सत्ता के निशाने पर सिविल सोसाइटी

asiakhabar.com | June 26, 2020 | 5:39 pm IST
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विनय गुप्ता

किसी भी लोकतान्त्रिक समाज में सिविल सोसाइटी की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. नागिरकों के
अधिकार आधारित विमर्श और मांगों को आगे बढ़ाने के साथ जनहित के मसलों पर राज्य से असहमति दर्ज कराने
में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. हालांकि भारत में सिविल सोसाइटी की स्थिति हमेशा से ही कमजोर रही है
लेकिन केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद से ये और हाशिये पर चले गये हैं. मोदी राज में सरकार की आलोचना
और विरोध करना बहुत ही जोखिम भरा काम है. ऐसा लगता है कि यहां सत्ता का विरोध या असहमति ही सबसे
बड़ा अपराध हो गया है. सत्ता विरोधियों को राष्ट्र, जनता और यहां तक कि हिन्दू धर्म के विरोधी के तौर पर पेश
किया जाता है.
पिछले 6 सालों के दौरान सिविल सोसाइटी के सबसे मुखर आवाजों को सिलसिलेवार तरीके से निशाना बनाया गया
है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के साथ अपराधियों जैसा सलूक किया जा रहा है. नागरिकों के वाजिब सवालों को
उठाने वालों को देशद्रोही और नफरत व धार्मिक हिंसा का विरोध करने वालों को ही दंगाई बताया जा रहा है. इसी
कड़ी में हर्ष मंदर का नाम जुड़ा है जिनपर दिल्ली पुलिस ने अपने चार्जशीट में लोगों को हिंसा के लिये भड़काने
और हिंसा की साज़िश में शामिल होने का आरोप लगाया है. जबकि जिन नेताओं को हमने खुलेआम हिंसा और और
आपसी नफरत का आह्वान करते हुये देखा था उन्हें सीधे तौर पर नजरअंदाज कर दिया गया है.
इस साल फरवरी में हुये दिल्ली दंगो से संबंधित चार्जशीट में दिल्ली पुलिस ने हर्षमंदर पर प्रदर्शनकारियों को
भड़काने का आरोप लगाया है. यह वही हर्ष मंदर हैं जो मानवाधिकार कार्यकर्ता के तौर पर अपने पूरे सावर्जनिक
जीवन के दौरान देश के सबसे गरीब और वंचित समुदाय के पक्ष में खड़े रहे और साम्प्रदायिक नफरत और हिंसा के
खिलाड़ देश के सिविल सोसाइटी के सबसे मजबूत आवाजों में से एक माने जाते हैं. पूर्व में वे भारतीय प्रशासनिक
सेवा के अधिकारी रह चुके हैं. 2002 में गुजरात अल्पसंख्यकों के खिलाफ हुई हिंसा के बाद उन्होंने भारतीय

प्रशासनिक सेवा से इस्तीफा देकर पीड़ितों के हक में काम करने लगे. भारत में भोजन के अधिकार और
साम्प्रदायिक हिंसा पीड़ितों के लिये उनका काम उल्लेखनीय हैं. यूपीए शासन के दौरान वजूद में आईं अधिकार
आधारित कई कानूनों/योजनाओं के पीछे भी हर्ष मंदर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. पिछले कुछ वर्षों से खासकर
देश भर में लिंचिंग की घटनाओं के बढ़ने के बाद से वे भारतीय संविधान की चौथी मूल भावना बंधुत्व पर विशेष
जोर दे रहे थे. इसके लिये उन्होंने “कारवान-ए-मोहब्बत” नाम से यात्रा शुरू की थी जिसका मुख्य उद्देश्य भीड़ की
हिंसा के खिलाफ अमन और सद्भावना का सन्देश देना था. कारवान के दौरान भीड़ की हिंसा के शिकार लोगों और
उनके परिजनों से मिलकर यह सन्देश देने की कोशिश की जाती कि एक समाज के तौर पर हम उनके साथ खड़े हैं.
बहुसंख्यकवादी साम्प्रदायिक संगठनों के खिलाफ अपनी मुखरता के कारण वे हमेशा से ही दक्षिणपंथी खेमे के
निशाने पर रहे हैं.उनके खिलाफ लगातार दुष्प्रचार किया जाता रहा हैं जिसके तहत उनपर एक तरह से देश हित के
खिलाफ काम करने का आरोप लगाया जाता रहा है. अब इसमें और तेजी आई है.
दिनांक 5 मार्च 2020 को पंचंजन्य के वेब पोर्टल पर “कांग्रेस के पालतू वैचारिक वायरस हैं हर्ष मंदर जैसे लोग”
शीर्षक से प्रकाशित लेख में उन्हें कांग्रेस का पाला-पोसा अर्बन नक्सल बताते हुए लिखा गया कि “यह व्यक्ति एक
एक्टिविस्ट का चोला ओढ़ा ऐसा देशद्रोही है, जो हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि को खराब करने की
कोशिश करता है”. इसी प्रकार से 5 मार्च 2020 को पंचंजन्य के ही वेब पोर्टल पर “हर्ष मंदर जैसे बुद्धिजीवियों
का गठजोड़ देश के लिए घातक” शीर्षक से एक दूसरे लेख प्रकाशित में बताया गया कि “हर्ष मंदर एक तंत्र का नाम
है. एक गठजोड़ का नाम है. इस गठजोड़ में विदेशी एनजीओ, मिशनरी संस्थाएं, कट्टरपंथी इस्लामी संगठन, कुछ
मीडिया संस्थान, कांग्रेस और वामपंथी संगठन, शहरी नक्सली सब मिलकर काम करते हैं. जैसा कि सीएए के
विरोध में देशभर में किए गए बवाल और फसाद से सामने आया”.
दरअसल यूपीए शासन के दौरान लाये गये “सांप्रदायिक एवं लक्षित हिंसा बिल” के मसौदे के बाद संघ खेमे की हर्ष
मंदर से नाराजगी बहुत बढ़ गयी थी क्योंकि इसमें उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी. प्रस्तावित विधेयक में धार्मिक या
भाषाई अल्पसंख्यक, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लोगों को निशाना बनाकर की गई हिंसा को
रोकने, इसके लिये भेदभावरहित व्यवस्था बनाने तथा पीड़ितों को न्याय के साथ मुआवजा दिलाने की बात की गयी
थी.
नये भारत में सत्ता से असहमति रखने वालों, सवाल करने वालों, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों और अन्य
वंचितों के हक में आवाज उठाने वालों के लिये शब्दावली गढ़ लिये गये हैं. इन्हें अर्बन नक्सल, टुकड़े टुकड़े गैंग,
हिंदू विरोधी गिरोह जैसे अपमानजनक शब्दों से संबोधित किया जाता है. 2019 में ह्यूमन राइट्स वॉच द्वारा जारी
वैश्विक रिपोर्ट के अनुसार भारत में सरकार ने आलोचना करने वालों को बड़े पैमाने पर प्रताड़ित किया, कई मौकों
पर उनके खिलाफ राजद्रोह और आतंकवाद-निरोधी काले कानूनों का इस्तेमाल किया गया साथ ही सरकार के कार्यों
या नीतियों की आलोचना करने वाले गैर-सरकारी संगठनों को बदनाम करने और उनकी आवाज़ दबाने के लिए
एफसीआरए जैसे कानूनों का दुरुपयोग किया.
हम देखते हैं कि भीमा कोरेगांव मामले में तो सुधा भारद्वाज, आनंद तेलतुंबडे और गौतम नवलखा जैसे लोगों के
खिलाफ आतंकविरोधी कानून, “गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम” के तहत आरोप तय किए हैं. इसी
प्रकार से कई प्रतिष्ठित मानवाधिकार संगठनों को विदेशी सहायता (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) के कथित
उल्लंघन के तहत निशाना बनाया गया है जिसमें ग्रीनपीस इंडिया, सबरंग ट्रस्ट, लॉयर्स कलेक्टिव, नवसर्जन ट्रस्ट,
इंडियन सोशल एक्शन फोरम जैसे संगठन शामिल हैं.


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