अर्पित गुप्ता
अगर हम विकसित देश बनना चाहते हैं तो हमें असलियत को समझना होगा, सच को स्वीकार करना होगा और
प्रणालीगत दोषों को दूर करते हुए लोकतांत्रिक और संवैधानिक संस्थाओं को मजबूत बनाना होगा। इसकी शुरुआत
का एकमात्र तरीका यह है कि सत्ता में जनता की वापसी हो यानी जनता के काम जनता की इच्छा से हों, कानून
जनता की सहमति से बनें और शासन-प्रशासन के हर निर्णय में जनता की सक्रिय भागीदारी हो…
फिलहाल सब गोलमाल है। देश में लोकतंत्र है और भारतवर्ष विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, पर इस लोकतंत्र में
तंत्र ही तंत्र है और लोक सिरे से गायब है। मेरा बचपन और किशोरावस्था हरियाणा के जिस कस्बे में गुजरे, वहां
विकास का अजब नजारा होता था। एक विभाग सड़क पर दोबारा कार्पेटिंग कर देता था और उसके पंद्रह-बीस दिन
बाद दूसरा विभाग उस ताजी-ताजी पक्की बनी सड़क को खोद कर पाइप बिछाने लग जाता था। बारिश के दिनों में
गलियों और सड़कों पर जमा बदबू मारता पानी हालत खराब कर देता था। यह कहानी लगभग हर प्रदेश के हर
स्थान पर लागू होती है। बड़े-बड़े शहरों में भी कूड़े के ढेर, गंदे पानी से लबालब भरे सड़ांध मारते नाले और सड़कों
पर घूमते पशु मानो हमारी नियति बन गए हैं। जहां बाढ़ आती है, वहां हर दूसरे-तीसरे साल या कुछ साल बाद
बाढ़ आ जाती है और नौकरशाही और उनके राजनीतिक आकाओं के पास उसका कोई हल नहीं होता। हमारा सारा
सिस्टम ही इतना खराब है कि वर्तमान प्रणाली के चलते इससे बचने का कोई उपाय नजर नहीं आता। शुरू-शुरू में
जब चुनाव जीतने के लिए राजनीतिज्ञों ने बाहुबलियों का सहारा लिया तो बाहुबली उनके गुलाम सरीखे होते थे। फिर
जब बाहुबलियों की सहायता के बिना चुनाव जीतना असंभव हो गया तो बाहुबलियों को अक्ल आई और उन्होंने
राजनीतिज्ञों की जगह खुद चुनाव लड़ना शुरू कर दिया।
धीरे-धीरे बाहुबलियों की धाक ऐसी बनी कि अब हर राजनीतिक दल ‘जीत सकने वाले उम्मीदवारों’ की तलाश में
बाहुबलियों को टिकट देने पर विवश है। अब हमारे जनप्रतिनिधियों में 60 से 70 प्रतिशत तक ऐसे लोग होते हैं
जिनका रोजगार ही अपराध है, यानी वे ‘अपराध के व्यवसाय’ में होने के कारण राजनीति में हैं। दुखद सत्य यह है
कि ये अपराध कोई साधारण अपराध नहीं हैं, बल्कि ये हत्या, डकैती, अपहरण और बलात्कार जैसे खतरनाक
अपराध हैं जो विभिन्न न्यायालयों में फैसले के लिए लंबित हैं। अब चूंकि उन पर अंतिम फैसला अभी आना बाकी
है, जिसमें न जाने कितने साल लग जाएंगे, अतः कानूनन वे अपराधी नहीं हैं। एक आम उम्मीदवार उनके सामने
साधनहीन ही नहीं, बल्कि इतना दीन-हीन होता है कि उसकी कोई हस्ती ही नहीं होती। पार्टी की टिकट के कारण
इन अपराधी तत्त्वों की जीत के अवसर बढ़ जाते हैं। इन अपराधी तत्त्वों की जीत का दूसरा बड़ा कारण यह है कि
चूंकि हमारे यहां सिस्टम नहीं है, इसलिए अपने रोजमर्रा के साधारण कामों के लिए भी हम बिचौलियों पर निर्भर
हैं। उसके बावजूद कहीं कोई काम अटक जाए तो फिर ये बाहुबली हमारे काम आते हैं। बाहुबली राजनीतिज्ञों और
नौकरशाही के गठजोड़ ने भ्रष्टाचार को नई ऊंचाइयां दी हैं। यदि हम सचमुच इस समस्या से पार पाना चाहते हैं तो
हमें राजनीतिक दलों में आलाकमान की तानाशाही को समाप्त करना होगा। इसका तरीका यह है कि उम्मीदवारों को
किसी आलाकमान द्वारा टिकट मिलने के बजाय पार्टी कार्यकर्ताओं की प्राथमिकी यानी प्राइमरी द्वारा चुना जाए।
इससे धीरे-धीरे साफ-सुथरी छवि के काबिल लोगों का राजनीति में प्रवेश होगा। लोकतंत्र को समर्थ बनाने के लिए
दूसरा कदम यह होना चाहिए कि कोई भी बिल किसी भी सदन में पेश होने से पहले जनता में वितरित होना
चाहिए और उसकी धाराओं-उपधाराओं पर खुली बहस हो ताकि सदन में पेश होने से पहले ही उस बिल में आवश्यक
संशोधन हो चुके हों।
कानून बनाने की प्रक्रिया में जब जनता की भागीदारी होगी तो जनहित के कानून बनेंगे और भ्रष्टाचार मिटेगा।
भ्रष्टाचार मिटाकर देश में सुशासन की स्थापना के लिए यूं तो बहुत कुछ किया जाना बाकी है और यह कहना
मुश्किल है कि कोई राजनीतिक दल ऐसा साहस दिखाने की कोशिश भी कर पाएगा या नहीं, पर यदि शुरुआत
करनी है तो ये दो कदम अत्यावश्यक हैं। अमेजन पर उपलब्ध मेरी किताब ‘भारतीय लोकतंत्र : समस्याएं और
समाधान’ में इनके जिक्र के अलावा भी ऐसे कदमों की चर्चा है जिनसे लोकतंत्र सचमुच फलीभूत हो सकता है।
फिलहाल हम प्रणालीगत दोषों से जूझ रहे हैं जिसका अर्थ है कि लोकतंत्र में जो कमियां हैं, वे किसी एक व्यक्ति
का दोष नहीं हैं, बल्कि ये सिस्टम की कमियां हैं और इन्हें दूर किए बिना न भ्रष्टाचार मिट सकता है और न
सिस्टम सही हो सकता है।
हमारे देश में मंत्रालयों का जंगल है और उनमें आपसी तालमेल का सर्वथा अभाव है। इसलिए अक्सर विरोधाभासी
नीतियां बन जाती हैं जिसके कारण या तो नीतियां प्रभावहीन हो जाती हैं या खुद ही भ्रष्टाचार का कारण बन जाती
हैं। मुझे आज तक याद है कि जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे तो सरकार की तरफ से एक ऐसा बिल पेश किया
गया जो पहले से ही कानून था, यानी सरकार के सर्वोच्च नौकरशाहों को भी मालूम नहीं था कि देश में कौन सा
कानून लागू है और कौन सा नहीं। तब तत्कालीन विपक्षी नेता लालकृष्ण आडवाणी ने राजीव गांधी को लताड़
पिलाते हुए वस्तुस्थिति की जानकारी दी थी। मंत्रालयों का जंगल, उनमें तालमेल का अभाव और कानूनों का जंगल
यह सुनिश्चित करता है कि न्याय की प्रक्रिया सुस्त हो। परिणामस्वरूप भ्रष्टाचार बढ़ता है और बिचौलियों व
बाहुबलियों पर निर्भरता बढ़ती है। चुनाव पहले ही बहुत महंगे थे, लेकिन अब स्थिति इतनी गंभीर है कि कुछ
राज्यों में चुनाव आयोग द्वारा स्वीकृत खर्च के मुकाबले में गंभीर उम्मीदवार सौ गुना तक अधिक खर्च करते हैं
और यह सारा पैसा काला धन होता है जो आपराधिक तरीकों से इकट्ठा किया जाता है। यह हैरानी की बात है कि
जहां एक रुपए के खर्च का प्रावधान हो, वहां एक की जगह सौ रुपए खर्च हो रहे हों तो भी इतना बड़ा फर्क चुनाव
आयोग के नोटिस में न आए।
यह बताने का उद्देश्य सिर्फ इतना है कि हमारा चुनाव आयोग दरअसल खोखला है और अब तो उस पर सरकारी
दबाव इतना अधिक है कि चुनाव आयोग की विश्वसनीयता ही खत्म हो गई है। हमारे देश में न्याय प्रक्रिया सुस्त
तो थी ही, अब जजों पर सरकारी अंकुश बढ़ जाने से न्यायपालिका की विश्वसनीयता भी खतरे में है। संवैधानिक
और लोकतांत्रिक संस्थाओं की भूमिका घटती जाने के कारण अफरा-तफरी का माहौल है और बाहुबलियों की चांदी
है। यही कारण है कि पौनी सदी की आजादी के बावजूद हमारा देश विकसित देशों की जमात में शामिल होने के
बजाय आज भी सिर्फ एक विकासशील देश ही है। अगर हम विकसित देश बनना चाहते हैं तो हमें असलियत को
समझना होगा, सच को स्वीकार करना होगा और प्रणालीगत दोषों को दूर करते हुए लोकतांत्रिक और संवैधानिक
संस्थाओं को मजबूत बनाना होगा। इसकी शुरुआत का एकमात्र तरीका यह है कि सत्ता में जनता की वापसी हो
यानी जनता के काम जनता की इच्छा से हों, कानून जनता की सहमति से बनें और शासन-प्रशासन के हर निर्णय
में जनता की सक्रिय भागीदारी हो। लोकतंत्र की मजबूती के लिए राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र लाना होगा
और उसके लिए आलाकमान की तानाशाही खत्म करके कार्यकर्ताओं की प्राथमिकी को शक्तिमान बनाना आवश्यक
है।