अर्पित गुप्ता
पिछले करीब डेढ़ महीने में बिहार के मुजफ्फरपुर और आसपास के 12 और जिलों में एक्यूट
इंसेफ्लाइटिस सिंड्रोम (एईएस) 180 बच्चों की जान ले चुका है। फिर भी ऐसा लगता नहीं कि सरकार
तत्काल इस पर प्रभावी रोक लगाने की स्थिति में है। अकेले राज्य सरकार की बात नहीं है। भारत अपने
जीडीपी का 1.4 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करता है, जबकि नॉर्वे, जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका,
कनाडा जैसे देश जीडीपी का 9 प्रतिशत तक इस मद में खर्च करते हैं। पिछले दिनों नीति आयोग का
स्वास्थ्य सूचकांक आया जिसमें बिहार, उत्तर प्रदेश और ओडिशा सबसे निचले पायदान पर हैं। बिहार ऐसा
प्रदेश है जो मानव विकास सूचकांक और गरीबी दोनों ही मामलों में लगातार दशकों से निचले स्थान पर
बना हुआ है।
ध्यान रहे, यह कोई नया मामला नहीं है। पांच साल पहले 2014 में भी एईएस या चमकी बीमारी ने
400 बच्चों की जान ली थी। तब 100 बिस्तर वाला सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल बनाने का वादा किया
गया था जो अभी तक नहीं बना। चमकी बुखार को लेकर जागरूकता अभियान नहीं चलाया गया और न
ही वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) की मदद लेकर टीकाकरण की पर्याप्त व्यवस्था की गई। जैसा
कि हमें पता है बिहार के 80 प्रतिशत परिवार सार्वजनिक वितरण व्यवस्था यानी पीडीएस सिस्टम पर
आश्रित हैं और इस व्यवस्था की खामियों के कारण इन परिवारों को खाद्य पदार्थ मुहैया कराने में
दिक्कत आ रही है। सबसे बड़ी बात यह है कि बिहार सरकार ने 2014 से ही चीनी का वितरण रोक
दिया है। अब चीनी पीडीएस सिस्टम के तहत नहीं मिलता है। चमकी बुखार से मरने वाले ज्यादातर
बच्चों की जान ग्लूकोज की कमी से गई है। बिहार में पिछले 5 सालों में फल एवं सब्जी के उत्पादन में
भी भारी कमी आई है। फलस्वरूप पौष्टिक आहार बच्चों को नहीं मिल रहा है। बच्चों की मृत्यु के पीछे
गर्मी के साथ ही भूख और कुव्यवस्था का भी हाथ है।
बिहार की विशाल आबादी को देखते हुए यहां 800 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए, लेकिन मात्र
148 हैं। 622 रेफरल अस्पतालों की जरूरत है, लेकिन मात्र 70 हैं। 212 स्पेशलिस्ट सब डिवीजनल
अस्पताल होने चाहिए, लेकिन मात्र 44 हैं। राज्य को कम से कम 40 मेडिकल कॉलेजों की आवश्यकता
है, लेकिन मात्र 9 कॉलेज हैं।
डॉक्टरों की बात करें तो राज्य में बहाली के लिए 11393 पदों को मंजूरी प्राप्त है, पर मात्र 2700 डॉक्टर
पदस्थापित हैं। यहां 40 हजार आबादी पर 1 डॉक्टर का अनुपात है जो 11000 पर एक डॉक्टर के
राष्ट्रीय औसत के सामने कहीं नहीं ठहरता। हालांकि डब्ल्यूएचओ ने 1000 की जनसंख्या पर एक डॉक्टर
का स्टैंडर्ड तय किया है।
साफ है कि रातोंरात हालात में सुधार की उम्मीद नहीं की जा सकती। राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं को
बेहतर बनाने के लिए तीन पहलुओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है। पहला, स्वास्थ्य के इंफ्रास्ट्रक्चर की
कमी का सुधार कर उन्हें परिचालित करना। दूसरा, लोगों को स्वास्थ्य सेवाओं के उपयोग के प्रति
जागरूक बनाना जिससे उनके नजरिये और व्यवहार में बदलाव आए। तीसरा, पब्लिक-प्राइवेट मॉडल को
अपनाना ताकि सरकारी फंड की कमी इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में बाधा न बने। इसके साथ ही पंचायती
राज संस्थाओं को सशक्त बनाना भी जरूरी है। यह सुनिश्चित करना होगा कि पंचायती राज संस्थाओं के
पास पर्याप्त पैसा हो जिसे वे बिना किसी बाधा के खर्च कर सकें।
अगर इन मोर्चों पर उपयुक्त ढंग से प्रयास किए जाएं तो बिहार में स्वास्थ्य सेवाएं सुदृढ़ होंगी। यह
रास्ता लंबा और समयसाध्य लग सकता है, लेकिन यह समझना होगा कि बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं की
जो स्थिति है उसमें समस्याओं के हल का कोई शॉर्टकट नहीं है। ये कदम मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा देने
के साथ ही निवेश और नौकरियों के लिए भी नए द्वार खोलेंगे। यह आवश्यक है कि बिहार सरकार
अपेक्षित स्वास्थ्य सेवाओं के लिए वित्त, योजना और वितरण की जरूरी कार्यवाही करे।