से भर देता है। विजय जी की अधिकतर कविताओं का विषय प्रेम ही है। इसमें मिलन है तो जुदाई भी है, रूठना है, मनुहार भी है, प्यार है तकरार भी है, तमाम वादे हैं, प्रेम के अटल इरादे हैं, बाजा है शहनाई है, जीवन की सच्चाई है, ख़ुशियों की सौगात है, यादों की बारात है..कहने का मतलब यह है कि विजय जी के जीवन के तमाम शेड्स, तमाम भाव आपको इस कविता संग्रह में मिलेंगे, जो इसके नामकरण को चरितार्थ करते हैं। जीवन पथ पर तमाम सुख-दुःख और महानगर में रहते हुए रोजमर्रा के तनावों के बावजूद कुछ पलों को चुराकर उनमें प्रेम के इन्द्रधनुष सजाने का कार्य सहज नहीं है, इसके लिए विजय जी निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं।
विजय जी एक लम्बे समय से अनवरत लिखते चले आ रहे हैं और प्राय: ही हम उनके लेखन के साक्षी रहे हैं पर यह सच है कि अभी उन्हें एक लंबा सफ़र तय करना है (अभी जीती है कुछ मुट्ठी जमीन, अभी तो आसमान बाकी है..), उन्होंने स्वयं भी शायद यही महसूस करते हुए लिखा होगा-“लिखते-लिखते लिख डाले हैं/जीवन के कितने ही पन्ने/फ़िर भी जीवन अनसुलझा है/न जाने कितने हैं लिखने।” न जाने क्यों एकाएक ही इन पंक्तियों से गुज़रते हुए गीतकार राजेन्द्र राजन की यह पंक्तियां स्मरण हो आई हैं, “जितनी सुलझानी चाही है, उतनी और बढ़ी है उलझन, जितना कठिन बना डाला है, उतना कठिन नहीं है जीवन..”। यह सच ही तो है हम जो लिखना/कहना चाहते हैं उम्र भर कहाँ कह पाते हैं!
हमें प्रसन्नता है कि उनके लेखन के इस सफ़र में हम कहीं न कहीं शामिल हैं, यह सफ़र यूँ ही अनवरत चलता रहे, इसी कामना के साथ हम श्री विजय कनौजिया जी को उनके रचनाकर्म हेतु हार्दिक साधुवाद और मंगलकामनाएँ प्रेषित करते हुए सुप्रसिद्ध गीतकार श्री राजेन्द्र राजन जी की इन पंक्तियों के साथ अपनी वाणी को विश्राम देंगे-“मन तो सागर से भी गहरा/फ़िर तूफ़ानों से क्या डरना/पत्थर बेशक रस्ता रोकें/लेकिन कब रुकता है झरना/जो गम आज मिला है वह तो आज रहेगा कल ना होगा/रुकते-बढ़ते इन राहों में गिरना और सँभलना होगा/रोते-हँसते जलते-बुझते अंगारों पर चलना होगा..”।