शिशिर गुप्ता
व्याख्यानों की प्रेरक शृंखला के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध ‘टेड टॉक्स’ में अपने अनुभव बताते हुए अमांडा पामर ने
एक बहुत पते की बात कही। उनका व्याख्यान ‘दि आर्ट ऑफ आस्किंग’ बहुत सराहा गया जिसमें उन्होंने बताया है
कि खुद पर शर्म महसूस करते हुए या शर्मिंदा होते हुए सहायता के लिए कहने का तात्पर्य यह है कि आप मुझसे
अधिक सामर्थ्यवान हैं, और अपने स्वर में सिर्फ थोड़ी-सी नम्रता लाकर सहायता के लिए कहने का अर्थ है कि मैं
आपसे अधिक सामर्थ्यवान हूं। इन दोनों के विपरीत कृतज्ञता भाव से सहायता के लिए कहने का अर्थ है कि हम
दोनों सामर्थ्यवान हैं और एक-दूसरे की सहायता कर सकते हैं। इसमें न हिचक है, न शर्मिंदगी और न छोटे या बड़े
होने का कोई भाव। ‘मैंने चिंता किए बिना लोगों से सहायता मांगना कैसे सीखा’ विषय पर बोलते हुए उन्होंने
उपरोक्त बातें कहीं। आज हम जिस तरह का जीवन जी रहे हैं उसकी असलियत यह है कि हम या तो अपने
मोबाइल फोन, आईपैड, लैपटॉप या डेस्कटॉप से बंधे हुए हैं या फिर हम उन लोगों से घिरे हुए हैं जिनसे हम रोज़
रूबरू होते हैं, रोज़ मिलते हैं, रोज़ बात करते हैं और हमें मालूम है कि हमारा आने वाला कल भी आज ही की तरह
का और बीते हुए कल की तरह का ही होगा। उसमें कोई विशेष परिवर्तन संभावित नहीं है।
बड़ी बात यह है कि हमें यह भी मालूम नहीं है कि इसमें कोई परिवर्तन कब आएगा, और चूंकि जीवन सिर्फ एक
रुटीन है, इसलिए इसमें कोई बड़ी खुशी भी शामिल नहीं है। अनायास आने वाला सुखद परिवर्तन जीवन में खुशियां
भरता है लेकिन हमने अपना जीवन इतना मशीनी बना लिया है कि वह सिर्फ एक रुटीन बन गया है और इसी
वजह से नीरस भी हो गया है। कोरोना के नए-नए वैरियंट हमें डराए हुए हैं और किसी को नहीं मालूम कि भविष्य
कैसा होगा। पहाड़ी क्षेत्रों में बादलों के फटने से आई तबाही का मंजर और कोरोना का शिकार होकर लोगों का
दुनिया से विदा हो जाना दिल दहलाने के लिए काफी है। चीन हमारी सीमाओं पर सक्रिय है और प्रधानमंत्री तथा
वित्तमंत्री की सारी घोषणाओं के बावजूद अर्थव्यवस्था संभलने का नाम नहीं ले रही। हर ओर निराशा का साम्राज्य
है। ऐसे में सहनशील व्यक्तियों का भी निराश हो जाना कोई बड़ी बात नहीं है। इस माहौल में एक-दूसरे के काम
आना, एक-दूसरे का हाथ बंटाना और एक-दूसरे की सहायता करना ही खुश रहने का सबसे कारगर साधन है।
अमांडा पामर की ही तरह अपनी किशोरावस्था में मैं समझता था कि साहसी मनुष्य होने का मतलब ‘समर्थ’ होना
है, समर्थ होने का मतलब ‘आत्मनिर्भर’ होना है और आत्मनिर्भर होने का मतलब है किसी से भी सहायता न
मांगना। आज मैं जानता हूं कि मैं कितना गलत था। अपनी सहकर्मी पैम का जि़क्र करते हुए पामर कहती हैं कि
पैम इस बात का जीवंत उदाहरण थीं कि समझदार लोग सहायता मांगने में हिचकिचाते नहीं। पैम हमेशा कहती थीं
कि आज मैं जहां हूं, वहां सिर्फ इसीलिए हूं क्योंकि लोगों ने सही समय पर सहायता का हाथ बढ़ाया। अमांडा पामर
कहती हैं कि पैम के उदाहरण से सीखकर उन्होंने भी सहायता मांगने की आदत अपनाई।
महामारी के इस दौर में अमांडा पामर ने आह्वान किया कि हम न निराश हों न हताश। ऐसी किसी भी स्थिति में
अपने मित्रों और शुभचिंतकों से संपर्क कर लेना चाहिए और स्पष्ट शब्दों में सहायता मांगनी चाहिए। आपके मित्र,
शुभचिंतक और परिवार वाले आपकी स्थिति से वाकिफ हैं, वे बेहतरीन सलाह दे सकते हैं। कठिन स्थितियों में
मित्रों, शुभचिंतकों अथवा परिवारजनों की सलाह रामबाण औषधि है। सलाह-मशविरे से कोई नई राह निकल आती
है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि निराशा की स्थिति ऐसी होती है मानो हम फरारी कार में हों और उसके आगे हमने
दो बैल जोत रखे हों। कार खराब नहीं है, कार में कोई कमी नहीं है, कार के इंजन की सामर्थ्य बरकरार है, पर
ड्राइवर को कार की समझ नहीं है। सलाह-मशविरे से राह ही नहीं निकलती बल्कि यह भी समझ में आता है और
क्या नया करने या नया सीखने की जरूरत है ताकि हम अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकें। कोरोना की महामारी ने
हमारी बहुत सी कमजोरियां उजागर की हैं। हममें से बहुत से लोगों ने यह समझ लिया है कि हमारी पारंपरिक
खूबियों के अलावा भी हमें बहुत कुछ नया सीखने की आवश्यकता है ताकि हम हर स्थिति में खुशहाल रह सकें। घर
से ही काम करते हुए अथवा सोशल डिस्टैंसिंग का पालन करते हुए अपनी जिम्मेदारियों के निर्वाह में ऑनलाइन
रहना एक स्थायी आवश्यकता बन गई है। इसी तरह अपनी नौकरी या अपने व्यवसाय को बचाए रखने के लिए
बहुत से नए हुनर अब आवश्यक हो गए हैं। हमें वो हुनर सीखने और अपनाने की आवश्यकता है जिनसे हम अपनी
कंपनी या अपने ग्राहकों के लिए प्रासंगिक बने रहें, उपयोगी बने रहें। आज आईटीबॉक्स, एमएसएमईएक्स, जीतो
दुनिया आदि बहुत सी संस्थाएं भी इसी नज़रिए से प्रेरित हैं जिनके प्रशिक्षण से रोज़गार फिर से बढ़ने लगा है।
रोज़गार कायम रहेगा तो न केवल हम खुद खुशहाल होंगे बल्कि देश की अर्थव्यवस्था भी मजबूत होगी। प्रेरक
शृंखला के व्याख्यानों के लिए जिस प्रकार दुनिया में टेड टॉक्स प्रसिद्ध है वैसे ही भारतवर्ष में हिंदी के ऐसे
व्याख्यानों के लिए ‘जोश टॉक्स’ और ‘जीतो ज्ञान’ भी प्रेरणा का बड़ा स्रोत हैं।
ऐसे भारतीय जो अंग्रेजी नहीं जानते या अंग्रेजी जानते हैं पर अंग्रेजी का विदेशी उच्चारण उनको समझ नहीं आता,
उनके लिए जोश टॉक्स और जीतो ज्ञान बहुत उपयोगी मंच हैं। मैं हमेशा से इस बात का हिमायती रहा हूं कि
सीखने की न कोई सीमा है और न कोई उम्र। हम हमेशा सीखना जारी रख सकते हैं, हर उम्र में सीखना जारी रख
सकते हैं। हरदम कुछ नया सीखना और सीखते रहना ही हमारी मुश्किलों से निजात दिलाने का सर्वश्रेष्ठ साधन है।
इसी तरह जब हम कहीं अटक जाएं, राह न सूझे तो किसी विश्वस्त शुभचिंतक से बात करना समस्या के हल का
साधन हो सकता है। समस्याओं के हल का साधन समस्या से भागना नहीं है। समस्या का सामना करने की कूवत
सिर्फ एक ही बात से आती है कि हम समस्या से भागने के बजाय समस्या का सामना करें, समस्या का विश्लेषण
करें, उसे छोटे-छोटे टुकड़ों में बांट लें और समस्या के एक-एक टुकड़े का हल करते चलें। इसके लिए हमें किसी से
सहायता लेनी हो, कुछ नया सीखना हो तो उसकी तरफ ध्यान दें। दुनिया का कोई रिश्ता स्वार्थ से नहीं चलता,
कम से कम हमेशा तो नहीं ही चलता, इसलिए यह समझना भी जरूरी है कि जब हमारे किसी साथी अथवा
प्रियजन को कोई समस्या दरपेश आए तो हमें भी खुले दिल से उनकी सहायता करनी चाहिए, बिना किसी पूर्वाग्रह
या अपेक्षा के सहायता करनी चाहिए। सन् 1957 में रिलीज़ हुई स्वर्गीय अभिनेता दिलीप कुमार की फिल्म नया दौर
का गीत ‘साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाएगा, मिलकर बोझ उठाना’ आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना
तब था।