श्मीर को लेकर सब सहज हो गए हैं। पहले तंत्र और फिर उसकी देखा-देखी शायद लोक चेतना भी। यह इसी का परिणाम है कि दो सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर कश्मीर के प्रतिष्ठित अस्पताल से पाकिस्तानी आतंकवादी को छुड़ा ले जाने जैसी बड़ी घटना देश स्तर पर वैसी सुर्खियां नहीं पा सकीं। कहीं कोई शिकायत नहीं थी। यह ठंडा-सा भाव उस स्थिति में आता है, जब आप घटित हो रहे को नियति मान लेते हैं। कश्मीर और उससे लगती पाकिस्तान-सीमा से एक-दो दिन के अंतर पर घरों को लौटते ताबूत अगर रिवाज बन जाएं तो परिदृश्य उस सोच से भिन्न कैसे बनेगा! लेकिन कश्मीर की इस चुनौतीपूर्ण दुस्साहिक घटना के कुछ खतरनाक मायने हैं। उनको समझना चाहिए। यह कि पिछले साल पस्त पड़ता दिखा आतंकवाद नौंवे दशक वाले तेवर में दोहराव की धमक दे रहा है। जब आए दिन आतंकवादी ऐसे ही जहां कहीं नमूदार हो जाते और हिंसक कारनामे कर सुरक्षा तंत्र को लाचार बना जाते थे। हालांकि तब से भारतीय जवाबी कार्रवाई ज्यादा समर्थ हो गईहै। ऐसी कि आतंकवादी संगठन अपने सरदार नियुक्त करने तक से कांपने लगे थे। कश्मीर आने के लिए किसी आतंकी के तैयार न होने के दावे भी थे। इस ताजा वारदात ने जाहिर किया कि आतंकवादी उस खौफ से बाहर आ गए हैं। यह हमारे हक में नहीं है। निश्चित रूप से यह जोखिम के गलत आकलन और सुरक्षा में गंभीर चूक का मामला है। इसकी घोषित जांच उन बिंदुओं को उजागर भी करेगी। अभी तो यही है कि इलाज के लिए करीब के अन्य अस्पतालों को छोड़ कर हरी सिंह तक ले आने का फैसला कैसे एवं किन हालातों में लिया गया? लेकिन इसके साथ उन वजहों पर गौर करना चाहिए कि आतंकवादी संगठनों में शामिल होने वाले नौजवानों की दर में साल दर साल इजाफा कैसे हो रहा है! 2016 के 88 की तुलना में गत साल 126 युवक आतंकवादी बने, जबकि सख्ती और गुमराह युवकों को मुख्य धारा से जोड़ने की कितनी कवायदें जारी रखी गई। इनके बावजूद 2017 में कश्मीर में सबसे ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए। नये साल में भी वह ट्रेंड जारी है। दो दिन पहले ही चार ताबूतों में जवान आए हैं। इससे सख्ती के असरकारक होने पर सवाल उठने लगे हैं। कांग्रेस का आकलन है कि कश्मीर और बदतर की तरफ है पर सरकार का ध्यान नहीं है।