सत्य सदैव एक रूप में स्थित रहता है। वह किसी भी काल, किसी भी युग किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होता। वह प्रकाशमान तत्व सदैव एक समान बना रहता है।
यानी जो अपरिवर्तनशील है, वही सत्य है और वह अपरिवर्तनशील तत्व नित्य, शुद्ध परमात्मा है जो समस्त देहधारियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहता है। उसी परमात्मा ने सारे जगत को धारण कर रखा है और सारा जगत उसी के भीतर व्याप्त है। सभी मानव शरीरों के अंदर रहते हुए भी कोई परमात्मा को जान नहीं पाता। वह इसलिए कि उसी की सत्ता से सारे शरीर प्रकाशमान होते हैं। उसी चेतन सत्ता के कारण मन-बुद्धि, इंद्रियां क्रियाशील होती हैं। सभी शरीरधारियों में मानव देह ही मात्र साधन धाम कहलाता है।
ऐसा इसलिए, क्योंकि समस्त शरीरों में चाहे वह मनुष्य का हो या फिर किसी अन्य का, सभी में आहार, निद्रा, भय और मैथुन आदि क्रियाएं एक समान रूप से होती हैं, लेकिन मनुष्य को ईश्वर ने अतिरिक्त एक अन्य गुण भी प्रदान किया है, वह है विवेक। परमात्मा ने मनुष्य को विवेकशील प्राणी बनाया है। जो व्यक्ति अपने उसी विवेक का प्रयोग कर सार-असार का विभेदन करता हुआ विश्व रूप परमात्मा की शरण में जाता है, तो ईश्वर की कृपा रूपी प्रसाद को प्राप्त कर उस परम सत्य का साक्षात्कार कर लेता है। दूसरी ओर ईश्वर रचित माया (प्रकृति) चंचल, अनित्य व परिवर्तनशील है। इसमें नित्य एकरूपता नहीं रहती।
पंच महाभूतों-आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों का संश्लेषण मां के गर्भ में होता है। इन्हीं पांचों तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों में सतत परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से किशोर, जवान, फिर अधेड़ होते हुए वृद्ध हो जाता है। अंत में उसी शरीर का विलय पंच महाभूतों में हो जाता है। इसी प्रकार ऋतुओं में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहता है। गर्मी बरसात में, बरसात जाड़े में और जाड़ा पुनः गर्मी में परिवर्तित हो जाता है। बीज वृक्ष बनता है। वृक्ष में अनेक शाखाएं फूट जाती हैं। इसमें फूल आता है। फूल से फल निकलते हैं। अंत में उसी वृक्ष से फिर बीज बनता है। यही प्रकृति की निश्चित नियति है।
जो वस्तु पहले नहीं थी, बीच में दृष्टिगोचर प्रतीत होती है और अंत में फिर नहीं रहती, वही असत्य है और जो पहले भी थी अभी भी है और अंत में भी रहेगी, वही सत्य है।