अंतत: ‘‘पद्मावत’ रिलीज हो ही गई। लेकिन यह विवाद का अंत नहीं, बल्कि अर्ध-विराम मात्र है। आगे फिर किसी अन्य प्रतीक के लिए मीडिया में ‘‘फाइट’ दिखेगी। पदमावत ने इतना विवाद क्यों पैदा किया? इसका कारण समकालीन ‘‘सांस्कृतिक राजनीति’ है, जो उत्तेजक प्रतीकों से संचालित होती है। प्रतीक अस्मिता को जगाने वाले होते हैं, और टीवी अस्मिता को जागृत करके ही अपना धंधा करता है। मीडिया और ‘‘सांस्कृतिक राजनीति’ एक दूसरे के पूरक हैं। मीडिया ‘‘जितनी अधिक उत्तेजना, उतने अधिक दर्शक, जितने दर्शक उतनी टीआरपी, जितनी टीआरपी उतना रेवेन्यू और ‘‘कमाई के गणित’ से काम करता है। ‘‘सांस्कृतिक राजनीति’ भी ‘‘जितनी अधिक उत्तेजना-उन्माद उतने अधिक समर्थक, जितने अधिक समर्थक उतनी अधिक ताकत, जितनी अधिक ताकत उतना अधिक राजनीतिक पव्वा और ‘‘सत्ता का दावा’ के गणित से काम करती है। ‘‘पदमावती’/‘‘पदमावत’ विवाद इस तरह की ‘‘सांस्कृतिक राजनीति’ का सबसे बड़ा उदाहरण है, जो बताता है कि समाज में पिछले कई बरसों से सक्रिय हुई खुली सांस्कृतिक राजनीति के खिलाड़ी ‘‘पॉपूलर निर्मिति’ यानी किसी फिल्म, नाच-गाने, प्रार्थना या खास जीवन शैली, खास ड्रेस कोड आदि की पॉपूलरिटी पर सवार होकर अपना पव्वा बढ़ाने की राजनीति करते हैं। मीडिया स्वभावत: ‘‘पॉपूलर कल्चर’ का मंच है। कल्चरल राजनीति इसी ‘‘पॉपूलर स्पेस’ में ‘‘जबरिया हस्तक्षेप’ करके अपनी जगह बनाती है। इसके लिए वे किसी भी ‘‘निर्मिति’, फिल्म आदि में मनमर्जी के प्रतीक ढूंढ लेती है, और उनको प्रिभाषित करने लगती है।‘‘मारकेटिंग कला’ हर ‘‘ब्रांड’ को पॉजिटिवली पेश करती है लेकिन सांस्कृतिक राजनीति करने वाली भीड़ और संगठन अपनी मारकेटिंग ‘‘विरोध’ के जरिए करते हैं, जो उनकी ताकत, हिम्मत और दावेदारी का प्रतीक होता है। ‘‘पदमावती’ को लेकर अब तक तीन फिल्में और एक सीरियल बन चुका है लेकिन किसी ने इनका विरोध करके अपनी ‘‘सांस्कृतिक राजनीति’ की मारकेटिंग नहीं की लेकिन भंसाली की फिल्म बड़ी ‘‘कन्फिल्टिकुचअल साइट’ (झगड़े की जगह) बनाई गई क्योंकि भंसाली बड़ा नाम हैं। पिछले कुछ बरसों में आये दिन किसी न किसी ‘‘सांस्कृतिक निर्मिति’ के ‘‘अर्थ’ (मानी) पर कब्जे की लड़ाइयां ही तो लड़ी जा रही हैं। पदमावत-विरोध उसी का विस्तार है। सांस्कृतिक राजनीति भावनाओं को जागृत, उत्तेजित और उन्माद बनाकर अपनी स्वीकार्यता और ताकत की जगह बनाती है। पदमावती/पदमावत तो अब आकर जुड़ी है। फर्क इतना है कि इस बार कुछ राज्य सरकारें ऐसे समूहों के पीछे खुलकर खड़ी दिखी हैं। हमारी राज्य सरकारें भी तो सांस्कृतिक राजनीति करने वालों से बनी हैं। यह सिर्फ वोट की राजनीति नहीं है, बल्कि विराट सांस्कृतिक राजनीतिक प्रोग्राम का ही हिस्सा है। खिलजी बरक्स पदमावती की ‘‘बाइनरी’ (विलोमी प्रतीक) समकालीन सांस्कृतिक राजनीतिक के लिए अवसर भर है। खिलजी यानी ‘‘एक अय्याश क्रूर हिंसक मुसलमान हमलावर’ के बरक्स पदमावती ‘‘राजपूतों की अस्मिता की सबसे बड़ी प्रतीक’ है। इस विमर्श में खिलजी जैसे अय्याश के साथ पदमावती को एक फ्रेम में दिखाना तक अपराध है। फ्रेम में तो क्या उसे हम पदमावती का सपना तक देखने नहीं दे सकते।यह ‘‘कला’ को ‘‘टोटली कंट्रोल’ करना है। शुरुआत में ‘‘राजपूती गौरव’ की प्रतीक पदमावती देखते-देखते हिन्दुत्व और देश के गौरव की प्रतीक बना दी गई। इतिहास में है कि नहीं ये आप जानें, हमारी परंपरा में, कल्चर में, वह है। इतना काफी है और उसे भ्ांसाली नहीं हम परिभाषित करेंगे। उसके मानी हम तय करेंगे। इसलिए उसे किसी को नहीं देखने देंगे।‘‘सांस्कृतिक राजनीति’ं प्रतीकों को मनमाने अर्थ देकर उनको ‘‘तरल’ बनाकर काम करती है। पदमावत-विमर्श का असली क्रिटीकल पक्ष ‘‘देखने देने’ और ‘‘न देखने देने’ का रहा है अर्थात् पदमावत का कॉपीराइट अस्मितावादियों का है। शुरू में एक ‘‘सेना’ का था। फिर ‘‘राजपूतों’ अब ‘‘सवा सौ करोड़ हिन्दुओं’ का है। बड़ी अदालत के हस्तक्षेप के बाद सिर्फ पदमावत ही रिलीज नहीं हुई, उसके साथ घोर सांप्रदायिक, विद्वेषी, प्रतिहिंसक और क्रूर राजनीति भी रिलीज हुई है। मीडिया ने पदमावत के साथ-साथ एक विराट सांप्रदायिक द्वेष को भी रिलीज किया है। यह एक प्रकार के ‘‘सांस्कृतिक फासिज्म’ का अभ्यास मात्र है। यह ‘‘सांस्कृतिक राजनीति’ का दौर है। इस दौर में ‘‘पॉपूलर कल्चर’ अक्सर हर तरह के ‘‘तत्ववाद’ के लिए एक ‘‘डिसरप्टिव’ और ‘‘कन्फिल्कचुअल साइट’ होती है। यह झगड़ा सबसे पहले मीडिया में नजर आता है, और उसी से मेनेज होता है।