विनय गुप्ता
हिंदी के पिछड़ने के कई कारण हैं। बिंदुवार करके बात करें तो बहस बहुत लंबी हो जाएगी। लेकिन एकाध
मुख्य कारकों पर फोकस कर सकते हैं। दरअसल, कठिन परिस्थितियों और सामाजिक ताने-बाने के
वातावरण से प्रभाव ग्रहणकर परिर्वतन को न स्वीकार करने वाली भाषा अक्सर अक्षम और अव्यवहार्य
होकर मृत बन जाती है। हिंदी के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। हिंदी भाषा की मौजूदा दुर्दशा का
सबसे बड़ा कारण हिंदी समाज है। उसका पाखंड है, उसका दोगलापन और उसका उनींदापन है। यह सच
है कि किसी संस्कृति की उन्नति उसके समाज की तरक्की का आईना होती है। मगर इस मायने में हिंदी
समाज का बड़ा विरोधाभाषी है। अब हिंदी समाज अगर देश के पिछड़े समाजों का बड़ा हिस्सा निर्मित
करता है तो यह भी बिल्कुल आंकड़ों की हद तक सही है कि देश के समद्व तबके का भी बड़ा हिस्सा
हिंदी समाज ही है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि आज यह भाषा समाज की उपेक्षा का दंश
झेल रही है। धनाढ्य और विकसित वर्ग की आबादी ने जब से हिंदी भाषा को नकारा है और अंग्रेजी को
संपर्क भाषा के तौर पर अपनाया है? कमोबेश, तभी से हिंदी के सामने मुस्किलें खड़ी हो गई हैं।
वैश्वीकरण और उदारीकरण के मौजूदा दौर में हिंदी तेजी से पिछड़ रही है। आज हिंदी दिवस है, कई
जगहों पर कार्यक्रम आयोजित होंगे। मंचासीन लोग गला फाड़-फाड़ कर हिंदी की रहनुमाई करेंगे, और
हिंदी की रक्षा के लिए छाती पीटेंगे। लेकिन असल सच्चाई देखें तो इन्हीं लोगों के बच्चे हिंदी के जगह
अंग्रेजी स्कूलों में पढ़ते हैं। ऐसे लोगों ने ही हिंदी का मजाक बना डाला है। हिंदी की दुर्दशा का नतीजा
हमारे सामने है। हिंदी की लाज अगर किसी ने बचा रखी है तो वह है ग्रामीण आबादी। क्योंकि वहां आज
भी इस भाषा को ही पूजते, मानते और बोलते हैं। वह आज भी हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओं को ज्यादा
तवज्जों नहीं देते? उन्हीं की देन है कि हिंदी अपने दम पर शुरू से आजतक अपनी जगह यथावत है।
इसमें धनाढ्य लोगों का रत्ती भर सहयोग नहीं है। इस बात को कोई नकार नहीं सकता, कि शताब्दियों से
अखिल भारतीय स्तर पर संास्कृतिक और भावनाात्मक एकता को सुद्वढ़ सिर्फ हिंदी ने अपने व्यापक
प्रभार से ही किया है। समूचे जगत में हिंदी ही एक ऐसी मात्र भाषा है जो बोलने में मीठी और समझने
में सरल मानी जाती है।
तुलनात्मक रूप से देंखे तो गोरे लोग हिंदी को बोलने में गर्व समझते हैं। पर, वहीं कुछ हिंदुस्तानी हिंदी
के जगह अंग्रेजी बोलने में अपनी शान समझते हैं। उसी का नतीजा है कि हमारे यहां किसी भी निजी या
सरकारी आॅफिसों के स्वागत कक्ष में बैठने वाले लोगों को अंगे्रजी आनी चाहिए। स्वागत कक्ष के लिए
हिंदी बोलने वालों को इसलिए नहीं रखा जाता, कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती। जबकि आम लोगों के लिए
स्वागत कक्ष ही संपर्क का सबसे बड़ा साधन होता है। बात 2014 की है जब केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार
का उदय हुआ तो उसके तुरंत बाद ही उनकी तरफ से सभी मंत्रालयों में बोलचाल व पठन-पाठन में हिंदी
के प्रयोग का फरमान जारी किया गया। लेकिन कुछ समय बाद उनकी मुहिम भी फीकी पड़ गई। आदतन
लोग फिर अंग्रेजी में ही गौता खाने लगे। पिछले एक दशक की बात करें तो हिंदी को बचाने और उसके
प्रसार के लिए कई तरह के वायदे किए गए। पर सच्चाई यह है कि हिंदी की दिन-पे-दिन दुर्गती हो रही
है। सच कहें तो हिंदी अब सिर्फ कामगारों तक ही सिमट गई है।
आजादी से अब तक तकरीबन सभी पूर्ववर्ती हुकूमतों ने हिंदी के साथ अन्याय किया है। सरकारों ने पहले
हिंदी को राष्टृभाषा माना, फिर राजभाषा का दर्जा दिया और अब इसे संपर्क भाषा भी नहीं रहने दिया है।
हिंदी को लेकर कुछ गलत भ्रांतियां भी फैल गई हैं। हिंदी की वकालत करने वाले मानने लगे हैं कि शु़द्व
हिंदी बोलने वालों को देहाती व गंवार कहा जाता है। बीपीओ व बड़ी-बड़ी कंपनियों में हिंदी जुबानी लोगों
के लिए नौकरी नहीं होती। इसी बदलाव के चलते मौजूदा वक्त में देश का हर दूसरा आदमी अपने बच्चों
को अंगे्रजी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाने को मजबूर हो गया है। अगर ऐसा ही रहा, तो वह दिन दूर नहीं,
जब दूसरी भाषाओं की तरह हिंदी भाषा को बचाने के लिए भी एक जनांदोलन की जरूरत पड़ेगी। सरकारें
माने या न माने लेकिन हिंदी के समक्ष उसके वर्चस्व को बचाने की सबसे बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है।
इस सच्चाई को हम कितना भी क्यों न दबाएं, लेकिन यह पूर्ण सच्चाई है कि हिंदी बोलने वालों की
गिनती अब पिछड़ेपन में ही होती है। अंग्रेजी भाषा के चलन के चलते आज हिंदुस्तान भर में बोली जाने
वाली हजारों राज्य भाषाओं का अंत हो गया है। हर अभिभावक अपने बच्चों को हिंदी के जगह अंग्रेजी
सीखने की सलाह देता है। इसलिए वह अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में दाखिला न दिलाकर, अंग्रेजी
पढ़ाने वाले स्कूलों में पढ़ा रहे हैं। दरअसल इनमें उनका भी दोष नहीं है क्योंकि अब ठेठ हिंदी बोलने
वालों को रोजगार भी आसानी से नहीं मिलता है। शु़द्व हिंदी बोलने वाले अंतिम छोर पर खड़े हो रहे हैं।
हिंदी का ऐसा हाल तब है जब पूरे हिंदुस्तान में छोटे-बड़े दैनिक, सप्ताहिक और अन्य समयाविधि वाले
करीब पांच हजार से भी ज्यादा अखबार प्रकाशित होते हों। 1500 के करीब पत्रिकाएं हैं, 132 से ज्यादा
हिंदी चैनल हैं, के बावजूद भी हिंदी लगातार पिछड़ रही है। उसका सबसे बड़ा कारण है कि सरकारें इस
भाषा के प्रति ज्यादा गंभीर नहीं रहीं। इसलिए हिंदी भाषा आज खुद अपनी नजरों में दरिद्र भाषा बन गई
है। लोग इस भाषा को गुलामी की भाषा की संज्ञा करार देते हैं। हिंदी महज अब कामगाारों की भाषा तक
ही सिमट कर रह गई। सवाल उठता है आखिर क्यों इसे नौकरशाह, शासकों, संपन्न लोागों की भाषा नहीं
माना जा रहा है। मुल्क की आजादी के सत्तर साल के भीतर जितनी दुर्दशा इस जुबान की हुई है उतनी
किसी की भी नहीं हुई। अगर हालात ऐसे ही रहे तो हिंदी को बचाने के लिए भी हमें एक जनआंदोलन
करना पडे़गा। उसके लिए किसी एक को बहुत बड़ा किरदार निभाना पडे़गा। मौजूदा वक्त में देश के
करोड़ों छात्र जो आईआईटी, तकनीकी, बिजनेस और मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं, वे हिंदी भाषा से
लगभग दूर हो गए हैं। उनके पाठ्यक्रमों से हिंदी पुरी तरह से नदारद है। जबकि, विदेशों में कई कालेजों
में अब हिंदी की पढ़ाई कराई जाती है।