भारत की केन्द्रीय सत्ता से कांग्रेस के बेदखल हो जाने और देश भर में भाजपा के बढने व कांग्रेस के घटने का दौर शुरु हो जाने के बाद यहां के बौद्धिक समाज का एक खास महकमा नित नये-नये करतबें दिखाने में लगा है। गीने-चुने सम्मानित बुद्धिजीवियों द्वारा समय-समय पर ऐसी हरकतें की जाने लगीं हैं, जो उनकी धूर्त्त मानसिकता और पक्षपातपूर्ण बौद्धिकता की सीमायें लांघ कर आम लोगों के मन-मानस को आतंकित भ्रमित करने और उन्हें एक गलत दिशा की ओर धकेलने का यत्न करती हुई दीख रही हैं। भारत सरकार के पद्मश्री व पद्मभूषण अदि विविध सम्मानसूचक पदवियों से सम्मानित व्यक्तियों में से कुछ के द्वारा पिछले दिनों रह-रह कर देश में ‘असहिष्णुता बढ जाने’ व ‘माहौल खराब हो जाने’ का हवाला देते हुए कभी सरकारी पुरस्कार-सम्मान लौटाने का वितण्डा खडा कर देना, तो कभी ‘डर लगने’ का इजहार करने लगना ऐसे ही कौतूकपूर्ण प्रसंग हैं। किन्तु सूक्ष्मता से अगर आप देखें तो पाएंगे कि यह सब तो वास्तव में एक प्रकार का आतंक है, बौद्धिक आतंक।
हमारे देश में आतंक दो प्रकार के हैं- एक प्रत्यक्ष स्थूल शारीरिक बलजनित खूनी-हिंसक तो दूसरा परोक्ष सूक्ष्म मानसिक बुद्धि-जनित सफेद अहिंसक। लेकिन ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक समर्थक व संरक्षक हैं। बुद्धि-चातुर्य से सच को झूठ, झूठ को सच, सही को गलत, गलत को सही और वास्तविकता को मिथ्या व मिथ्या को वास्तविकता घोषित-प्रचारित कर स्वयं की मान्यताओं को स्थापित करने के बौद्धिक व्यायाम से लोगों को भ्रमित-प्रभावित-पीडित करना दूसरे प्रकार का आतंक ही है। क्योंकि, इससे एक ओर जहां खूनी आतंक को वैचारिक अवलम्बन व समर्थन मिलता है, वहीं दूसरी ओर समाज के निर्दोष-निरीह लोगों को मानसिक पीडा होती है, उनकी मान्यताएं-धारणायें कुण्ठित होती हैं और वे गलत दिशा में जा कर गलत निर्णय ले लेने के दुष्परिणामों का खामियाजा भुगतते हैं। यह बौद्धिक आतंक चूंकि एकदम ‘सफेद झूठ’ पर आधारित होता है तथा इसे अंजाम देने के लिए बिल्कुल साफ-सुथरे साधनों यथा- साहित्य फिल्म संगीत नाटक भाषण-लेखन आदि का इस्तेमाल किया जाता है और ऐसा करने वाले बौद्धिक बहादुरों की छवि प्रचारित रुप में धब्बा-रहित एकदम साफ-सुथरी सम्मानित व प्रतिष्ठित होती है, इस कारण मैंने इसे ‘सफेद आतंक’ नाम दे रखा है। जाहिर है, ऐसा आतंक बरपाने वाले को ‘सफेद आतंकी’ ही कहा जा सकता है। ये सफेद आतंकी ज्यादा खुंखार और ज्यादा खतरनाक हैं, क्योंकि इन्हीं की प्रेरणा-विचारणा से खुनी आतंकी अपना आतंक बरपाते हैं। ये ‘सफेद आतंकी’ जो हैं, सो मीडिया-प्रतिष्ठानों व शिक्षण-संस्थानों-विश्वविद्यालयों से ले कर राज्य की कार्यपालिका, न्यायपालिका व व्यवस्थापिका सभाओं तक ही नहीं, बल्कि सेवा-प्रेम-शांति-विकास की मायावी गंगा बहाने वाली स्वयंसेवी संस्थाओं से ले कर कला-साहित्य-संस्कृति के विविध मंचों व मायानगरी की मनमोहक रंगशालाओं तक में घुसे हुए हैं। किन्तु ऐसे साफ-सफेद पोशाक में कि जल्दी पकड में ही नहीं आते। इनके आकार-प्रकार-विस्तार का पूरा व्योरा सन 2013 में प्रकाशित व डॉ. सुब्रह्मणियम स्वमी के हाथों लोकार्पित मेरी पुस्तक- “सफेद आतंक ; ह्यूम से माइनों तक” में दर्ज है।
तो यह ‘सफेद आतंक’ जो है, सो अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन द्वारा भारतीय राष्ट्रीयता को कुंद करने के लिए कायम की गई मैकाले शिक्षा-पद्धति की कोख से निकले हुए ‘अति शिक्षित अत्याधुनिक बुद्धिबाजों’ की ‘वामपन्थी फौज’ के ‘अभारतीय चिन्तन’ की ऊपज है, जिसे नेहरु-कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकारों से पर्याप्त पोषण मिलता रहा है। यह आतंक वैसे तो उस अभारतीय शिक्षा-पद्धति के साथ-साथ ही फल-फुल रहा है, किन्तु सन 1947 के बाद से इसकी फसल ‘अमरबेल के छत्ते’ की तरह ऐसे लहलहा उठी कि उसके नीचे बैठ कर इसे फैलाने वाले सफेद-आतंकियों ने देश-विभाजन एवं उस विभाजन-जनित हिंसक पलायन के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व हिन्दू महासभा को जबरिया जिम्मेवार ठहरा दिया। फिर गांधीजी की हत्या के आरोपी गोडसे के पाकिस्तान-विरोध को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से सम्बद्ध होने का कारण बताते हुए इसी आधार पर संघ को बलात ही कठघरे में खडा कर दिया। इतना ही नहीं, इन बुद्धि-बहादुरों ने देश में यत्र-तत्र जहां कहीं भी कोई दंगा-फसाद हो, उसके लिए बिना किसी तर्क व सत्य के संघ-परिवार को जिम्मेवार ठहराने तथा मुस्लिमों-ईसाइयों की तमाम धर्मान्तरणकारी-हिंसाजनित-राष्ट्रघाती गतिविधियों को भी संरक्षण देते हुए उनका सर्वतोभावेन अनुचित-अनावश्यक तुष्टिकरण करने, हिन्दू-अस्मिताओं-हितों-अधिकारों का हनन करने और हिन्दूत्व में ही समाहित भारत की संस्कृति व राष्ट्रीयता को धर्मनिरपेक्षता के नाम पर पद-दलित करने हेतु इतिहास व साहित्य को भी प्रदूषित करने का अभियान चला रखा है।
कश्मीर में इस्लामी जिहादियों द्वारा वहां के लाखों हिन्दुओं को लूट-मारकर रातों-रात भगा दिए जाने की भयावह त्रासदी को मौन समर्थन देता हुआ यह अभियान भाजपा-शासित गुजरात के गोधरा में मुस्लिम आतताइयों के हाथों ट्रेन जला कर सैकडों निर्दोष हिन्दू-यात्रियों को योजनापूर्वक मार डालने वाली वीभत्स विभीषिका को ‘महज एक दुर्घटना’, किन्तु उसी मामले की हिन्दू-प्रतिक्रिया को ‘शासन-प्रायोजित हिंसा-दंगा’ करार देने से ले कर नरेन्द्र मोदी व भाजपा को दंगाई सिद्ध करने व समस्त संघ-परिवार के विरूद्ध देश-दुनिया भर में दुष्प्रचारित-घृणा फैलाने और उसके बाद कतिपय मुस्लिम-जिहादी आतंकी घटनाओं में हिन्दू-युवकों-साधुओं-साध्वियों को जबरिया आरोपित कर ‘भगवा आतंक’ नामक प्रायोजित ‘डर’ कायम करते हुए वस्तु-स्थिति को उल्टे अर्थ में प्रस्तुत करने की हद से भी आगे जा कर यूपीए-02 के शासन-काल में समस्त बहुसंख्यक-समाज को दंगाई मान उसे अल्पसंख्यकों के अधीन रहने हेतु विवश कर देने वाला ‘काला विधेयक’ (प्रस्तावित-‘साम्प्र्दायिक व लक्षित हिंसारोधी विधेयक’ जो सत्ता-परिवर्तन की वजह से पारित नहीं हो सका) लाने के लोमहर्षक दुस्साहस तक पहुंच गया। ऐसा बौद्धिक आतंक बरपाने में मायानगरी के कतिपय नचनियां-बजनियां कलाकार (जिन्हें ‘कालाकार’ कहना ज्यादा उचित है) भी सहभागी बने रहे, जो कला की आजादी व आजादी की अभिव्यक्ति के नाम पर हिन्दू-आस्थाओं व देवी-देवताओं का मखौल उडाते रहे और गोमांस भक्षण को जायज ठहराते रहे, तब भी यह सहिष्णु समाज उन्हें सिर-आंखों पर उठाये रखा। ऐसे उल-जुलूल कामों के लिए इन्हें पद्मश्री व पद्मभूषण से पुरस्कृत-सम्मानित भी किया जाता रहा, उस कांग्रेसी सरकार के द्वारा, जिसके नेताओं ने सत्ता-सुख भोगने मात्र के लिए देश पर ‘इमरजेन्सी’ थोप कर नागरिकों के सारे मौलिक अधिकार छीन ऐसे-ऐसे कहर बरपाये कि उनकी स्मृतियों से ही लोगों को आज भी डर लगने लगता है। लेकिन ऐसे तमाम हालातों में जब आम आदमी आपदग्रस्त होता रहा, तब उन सम्मानितों में से किसी को कभी थोड़ा भी कुछ असहज-असहिष्णु ‘डर’ महसूस नहीं हुआ, जिन्हें अब मोदी-भाजपा के सत्तासीन होने के बाद से देश का माहौल बिगडा हुआ डरावना प्रतीत हो रहा है। तब ये तमाम लोग लोकतन्त्र के हत्यारों एवं उपरोक्त कश्मीरी आतंकियों तथा गोधरा-काण्ड के जिहादियों की काली-खुनी करतूतों को सफेद चमक देने में लगे हुए थे। इतना ही नहीं, केन्द्रीय सत्ता से कांग्रेस के बेदखल हो जाने पर देश में असहिष्णुता की मात्रा को माप-तौल कर इसे बढा हुआ बताने वाले ये बुद्धि-बहादुर लोग तब के ‘सहिष्णु दिनों’ में खुनी आतंकियों की अदालती सजा को राष्ट्रपति से माफ कराने के बावत हस्ताक्षर अभियान चला कर जनता को सुख-शान्ति व निर्भयता का थोथा अहसास कराते रहे थे।
भारत के गौरवशाली इतिहास में अभारतीय कूडा-कचडा ठूंसते रहने वाली तथाकथित इतिहासकार-रोमिला थापर, तथा “काशी से नरेन्द्र मोदी चुनाव जीतेंगे तो काशी हार जाएगी” ऐसा बयान देने वाले दुर्दान्त साहित्यकार-काशीनाथ सिंह और “मोदी प्रधानमंत्री बनेंगे तो देश छोड कर विदेश चला जाउंगा” ऐसी शपथ से पीछे हट कर अब तक देश में ही मुंह छिपाये फिर रहे-कन्नड लेखक आनन्दमूर्ति एवं पुरस्कार वापसी खेल के दंगलबाज अशोक बाजपेयी, नयनतारा सहगल, मुनव्वर राणा व उदयप्रकाश आदि असहिष्णुता-विशेषज्ञों से युक्त इस ‘कालाकार-गिरोह’ के किसी नशिरुद्दीन शाह को भी देश के माहौल से अब डर लगने लगा है, तो इसका मतलब कि कला के नाम पर ‘काला-कर्म’ करते रहने वाले सम्मानितों का ‘सफेद-आतंक’ अभी भी जारी है। बीते चार वर्षों में एक भी आतंकी विस्फोट व साम्प्रदायिक दंगा नहीं होने तथा जिहादियों के हिंसक मंसुबों पर पानी फिरने लगने और देश की सीमा-सुरक्षा चौकस हो जाने एवं घोटालों के दिन लद जाने से आम जनता जब सुकून महसूस कर रही है, तब ऐसे में यह सहज ही समझा जा सकता है कि फिल्मी दुनिया के इस मायावी शख्स का ‘डर’ वास्तविक नहीं, प्रायोजित है, जिसका उद्देश्य मोदी-भाजपा के विरुद्ध जनता को बरगलाना है।