संयुक्त राष्ट्र को प्रासंगिक बने रहने की नसीहत

asiakhabar.com | September 28, 2021 | 5:47 pm IST
View Details

-प्रमोद भार्गव-
संयुक्त राष्ट्रसंघ महासभा की 76वीं वर्षगांठ के अवसर पर अमेरिका की धरती से स्वयं को चाय बेचने वाला बताते
हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा, ‘यह भारत के लोकतंत्र की ताकत है कि एक छोटा बच्चा जो कभी रेलवे स्टेशन
की चाय-दुकान पर अपने पिता की मदद करता था, वह आज चौथी बार भारत के प्रधानमंत्री की हैसियत से इस
वैश्विक महासभा को संबोधित कर रहा है।’
मोदी ने चाणक्य के शब्दों को दोहराते हुए संयुक्त राष्ट्र को चेतावनी दी कि, ‘सही समय पर जब उचित कार्य नहीं
किया जाता तो समय ही उस कार्य की सफलता को असफल कर देता है। गोया, हमें आने वाली पीढ़ियों को उत्तर
देना है कि जब फैसले लेने का समय था और जिन पर विश्व को दिशा देने का दायित्व था, वे विकसित देश क्या
कर रहे थे ? यदि संयुक्त राष्ट्र को खुद को प्रासंगिक बनाए रखना है तो उसे अपना प्रभाव दिखाना होगा।
विश्वसनीयता को बढ़ाना होगा। यूएन पर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। अफगानिस्तान पर संकट, दुनिया पर चल
रहे छाया युद्ध (प्रॉक्सी वार) और कोरोना वायरस की उत्पत्ति ने इन सवालों को गहरा दिया है।’
मोदी ने उन देशों को नाम लिए बिना चेतावनी दी कि जो देश आतंकवाद को बतौर हथियार इस्तेमाल कर रहे हैं, वे
यह बात भूल रहे हैं कि आतंकवाद उनके लिए भी खतरा है। साफ है, भारतीय प्रधानमंत्री ने यूएन को उसी के मंच
से मुखर होकर जितनी कड़ी नसीहत दी है, उतनी बेबाकी से अन्य कोई राष्ट्र प्रमुख नहीं कर पाया है।
नरेंद्र मोदी ने संयुक्त राष्ट्र की कार्य-संस्कृति पर प्रश्नचिह्न लगाकर नसीहत दी है कि यदि यह वैश्विक संस्था
अपने भीतर समयानुकूल सुधार नहीं लाती है तो कालांतर में महत्वहीन होती चली जाएगी और फिर इसके सदस्य
देशों को इसकी जरूरत ही नहीं रह जाएगी। भारत जैसे देश को संयुक्त राष्ट्र की स्थायी सदस्यता से बाहर रखते
हुए इस संस्था ने जता दिया है कि वहां चंद अलोकतांत्रिक या तानाशाह की भूमिका में आ चुके देशों की ही तूती
बोलती है।
हालांकि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के अस्थायी सदस्य के रूप में भारत 1 जनवरी 2021 से दो साल के लिए चुन
लिया गया है। भारत समेत कई देश इसमें सुधारों की मांग कर रहे हैं। परिषद् में स्थाई सदस्यता पाने के लिए
भारत के दावे को अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस व रूस समेत कई देश अपना समर्थन दे चुके हैं। लेकिन चीन के वीटो
पावर के चलते भारत परिषद् का स्थायी सदस्य नहीं बन पा रहा है। चीन के अलावा वीटो की हैसियत अमेरिका,
ब्रिटेन, फांस और रूस रखते हैं। लेकिन संयुक्त राष्ट्र की उम्र 76 वर्ष हो चुकने के बावजूद इसके मानव कल्याण से
जुड़े लक्ष्य अधूरे हैं। इसकी निष्पक्षता भी संदिग्ध है। इसीलिए वैश्विक परिदृश्य में संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापित
करने और आतंकी संगठनों पर लगाम लगाने में नाकाम रहा है। अब तो आतंकवादी संगठन तालिबान ने पूरा एक

देश अफगानिस्तान ही कब्जा लिया है। अतएव अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन को समझने की जरूरत है कि
तालिबान को काबू में लेकर उसे सही रास्ते पर लाने में कामयाबी तब मिलेगी, जब पाकिस्तान को नियंत्रित किया
जाएगा। क्योंकि वह पाकिस्तान ही है, जिसकी बाहरी और भीतरी मदद से तालिबान अफगानिस्तान पर आधिपत्य
कर पाया। यदि समय रहते पाकिस्तान की हरकतों पर लगाम लगाई गई होती तो अमेरिका और तालिबान के बीच
दोहा की राजधानी कतर में हुई संधि की भी धज्जियां नहीं उड़ी होतीं। इसी तरह चीन की अनैतिक विस्तारवादी
महत्वाकांक्षाओं पर भी अंकुश नहीं लग पा रहा है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद शांतिप्रिय देशों के संगठन के रूप में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् का गठन हुआ था। इसका
अहम मकसद भविष्य की पीढ़ियों को युद्ध की विभीषिका और आतंकवाद से सुरक्षित रखना था। इसके सदस्य देशों
में अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन को स्थायी सदस्यता प्राप्त है। याद रहे चीन जवाहरलाल नेहरू की
अनुकंपा से ही सुरक्षा परिषद् का सदस्य बना था। जबकि उस समय अमेरिका ने सुझाया था कि चीन को संयुक्त
राष्ट्र में लिया जाए और भारत को सुरक्षा परिषद् की सदस्यता दी जाए। लेकिन अपने उद्देश्य में परिषद् को पूर्णतः
सफलता नहीं मिली।
भारत का दो बार पाकिस्तान और एक बार चीन से युद्ध हो चुका है। इराक और अफगानिस्तान, अमेरिका और
रूस के जबरन दखल के चलते युद्ध की ऐसी विभीषिका के शिकार हुए कि आजतक उबर नहीं पाए हैं। तालिबान
की आमद के बाद अफगानिस्तान में किस बेरहमी से विरोधियों और स्त्रियों को दंडित किया जा रहा है, यह किसी
से छिपा नहीं रह गया है। इजराइल और फिलीस्तीन के बीच युद्ध एक नहीं टूटने वाली कड़ी बन गया है। अनेक
इस्लामिक देश गृह-कलह से जूझ रहे हैं। उत्तर कोरिया और पाकिस्तान बेखौफ परमाणु युद्ध की धमकियां देते रहते
हैं। दुनिया में फैल चुके इस्लामिक आतंकवाद पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। साम्राज्यवादी नीतियों के क्रियान्वयन
में लगा चीन किसी वैश्विक पंचायत के आदेश को नहीं मानता। इसका उदाहरण अजहर जैसे आतंकियों को
अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करने पर चीन का बार-बार वीटो का इस्तेमाल करना है।
जबकि भारत विश्व में शांति स्थापित करने के अभियानों में मुख्य भूमिका निर्वाह करता रहा है। बावजूद दुनिया की
दूसरी सबसे बड़ी आबादी एवं सामुदायिक बहुलता वाला देश सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य नहीं है। भारत में
दुनिया की 18 फीसदी आबादी रहती है। दुनिया का हर छठा व्यक्ति भारतीय है। साफ है, संयुक्त राष्ट्र की कार्य-
संस्कृति निष्पक्ष नहीं है। कोरोना महामारी के दौर में विश्व स्वास्थ्य संगठन की मनवतावादी केंद्रीय भूमिका दिखनी
चाहिए थी, लेकिन वह महामारी फैलाने वाले दोषी देश चीन के समर्थन में खड़ा नजर आया।
अलबत्ता सुरक्षा परिषद् की भूमिका वैश्विक संगठन होने की दृष्टि से इसलिए महत्वपूर्ण मानी जाती है, क्योंकि
उसके अजेंडे में प्रतिबंध लागू करने और संघर्ष की स्थिति में सैनिक कार्रवाई की अनुमति देने के अधिकार शामिल
हैं। इस नाते उसकी मूल कार्यपद्धति में शक्ति-संतुलन बनाए रखने की भावना अंतनिर्हित है। लेकिन वह इन
प्रतिबद्धताओं को नजरअंदाज कर रहा है, गोया संस्था के प्रति विश्वास का संकट गहराया हुआ है। नतीजतन इसमें
सुधार की जरूरत महसूस की जा रही है।
1945 में परिषद् के अस्तित्व में आने से लेकर अब तक दुनिया बड़े परिवर्तनों की वाहक बन चुकी है। इसीलिए
भारत लंबे समय से परिषद् के पुनर्गठन का प्रश्न परिषद् की बैठकों में उठाता रहा है। कालांतर में इसका प्रभाव यह
पड़ा कि संयुक्त राष्ट्र के अन्य सदस्य देश भी इस प्रश्न की कड़ी के साझेदार बनते चले गए। परिषद् के स्थायी व

वीटोधारी देशों में अमेरिका, रूस और ब्रिटेन भी अपना मौखिक समर्थन इस प्रश्न के पक्ष में देते रहे हैं। संयुक्त
राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से दो तिहाई से भी अधिक देशों ने सुधार और विस्तार के लिखित प्रस्ताव को मंजूरी
2015 में दे दी है। इस मंजूरी के चलते अब यह प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र के एजेंडे का अहम मुद्दा बन गया है।
नतीजतन अब यह मसला एक तो परिषद् में सुधार की मांग करने वाले भारत जैसे चंद देशों का मुद्दा नहीं रह
गया है, बल्कि महासभा के सदस्य देशों की सामूहिक कार्यसूची का प्रश्न बन गया है। अमेरिका ने शायद इसी
पुनर्गठन के मुद्दे का ध्यान रखते हुए सुरक्षा परिषद् में नई पहल करने के संकेत दिए हैं। यदि पुनर्गठन होता है तो
सुरक्षा परिषद् के प्रतिनिधित्व को समतामूलक बनाए जाने की उम्मीद बढ़ जाएगी। इस मकसद पूर्ति के लिए
परिषद् के सदस्य देशों में से नए स्थायी सदस्य देशों की संख्या बढ़ानी होगी। यह संख्या बढ़ती है तो परिषद् की
असमानता दूर होने के साथ इसकी कार्य-संस्कृति में लोकतांत्रिक संभावनाएं स्वतः बढ़ जाएंगी।
परिषद् की महासभा में इन प्रस्तावों का शामिल होना, बड़ी कूटनीतिक उपलब्धि तो थी, लेकिन परिणाम भारत और
इसमें बदलाव की अपेक्षा रखने वाले देशों के पक्ष में आएगें ही, इसमें संदेह है। असमानता दूर करने के लिए उचित
प्रतिनिधित्व हेतु सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों की संख्या बढ़ाने से जुड़े मामलों पर लंबी चर्चा होगी। इस सभा में
बहुमत से पारित होने वाली सहमतियों के आधार पर ‘अंतिम अभिलेख’ की रूपरेखा तैयार होगी। किंतु यह जरूरी
नहीं कि यह अभिलेख किसी देश की इच्छाओं के अनुरूप ही हो ? क्योंकि इसमें बहुमत से लाए गए प्रस्तावों को
खारिज करने का अधिकार पी-5 देशों को है। ये देश किसी प्रस्ताव को खारिज कर देते हैं तो यथास्थिति और
टकराव बरकरार रहेंगे। साथ ही यदि किसी नए देश को सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता मिल भी जाती है तो
यह प्रश्न भी कायम रहेगा कि उन्हें वीटो की शक्ति दी जाती है अथवा नहीं ? हालांकि भारत कई दृष्टियों से न
केवल सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता की हैसियत रखता है,बल्कि वीटो-शक्ति हासिल कर लेने की पात्रता भी
उसमें है। क्योंकि वह दुनिया का सबसे बड़ा धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश है।
संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में विश्व स्वास्थ्य संगठन, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यूनिसेफ और
शांति सेना जैसे संगठन काम करते हैं। लेकिन चंद देशों की ताकत के आगे ये संगठन नतमस्तक होते दिखाई देते
है। इसीलिए शांति सेना की विश्व में बढ़ते सैनिक संघर्षों के बीच कोई निर्णायक भूमिका दिखाई नहीं दे रही है।
अंतरराष्ट्रीय न्यायालय जरूर युद्ध में अत्याचारों से जुड़े कई दशकों पुराने अंतरराष्ट्रीय विवादों में न्याय देता दिख
रहा है। परंतु संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक संगठन जी-20, जी-8, आसियान और ओपेक जैसे संगठन
विभाजित दुनिया के क्रम में लाचारी का अनुभव कर रहे हैं।
काबुल पर तालिबानी कब्जे के बाद अफगान में शरणार्थियों की संख्या निरंतर बढ़ रही है। इस समय पूरी दुनिया में
8.24 करोड़ लोग विस्थापितों के रूप में शरणार्थी शिविरों में बदतर जिंदगी जी रहे हैं। अमेरिका व अन्य यूरोपीय
देशों द्वारा इन्हें दी जाने वाली आर्थिक मदद में कटौती कर दिए जाने के कारण भी इनका भविष्य संकट में है।
इन सब खतरों के चलते इस वैश्विक मंच की विश्वसनीयता संकट में है, लिहाजा इसमें पर्याप्त सुधारों की तत्काल
जरूरत है।


Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *