सता के सियासी शतरंज में सैंगल की सातिर चाल

asiakhabar.com | June 4, 2023 | 6:24 pm IST
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-विनोद तकियावाला-
वैश्विक राजनीति के दिप्तमान क्षितिज पर भारतीय राजनीति का सूर्य की रशिम किरणें घुन्धली व धुमिल हुई है। विगत दिनों विश्न के सबसे बड़े प्रजातंत्र भारत के नव निर्मित संसद भवन के उद्घाटन समारोह में राष्ट्रपति महोदया को आमंत्रित नही करने पर 21 विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा एक संयुक्त ब्यान जारी कर बहिष्कार किया गया था। सतापक्ष-विपक्ष दोनो दलों की एक ही मंशा है कि किसी तरह इस बर्ष राज्यस्थान, मध्य प्रदेश व छतीसगढ के विधान सभा चुनाव व आगामी वर्ष 24 में होने वाले लोक सभा के आम चुनावों में जनता को अपने पक्ष में कर उनका आशीर्वाद प्राप्त करना है।
केन्द्र में सतारूढ भाजपा व उनके सहयोगी पारी इस का श्रेय लेने की होड में है। 28 मई 2023 को नए संसद भवन के उद्घाटन समारोह में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वैदिक रीलि रिवाज व मंत्रोचारण के साथ लोकसभा के अध्यक्ष के आसन के पास सैंगल स्थापित कर दिया। इस घटना चक्र ने भारतीय राजनीति व राजनीति पंडितो को यह सोचने के लिए विवस कर दिया है कि आज भारतीय राजनीति किस ओर जा रही है। लोकतंत्र के इस नये मंदिर में सैगल की स्थापना को लेकर पक्ष विपक्ष द्वारा कई सवाल उठाये है। भाजपा इसे भारतीय संस्कृति व सभ्यता की धरोहर की निशानी बता कर इसे अपनी उपलब्धि का स्वयं भु महानायक बता रही है। वही विपक्ष इसे भाजपा सरकार के शासन काल में दिन प्रतिदिन बढती वेरोजगारी, मंहगाई जैसे मुद्दे से जनता का ध्यान भटका रही है।
जिस सैंगल की इतनी चर्चा व चिन्तन हो रही है। हम उनके इतिहास व अन्य पहलूओ पर प्रकाश डालते है। हालाकि इस संदर्भ में कई किदवन्ति व दंत कथायें भी है। आपको बता दे कि प्राचीन काल में जब किसी राज्य केराजा का सता का हस्तांतरण होता था। उसे विधिपूर्ण राज्याभिषेक हो जाने के बाद राजा स्वंय राजदण्ड लेकर राजसिंहासन पर बैठता था। राजसिंहासन पर बैठने के बाद वह घोषणा करता था कि अब मैं यहाँ का राजा बन गया हूँ, अदण्ड्योऽस्मि, अदण्ड्योस्मि, अदण्ड्योऽमैं अदण्ड्य हूँ, मैं अदण्ड्य हूँ। अर्थात मुझे कोई दण्ड नहीं दे सकता। प्राचीन परम्परा नुसार उनके पास एक संन्यासी खड़ा रहता था, लंगोटी पहने हुए। उसके हाथ में एक छोरी,पतली सीपलाश का छड़ी रखें होता था। जिससे वह राजा पर तीन बार प्रहार करते हुए कहता था कि राजा!यह अदण्ड्योऽस्मि अदण्ड्योऽस्मि’ गलत है। ‘दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि दण्ड्योऽसि’अर्थात तुझे भी दण्डित किया जा सकता है।
प्राचीन इतिहास के जानकारो का मानना है कि चोल राजा के शासन काल के दौरान ऐसे ही राजदंड का प्रयोग सत्ता हस्तान्तरण के लिए किया जाता था। उस समय पुराना राजा नए राजा को इसे सौंपता था। राजदंड सौंपने के दौरान 7वीं शताब्दी के तमिल संत संबंध स्वामी द्वारा रचित एक विशेष गीत का गायन भी किया जाता था। कुछ इतिहासकार मौर्य, गुप्त वंश और विजयनगर साम्राज्य में भी सेंगोल को प्रयोग किए जाने की बात कहते हैं। तत्कालीन राजाजी ने चोल कालीन समारोह का प्रस्ताव दिया जहां एक राजा से दूसरे राजा को सत्ता का हस्तांतरण उच्च पुरोहितों की उपस्थिति में पवित्रता और आशीर्वाद के साथ पूरा किया जाता था। राजाजी ने तमिलनाडु के तंजौर जिले में शैव संप्रदाय के धार्मिक मठ-तिरुवावटुतुरै आतीनम् से संपर्क किया। तिरुवावटुतुरै आतीनम 500 वर्ष से अधिक पुराना है और पूरे तमिलनाडु में 50 मठों को संचालित करता है। अधीनम के नेता ने तुरंत पांच फीट लंबाई के ‘सेंगोल’ तो तैयार करने के लिए चेन्नई में सुनार वुम्मिदी बंगारू चेट्टी को नियुक्त किया। वुम्मिदी बंगारू चेट्टी ने सैंगोल तैयार करके अधीनम के प्रतिनिधि को दे दिया। अधीनम के नेता ने वह सैंगोल पहले लॉर्ड माउंटबेटन को दे दिया। भारत को आजादी मिलने के बाद वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने पंडित जवाहरलाल नेहरू से पूछा था कि “ब्रिटिश शासक से भारतीय हाथों में सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में किस प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिए?” इस मुद्दे को लेकर पं. नेहरू ने वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानी सी राजगोपालाचारी (राजाजी) से परामर्श ली। उन्होने सता के हंस्तातरण के प्रतीकात्मक रूप में सैंगल की चर्चा की थी। तदोपरान्त 15 अगस्त की 1947 के शुरू होने से ठीक 15 मिनट पहले स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इसे सुपूर्द कर दिया गया।
पाठकों के मन में सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर सैंगल की सच्चाई क्या है? पं. नेहरू व स्वतंत्रता प्राप्ति के दौरान सैंगल के बारे में सटीक जानकारी हेतू निन्न तथ्यों पर ध्यान आर्कर्षित करना चाहूँगा। इसके लिए उस समय के प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित उदहरण निम्न प्रकार है। (1)टाइम मैगजीन के 25 अगस्त 1947 के अंक में लिखा था…25 अगस्त 1947 की टाइम मैगजीन का वो पन्ना, जहां सेंगोल से जुड़ी खबर है। पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे तर्कवादी भी, भारत के पहले प्रधानमंत्री बनने की पूर्व संध्या पर धार्मिक भावना से भर गए। दक्षिण भारत के तंजौर से एक हिंदू मठ के प्रमुख श्री अंबलावना देसीगर के दो दूत आए। श्री अंबलावना ने सोचा कि नेहरू, वास्तव में भारतीय सरकार के पहले भारतीय प्रमुख के रूप में सत्ता संभाल रहे हैं। उन्हें प्राचीन हिंदू राजाओं की तरह, हिंदू संतों से शक्ति और अधिकार का प्रतीक प्राप्त करना चाहिए। दोनों दूतों ने अपने लंबे बालों को अच्छी तरह से गूंथ रखा था। उनकी छाती पर कोई कपड़ा नहीं था और माथे पर श्री अबलावना के आशीर्वाद वाली पवित्र भस्म लगी हुई थी। वे नेहरू के घर में पूरी गरिमा से दाखिल हुए। दो लड़के हिरण के बाल से बने पंखे से हवा दे रहे थे। एक सन्यासी के हाथ में पांच फुट लम्बा और दो इंच मोटा सोने का राजदंड था। उन्होंने तंजौर से लाया पवित्र जल नेहरू पर छिड़का और माथे पर पवित्र राख की लकीर खींच दी। फिर उन्होंने नेहरू को पीतांबरम पहनाया और उन्हें सुनहरा राजदंड सौंप दिया।
(2)उस समय के जाने-माने पत्रकार डीएफ कराका ने 1950 में प्रकाशित अपनी किताब में पेज 39-39 में सेंगोल सेरेमनी का जिक्र किया.. पंडित नेहरू, जो आमतौर पर मंदिर या धार्मिक समारोह में न जाने के लिए जाने जाते थे। उन्होंने भी धार्मिक पंडितों का आशीर्वाद लेने की सहमति दी। तंजौर से सन्यासियों के मुख्य पुजारी के दूत आए। प्राचीन भारत में पवित्र पुरुषों से शक्ति और अधिकार पाने की परंपरा थी। पंडित नेहरू इन सभी धार्मिक समारोह के आगे झुक गए,क्योंकि भारत में कहा जाता है कि ये पुराने राजाओं के लिए सत्ता संभालने का पारंपरिक तरीका था। नई दिल्ली का मिजाज लगभग अंधविश्वासी हो गया था। शाम को पुजारी इन धार्मिक जुलूसों के आगे-आगे चले। वे तंजौर से राजदंड और पवित्र जल साथ लाए थे। उन्होंने अपना उपहार प्रधानमंत्री के चरणों में रखा। पंडित नेहरू के माथे पर पवित्र विभूति लगाई और अपना आशीर्वाद दिया। (3) डोमिनिक लैपियर और लैरी कॉलिन्स की चर्चित किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ के चैप्टर ‘जब दुनिया सो रही थी’ में सैंगल सेरेमनी का जिक्र किया गया है..डोमिनिक लैपियर और लैरी कॉलिन्स की चर्चित किताब ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ का कवर पेज। ‘मद्रास के नटराज मंदिर से पीताम्बर और अन्य पवित्र वस्तुएं लेकर जो साधु दिल्ली आए थे, उनका भव्य जुलूस यार्क रोड के17नंबर बंगले की ओर बढ़ रहा था,ताकि उस व्यक्ति को ईश्वर का आशीर्वाद दिया जा सके, जिसे ईश्वर पर विश्वास नहीं था और जो कुछ ही घंटों बाद इस देश का कर्णधार बनने जा रहा था।
उन दोनों में से एक के हाथ में एक विशाल चांदी का थाल था,जिस पर सोने की धारियों वाली सफेद रेशम की पट्टी यानी पातम्बर रखा हुआ था। दूसरे के हाथ में पांच फुट का राजदंड,तंजौर के पवित्र जल का पात्र,पवित्र राख का एक थैला और उबले हुए चावल रखे थे,जो भोर में नाचते हुए भगवान नटराज के चरणों में उनके मंदिर में चढ़ाया गया था। जैसे हिंदू संतों ने प्राचीन भारत के राजाओं को अपनी शक्ति का प्रतीक प्रदान किया था, वैसे ही ये संन्यासी एक आधुनिक भारतीय राष्ट्र का नेतृत्व संभालने वाले व्यक्ति को अपने प्राचीन अधिकार के प्रतीक प्रदान करने के लिए यॉर्क रोड आए थे। उन्होंने जवाहरलाल नेहरू पर पवित्र जल छिड़का,उनके माथे पर पवित्र भस्म (राख) लगाई गई, उनके हाथों पर अपना सैंगल रखा और उन्हें पीतंबर में लपेट दिया। (4) भीमराव अंबेडकर के लेखन और भाषणों पर महाराष्ट्र शिक्षा विभाग ने 1979 में एक किताब प्रकाशित की। इसके अध्याय 5 के पेज 149 में सैंगल का जिक्र है। 15 अगस्त, 1947 को एक ब्राह्मण के भारत का प्रधानमंत्री बनने के उपलक्ष्य में बनारस के ब्राह्मणों ने यज्ञ किया। क्या नेहरू उस यज्ञ में नहीं बैठे, ब्राह्मणों का दिया राजदंड नहीं लिया और उनके लिए लाया गया गंगाजल नहीं पिया?
(5) 11 अगस्त 1947 को द हिंदू के मद्रास अंक में लिखा है. स्वतंत्रता दिवस समारोह के संबंध में तिरुवदुतुरई के परम पावनश्री-ला-श्री अंबलावन ने शिव की विशेष पूजा करने और पंडित जवाहरलाल नेहरू को भगवान का आशीर्वाद प्रदान करने की व्यवस्था की है। रात 11 बजे पंडित नेहरू को नई दिल्ली स्थित उनके आवास पर पूजा का प्रसाद और सोने से बना सेंगोल भेंट किया जाएगा। शहर के वुम्मिदी बंगारू चेट्टी एंड संस ज्वेलर्स ने ये सोने का सेंगोल बनाया है।
(6) 13 अगस्त 1947 को इंडियन एक्सप्रेस के मद्रास संस्करण में लिखा है। आधिकारिक घोषणा की गई है कि तंजौर जिले के थिरुवदुथुराई अधीनम परम पावन श्री ला श्री अंबलावन देसिका ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को 15 हजार रुपयों से बनी स्वर्ण सेंगोल भेंट करने का फैसला किया है। पंडित नेहरू इसे 14 अगस्त की रात 11 बजे स्वीकार करेंगे। समारोह में परम पावन का प्रतिनिधित्व करने के लिए थिरुवथिगल के श्री-ला श्रीकुमारस्वामी थम्बिरन और श्री आर.रामलिंगम पिल्लई कल नई दिल्ली के लिए रवाना हुए। (7) 15 अगस्त 1947 को द स्टेट्समैन ने अपने रिपोर्ट में उल्लेख किया है। तिरुवदुथुराई अधिनाम (तंजौर) के पंडारसन्धि के प्रतिनिधियों ने गुरुवार की रात पंडित नेहरू को उनके आवास पर एक सुनहरा सेंगोल भेंट किया। बड़ी संख्या में दक्षिण भारतीयों ने समारोह देखा। इन सभी ऐतिहासिक संदर्भों से साफ है कि भारत के पहले प्रधानमंत्री नेहरू को सैंगल दिया गया था। हालाकि अधिकतर संदर्भ इस ओर इशारा कर रहे हैं कि ये कार्यक्रम उनके दिल्ली स्थित आवास पर हुई थी जो एक धार्मिक अनुष्ठान मात्र थी। इन संदर्भों में न तो माउंटबेटेन को सौंगल देने व उनसे वापस लेकर जल से पवित्र करने का जिक्र हैऔर न ही इसे अंग्रेजों से सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में देने पर साफ-तौर पर कुछ लिखा है।
भारतीय राजनीति के सियासी शंतरज में सैंगल की चाल क्या इस वर्ष तीन राज्यों के होने वाले विधान सभा के चुनाव व अगले वर्ष 2024 के लोक सभा के चुनाव कांग्रेस समेत अन्य विपक्षी एकता को चकमा दे कर भाजपा व एनडीए को दिल्ली में केन्द्र सरकार के एक बार पुनः सता के सिंधासन पर आसीन कर पायेगी। या विपक्ष एकता आपसी सारे भेद भाव को मिटाकर केन्द्र सरकार में भाजापा का आजादी के अमृत काल में अखण्ड भारत का दिवा स्वपन्न को चकनाचुर कर सर्व धर्म समभाव, बसुदेव कुटम्ब’ सर्वे भवन्तु सुखिन का परचम लहराया में कामयाब हो पायेगा। यह तो अभी अतीत के भविष्य में गर्म है। भारतीय राजनीति के विशेषज्ञ के मध्य धीमी स्वर यह चर्चा व चिन्तन हो रही है-क्या भारत व भारतीय राजनीति का इतिहास जो राजतंत्र, मुगल बादशाह के शासन तंत्र ‘अंग्रेजी शासन के गुलाम तंत्र’ विश्व के सबसे बडे लोक तंत्र अर्थात प्रजातंत्र के बाद भाजपा शासन काल इसे पुनः भगवा तंत्र में तबदील कर गोदी गणराज्य बनाने के दिन रात शैने शैने अग्रसर है। खैर फिलहाल आप सभी यह कहते हुए विदा लेते है-ना


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