-राकेश कुमार वर्मा-
समलैंगिक समानता के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए विवाह में कानूनी बदलाव संबंधी याचिका पर केन्द्र सरकार ने हाल ही में 56 पृष्ठ का हलफनामा सुप्रीम कोर्ट को सौंप दिया है। केन्द्र सरकार ने समलैंगिक विवाह को पारिवारिक व्यवस्था के प्रतिकूल बताते हुए अपने हलफनामे में कहा है कि भारत में विवाह को तभी मान्यता दी जा सकती है जब बच्चा पैदा करने में सक्षम जैविक पुरुष और जैविक महिला के बीच विवाह हुआ हो। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या विवाह पूर्व पुरुष या महिला के प्रजनन क्षमता का चिकित्सा निरीक्षण अनिवार्य है? समस्त चराचर प्रकृति में शिवत्व(जैविक अर्द्धनारीश्वर) देखने वाली दक्षिणपंथी सरकार जीवंत और संवेदनशील मुद्दे पर कठोर कैसे हो सकती है? बहरहाल शीर्ष न्यायालय की 5 सदस्यीय संविधान पीठ इस पर 18 अप्रैल को अगली सुनवाई करेगी।
विषय पर विमर्श से पूर्व समलैंगिकों की मौजूदा श्रेणियों से परिचित होना समीचीन होगा-
• लेस्बियन (महिला समलिंगी) – एक महिला का दुसरे महिला के प्रति आकर्षण
• गे – एक पुरुष का दुसरे पुरुष के प्रति आकर्षण
• बाईसेक्सुअल – समान तथा विपरीत दोनों लिंगो के प्रति आकर्षण
• ट्रांससेक्सुअल – प्राकृतिक लिंग के विपरीत लिंग में परिवर्तन
• क्यूर – ये अपने लैंगिक आकर्षण के प्रति विश्वस्त नहीं होते।
इन्ही श्रेणियों को सम्मिलित रूप से एल.जी.बी.टी.क्यू. कहा जाता है जो समलैंगिक श्रेणी का प्रतिनिधत्व करते हैं।
इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने 6 सितंबर 2018 को समलैंगिक संबंध को अपराध मानने वाली धारा 377 को खत्म कर दिया गया है। धारा 377 को मनमाना और अतार्किक बताते हुए शीर्ष न्यायालय ने इसे असंवैधानिक करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के अनुसार वयस्क व परिपक्व लोगों द्वारा अपनी इच्छा से बनाया गया समलैंगिक संबंध अपराध नहीं माना जाएगा।
कांग्रेस, जिसने 2018 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया था, वह समलैंगिक विवाह को लेकर सक्रिय थी। पार्टी के विचार के बारे में पूछे जाने पर एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “यह शायद ही अब सोचने का मुद्दा है।” समलैंगिक विवाह पर लोकसभा सांसद शशि थरूर और मनीष तिवारी व्यक्तिगत रूप से समलैंगिक विवाह पर अपनी सहमति व्यक्त करते हैं । उधर सीपीआई (एम) की वरिष्ठ नेता बृंदा करात ने मीडिया को बताया, ‘हम विवाह के रूप में अपने रिश्ते की कानूनी मान्यता प्राप्त करने के लिए समलैंगिक जोड़े के अधिकारों का समर्थन करते हैं। कोर्ट को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिए, क्योंकि वर्तमान सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह इस तरह के अधिकार का समर्थन नहीं करती है।’
वहीं कुछ नेताओं ने निजी तौर पर तर्क दिया कि समान-सेक्स विवाह एक विदेशी कॉन्सेप्ट था और इस तरह के मुद्दे उनकी पार्टियों के एजेंडे में शामिल नहीं थे। समलैंगिक विवाह और मौलिक अधिकारों को लेकर उच्चतम न्यायालय के अधिवक्ता विराग गुप्ता कहते हैं, “दरअसल, मौलिक अधिकार भी उन्ही के लिए बनता है जिनके लिए देश में क़ानून हो। जिनके लिए क़ानून ही नहीं है उसके लिए मौलिक अधिकार कैसे बन जाएगा”। “मौलिक अधिकार के तहत अगर वो(समलैंगिक) अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनते भी हैं तो भी वो शादी कैसे करेंगे क्योंकि उनकी शादी के लिए कोई क़ानून ही नहीं है। शादी की आज़ादी है लेकिन अगर आप क़ानूनी शादी करना चाहते हैं तो क़ानून के अनुसार ही करनी पड़ेगी। ऐसे में मौलिक अधिकार का उल्लंघन कैसे होगा? ऐसे में विवाह संबंधी क़ानूनों में बदलाव करके इस अधिकार को पाया जा सकता है।” वस्तुत: यही याचिकाकर्ताओं की मांग है, जिससे समलैंगिकों की समानता के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए विवाह क़ानूनों में बदलाव किया जा सके।
विराग कहते हैं कि विवाह व्यवस्था अलग-अलग क़ानूनों से मिलकर बनी है, अगर इसमें बदलाव होता है तो वो बहुत व्यापक और क्रांतिकारी बदलाव होगें। “भले ही थर्ड जेंडर को क़ानूनी मान्यता मिली है, पर मान्यता और अधिकार में फर्क है। अधिकार मिलने के लिए ज़रूरी है कि उन परंपरागत क़ानूनों में बदलाव किया जाए जिनमें विवाह को स्त्री और पुरुष के बीच संबंध माना गया है। साथ ही इनसे जुड़े अन्य क़ानूनों जैसे घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और मैरिटल रेप आदि में भी बदलाव करना होगा। लेकिन, इसमें कई सवाल और जटिलताएं सामने आती हैं। “जैसे अगर समललिंगी विवाह होगा तो गुजारा भत्ते का निर्धारण कैसे होगा? घरेलू हिंसा में अगर समान लिंग के लोग हैं तो इसमें पीड़ित और अभियुक्त पक्ष कौन होगा? ससुराल-मायका, पितृधन और मातृधन पर नये सिरे से विचार करना पड़ेगा। उसी तरह मैरिटल रेप के भी प्रावधान हैं जिसका परस्पर संबंध है, क्योंकि विवाह के क़ानून की जड़ में स्त्री-पुरुष के संबंधों को ही निर्धारित किया गया है। ”इस प्रकार समलैंगिक विवाह को लेकर एक पूरी क़ानूनी संरचना बदलनी पड़ेगी।
मगर सवाल यह भी है कि जब समाज खुद बदलती स्थितियों के मुताबिक अपने मूल्यों में बदलाव करता रहता है, तो कानूनों में लचीलापन लाने से क्यों परहेज होना चाहिए। दुनिया के करीब तीस देशों में समलैंगिक विवाह को मान्यता प्राप्त है, पर वहां भी लंबे संघर्ष के बाद ही समलैंगिकों को यह अधिकार मिल सका। वर्ष 2020 में समलैंगिक विवाह को मान्यता देने वाले देशों में कोस्टारिका का भी नाम जुड़ गया है। डीडब्ल्यूए की रिपोर्ट के अनुसार कोस्टारिका में समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिल जाने से अब दुनिया में कम से कम 29 देशों में समलैंगिक विवाह की अनुमति है।
समलैंगिक विवाह को मान्यता प्रदान करने का दूसरा संवैधानिक पहलू यह भी है कि जब हर व्यक्ति को अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने का मौलिक अधिकार प्राप्त है, तो फिर समलैंगिकों को इससे वंचित कैसे रखा जा सकता है। इसे लेकर समानाधिकार कार्यकर्ता हरीश अय्यर कहते हैं कि जिस तरह विवाह क़ानून में बदलाव अन्य क़ानूनों को प्रभावित करेगा उसी तरह विवाह का अधिकार नहीं मिलने से समलैंगिकों के कई और अधिकार भी प्रभावित हो रहे हैं। “विवाह को मान्यता नहीं मिलने से ये समलैंगिक विवाह से जुड़े अन्य अधिकारों से भी वंचित रह जाते है। जैसे उत्तराधिकार के अधिकार से वंचित हो जाते हैं। मेडिक्लेम, इंश्योरेंस और अन्य दस्तावेजों में भी अपने पार्टनर का नाम नहीं लिख सकते। जबकि मेरा जीवनसाथी कौन है इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए। समलैंगिक जोड़ा प्यार, समर्पण, इच्छा होने पर भी एक-दूसरे को परिवार नहीं बना सकता। “इसी तरह किडनी देने की अनुमति परिवार के सदस्य को होती है। ऐसे में समलैंगिक जोड़े में किसी एक को यदि किडनी की ज़रूरत है तो इच्छुक समलैंगिक किडनी देने की आकांक्षा से वंचित रह जाता है क्योंकि वह क़ानूनी तौर पर शादीशुदा नहीं हैं।” मगर सरकार इसे मौलिक अधिकार के क्षेत्र में नहीं मानती। सर्वोच्च न्यायालय ने दो समलैंगिकों को साथ रहने की कानूनी आजादी प्रदान कर दी। पर उन्हें विवाह की इजाजत देने को लेकर कई कानूनी अड़चनें हैं, जो दूसरे विवाहों के लिए बनाए गए हैं। मसलन, घरेलू हिंसा, संबंध विच्छेद के बाद गुजारा भत्ता, ससुराल-मायका, पितृ-मातृधन पर अधिकार जैसे मसले जटिल साबित होंगे।
मानवीय मूल्यों के संवरण में वैदिक सभ्यता से आधुनिक जीवनशैली के प्रति उदारता को लेकर वेद, उपनिषद, पुराण से निकलकर साहित्य सृजन की धारा निरंतर प्रवाहित है। महिषी नामक राक्षसी को भगवान विष्णु का वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु भगवान शिव और विष्णु की संतान से ही होगी। इस अभय से वह अत्याचारी हो गई। जिससे मुक्ति के लिए भगवान विष्णु ने सागर मंथन से प्राप्त अमृत परोसने के लिए जब मोहिनी रूप धारण किया तो भगवान शिव उन पर मोहित हो गए जिससे अयप्पा का जन्म हुआ। एक अन्य कथा में इल नामक राजा जब भूलवश उस अम्बिका वन में चले जाते हैं, जिसे शाप था कि जो भी पुरुष उस वन में आएगा, वह स्त्री हो जाएगा। जब राजा इल से इला बन गए तब बुध व उन पर मोहित हो गए। इल और बुध के संबंध से राजा पुरुरवा का जन्म हुआ यहीं से चंद्रवंश की शुरुआत हुई। देवीभागवत् पुराण के छठे स्कंध की एक कथा में बताया गया है कि देवऋषि नारद को अभिमानमुक्त करने के उद्देश्य से श्रीविष्णु ने उन्हें कन्नौज के सरोवर में डुबकी लगाने की याचना की। देवर्षि जब डुबकी लगाकर सरोवर से बाहर निकले तो वे रूपवती स्त्री में परिवर्तित हो चुके थे और वे अपने वास्तविक स्वरूप को भूल चुके थे। इसी दौरान तालध्वज नामक राजा मोहित होकर उनसे विवाह कर लिया। ऐसे में नारदजी कई संतानो की माता बनते हैं जो (संतान) एक युद्ध में मारे जाते हैं।
भारत में समलैंगिकता एक ऐसा मुद्दा है जो मानव सभ्यता के शुरूआती काल से ही अस्तित्व में रहा है। लेकिन आधुनिक काल में ऐसे लोगों को समाज में हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है। हाल ही में कुछ देशों में इन्हें कानूनी मान्यता दी है लेकिन उनके सामाजिक हालात में अपेक्षित सुधार नहीं हुआ। इस्लामिक धार्मिक ग्रन्थ कुरान के अनुसार समलैंगिकता एक अपराध है। महिलाओं में समलैंगिक संबंधो को लेकर इस्लामिक धार्मिक ग्रंथों में उतना जिक्र नहीं है लेकिन हदीस में इसका जिक्र कहीं-कहीं मिलता है। एक हदीस के अनुसार अगर कोई महिला समलैंगिक कृत्यों में लिप्त पाई जाती है तो उसको अवश्य सजा मिलनी चाहिए।
ईसाई धर्म के विभिन्न पंथों में समलैंगिकों को लेकर अलग- अलग मान्यताएं हैं। रोमन कैथोलिक चर्चों के अनुसार समलैंगिकता एक विकृत सोच है। समलैंगिक लोगों को पापी बताया गया है। हालांकि, रोमन कैथोलिक मान्यताओं के उलट ऑर्थोडॉक्स चर्च तो समलैंगिकों के स्वागत की बात करते हैं। अप्राकृतिक यौन संबंध को इन लोगों के लिए ऑक्सीजन के रूप में बताया गया है। अगर इन्हें एक दूसरे से अलग किया गया तो इनके मानसिक स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। प्रोटेस्टेंट चर्च भी समलैंगिकता को लेकर उदार रवैया अपनाते हैं और उनका विवाह धूम-धाम से करते हैं। बौद्ध धर्म में पांच उपदेशों को प्रमुख माना गया है तीसरे उपदेश में बताया गया है कि किसी भी व्यक्ति को यौन दुर्व्यवहार से बचना चाहिए। हीनयान पंथ मानने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने समलैंगिक यौन को दुर्व्यवहार के रूप में नहीं देखा है।
समलैंगिकों को लेकर हिन्दू धर्म में सौम्य आचरण है। ऋग्वेद में समलैंगिकता को अप्राकृतिक तो माना गया है लेकिन साथ ही ये भी बताया गया है कि अप्राकृतिक संबंध भी प्रकृति का एक हिस्सा है जिसे दुर्व्यवहार नहीं मनना चाहिए। ऋग्वेद में समलैंगिक पर विमर्श विकृति: एवम प्रकृति: शीर्षक से की गई है। प्राचीन भारतीय समाज सभी प्रकार की विविध संस्कृतियों, कलाओं और साहित्यों को अपने में समाहित किये हुये था। महादेव शिव का एक रूप अर्धनारीश्वर वाला है। मिथकीय आख्यान में विष्णु का मोहिनी रूप धारण कर शिव को रिझाना किसी भी भक्त को अप्राकृतिक अनाचार नहीं लगता है। कोणार्क, जगन्ननाथ पुरी और खुजराहो में समलैंगिक संबंधों को दर्शाती मूर्तियां प्रदर्शित करती हैं कि प्राचीन काल में सभी तरह के यौन झुकाव खुलेतौर पर मौजूद थे। लोग इतने सहिष्णु और खुले विचारों के थे कि समलैंगिक-प्रेम की मूर्तियों को स्वतंत्रता के साथ बनाकर न सिर्फ प्रदर्शित किया, बल्कि उन्हें मंदिरों का हिस्सा बनाया।
सर्वे भवन्तु सुखिन: ….की कामना के साथ जब हम ब्रम्हचर्य, सहजीवन, एकत्व जीवन सहित संभ्रान्त, सिने, अपराध जगत, दैनिक जीवन के अनेक प्रसंगों और आभासी यौनेच्छाओं जैसे अप्राकृतिक शमन पर अंकुश लगाने में तत्पर नहीं होते। वैसे भी अंतरसंजाल की आपत्तिजनक सामग्री की सहज पहुँच से उत्पन्न इन्द्रिय विसंगतियों के बावजूद वैवाहिक आयुसीमा की कानूनी बाधायें एक स्वस्थ समाज के निर्माण में बाधक हैं। इस ओर एक मनोवैज्ञानिक और कांउसलिंग की सदैव उपेक्षा की जाती रही है। वहीं विवाह के बदलते औचित्य, उसके खोते मूल्य, कर्तव्यहीनता, गैरजिम्मेदारी ने इसके अस्तित्व को बचाये रखने के लिए विवाह संस्थाओं को प्रेरित किया है। ऐसे में समलैंगिकों के प्रति उदारपूर्ण आचरण (लचीलेपन) की अपेक्षा वांछनीय है।