-सनत कुमार जैन-
केंद्र सरकार ने दिल्ली के लिए एक नया अध्यादेश जारी किया है। दिल्ली सरकार में ट्रांसफर, पोस्टिंग और विजिलेंस के काम के लिए नेशनल कैपिटल सिविल सर्विसेज अथॉरिटी का गठन किया गया है। यह प्राधिकरण अब दिल्ली सरकार में ट्रांसफर, पोस्टिंग से संबंधित फैसले करेगी। जो नया प्राधिकरण बना है। उसमें जनता द्वारा निर्वाचित मुख्यमंत्री का कोई विशेषाधिकार नहीं होगा। मुख्यमंत्री दिल्ली सरकार के मुख्य सचिव और गृह सचिव के साथ बहुमत के आधार पर निर्णय लेंगे। इसके बाद भी अंतिम फैसला उपराज्यपाल का माना जाएगा। यह अध्यादेश संघीय व्यवस्था में निर्वाचित सरकारों के अधिकारों को तो सीमित करता है। संविधान के अनुरूप यह अध्यादेश नहीं है। जिसके कारण इस अध्यादेश को लेकर तीव्र प्रतिक्रिया सभी और देखने को मिल रही है।
पिछले 8 वर्षों से दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर जो विवाद पैदा हुआ था। उस विवाद में दिल्ली हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने समय-समय पर सुनवाई कर फैसले दिए। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने सारी स्थितियों पर सुनवाई करने के बाद बहुमत से निर्णय दिया था। संविधान के अनुसार चुनी हुई निर्वाचित सरकार ही सर्वोपरि है। उपराज्यपाल को सरकार की सलाह पर काम करने का निर्णय सुप्रीमकोर्ट ने दिया।सुप्रीम कोर्ट ने बहुत व्यथित तरीके से राज्यपाल की भूमिका पर चर्चा की थी। संविधान पीठ के सभी सदस्यों ने संघीय व्यवस्था में, निर्वाचित सरकारों के अधिकारों के पक्ष में अपना निर्णय दिया। यह अकेले दिल्ली की बात नहीं है। पिछले 8 वर्षों में कई राज्यों में राज्यपालों द्वारा निर्वाचित सरकार की सलाह को अनदेखा करते हुए राज्यपाल ने राज्य सरकारों को अपने इशारों पर नियंत्रित करने की भूमिका पर सुप्रीमकोर्ट ने सख्त आपत्ति जताई है। इस पूरे मामले में, सुप्रीम कोर्ट का दिल्ली सरकार के मामले में दिया गया, फैसला एक आदर्श फैसला था।
महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में भगतसिंह कोशियारी की भूमिका को लेकर भी सुप्रीम कोर्ट ने जो टिप्पणी की है। वह केंद्र सरकार एवं राज्यपालों तथा उप राज्यपालों की सीमा रेखा को तय करने वाली थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश होने के बाद जिस तरह केंद्र सरकार द्वारा अध्यादेश जारी कर, निर्वाचित मुख्यमंत्री को ना केवल मुख्य सचिव और गृह सचिव के बराबर लाकर खड़ा कर दिया है। वरन उसके ऊपर उपराज्यपाल को बिठा दिया है। भारत की संघीय व्यवस्था के लिए यह सबसे खराब स्थिति है। पिछले कुछ वर्षों में केंद्र सरकार जिस तरीके के टैक्स एवं शुल्क लगा रही है। उसका हिस्सा राज्यों को नहीं मिलता है। उपकर और विशेष शुल्क के रूप में केंद्र सरकार ने लाखों-करोड़ों रुपए प्रति वर्ष राजस्व एकत्रित किया है। लेकिन इसका हिस्सा राज्यों को नहीं दिया है। जिसके कारण राज्यों की आर्थिक व्यवस्था दयनीय स्थिति में पहुंच गई है।
राज्यपालों की भूमिका को लेकर भी गैर भाजपाई सरकारों और केंद्र सरकार के बीच में लगातार विवाद की स्थिति देखने को मिल रही है। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ के फैसले को जिस तरह से अध्यादेश के माध्यम से निष्फल करने की कोशिश की गई है। वह भी चिंता पैदा करने वाली स्थिति है। ऐसी स्थिति में अब न्यायपालिका के प्रति वह विश्वास भी नहीं होगा, जो अभी सभी वर्गों में न्यायपालिका को लेकर होता था। वर्तमान अध्यादेश से यही संदेश जा रहा है। केंद्र सरकार ने अपने आपको सुप्रीम मानते हुए न्यायपालिका को शायद अपने अधीन मान लिया है। सरकार ने अध्यादेश के माध्यम से कानून बना दिया है। सरकार के बनाये कानून का पालन करना, सुप्रीम कोर्ट की जिम्मेदारी है। संविधान के मौलिक अधिकार एवं संवैधानिक संस्थाओं के अधिकारों का अब कोई लेना देना नहीं रहा। संवैधानिक जानकारों का कहना है, कि जब केंद्र सरकार को दिल्ली सरकार को संघीय एवं निर्वाचित सरकार के रूप में अधिकार नहीं देना चाहती है। ऐसी स्थिति में दिल्ली विधानसभा को भंग करके केंद्र के अधीन लाना चाहिए, यह जरूर संविधान सम्मत होगा।