विनय गुप्ता
‘मन चंगा तो कठौती में गंगा’ यह कहावत तो सभी ने सुनी होगी। इसकी शुरूआत भारत के महान संत रविदास के
व्यवहार को लेकर शुरू हुई थी। दरअसल, एकबार किसी त्योहार पर आस-पड़ोस के लोग गंगा स्नान के लिए जा रहे
थे तो संत रविदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी गंगा स्नान के लिए चलने का आग्रह किया। रविदास ने जवाब
दिया, गंगा स्नान के लिए मैं चलता अवश्य लेकिन गंगा स्नान के लिए जाने पर भी अगर मेरा मन यहीं लगा
रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त होगा? जो कार्य करने के लिए हमारा मन अंतःकरण से तैयार हो, हमारे लिए वही कार्य
उचित है। अगर हमारा मन सही है तो कठौते के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।’’ इस कहावत
का अर्थ है जिस व्यक्ति का मन पवित्र होता है, उसके बुलाने पर मां गंगा एक कठौती (चमड़ा भिगोने के लिए
पानी से भरे पात्र) में भी आ जाती हैं। उनका कहना था कि सद्कर्मों से ही मन की पवित्रता आती है और किसी भी
व्यक्ति की पहचान उसकी जाति से नहीं बल्कि उसके सद्कर्मों से की जाती है। वे समाज में ऊंच-नीच, भेदभाव
और जात-पात के घोर विरोधी थे और कहा करते थे कि वर्ग तथा वर्ण कृत्रिम एवं काल्पनिक हैं, जिन्हें कर्मकांडियों
ने अपने निजी स्वार्थ के लिए बनाया है। उन्होंने संदेश दिया कि कोई भी व्यक्ति जन्म के आधार पर श्रेष्ठ नहीं
होता- रैदास बामन मत पूजिए, जो होवे गुनहीन, पूजिए चरन चंडाल के, जो हो गुन परवीन।
पूरे समाज को भेदभाव से ऊपर उठकर समाज कल्याण की सीख देने वाले 15वीं सदी के इस महान समाज
सुधारक के जन्म से जुड़ी ज्यादा पुष्ट जानकारी तो नहीं मिलती लेकिन कुछ साक्ष्यों और तथ्यों के आधार पर
रविदास का जन्म काशी शहर के गोवर्धनपुर गांव में माघ पूर्णिमा के दिन रविवार को संवत् 1388 को हुआ माना
जाता है। उन्हें संत रैदास के नाम से भी जाना जाता है। उनके पिता संतोखदास जूते बनाने का कार्य किया करते
थे। बचपन से ही रविदास बहुत परोपकारी व दयालु थे और दूसरों की सहायता करना उन्हें अच्छा लगता था। जब
भी किसी को जरूरत होती वे बिना पैसे लिए उन्हें जूते दान में दे दिया करते थे। दरअसल वे बाल्यकाल से ही
साधु-संतों की संगत में रहने लगे थे इसलिए उनके मन में बचपन से भक्ति भावना रच-बस गई थी लेकिन साथ वे
अपने काम में भी पूरा यकीन रखते थे। इसी कारण पिता से मिले जूते बनाने के कार्य को भी उन्होंने पूरी लगन
और मेहनत से करना शुरू किया। चूंकि रविदास जरूरतमंदों और साधु-संतों को प्रायः बिना मूल्य लिए जूते भेंट कर
दिया करते थे, इसलिए इस स्वभाव से उनके माता-पिता उनसे नाराज रहने लगे। आखिरकार उन्होंने रविदास तथा
उनकी पत्नी को घर से निकाल दिया। उसके बाद रविदास ने पड़ोस में ही एक छोटे से मकान में जूते बनाने का
काम तत्परता से करना शुरू किया और बाकी समय वे ईश्वर-भजन तथा साधु-संतों के सत्संग में व्यतीत करने
लगे। एक तरफ वे भजन करते तो दूसरी तरफ समस्त सांसारिक कार्यों का निर्वहन भी मनोयोग से करते। उन्होंने
स्वामी रामानंदाचार्य से राम नाम की दीक्षा पाकर सद्भाव, सदाचार और प्रेम से सुगण-निर्गण ऐसी भक्ति का
विस्तार किया कि राजा-रंक के साथ ही लोक और शास्त्र के भेद को भी खत्म कर दिया।
सामाजिक समता के अग्रदूत संत रविदास ऐसे संत कवि थे, जिन्होंने छुआछूत जैसी कुरीतियों का विरोध करते हुए
पुरजोर आवाज उठाई। उनकी विशेषता यह थी कि वे बगैर किसी की आलोचना के कुरीतियों के खिलाफ आवाज
उठाते थे। उनका जन्म ऐसे विकट समय में हुआ, जब मानवता कराह रही थी और समाज में जाति-पाति के बढ़ते
प्रभाव के कारण देश कमजोर तथा असंतुलित हो चुका था। ऐसे विकट समय में रविदास ने आध्यात्मिक ज्ञान
अर्जित करने के लिए समाधि, ध्यान और योग का मार्ग अपनाते हुए पीड़ित समाज व दीन-दुखियों के सेवा कार्य में
जुट गए। अपनी जन्मस्थली काशी को ही कर्मस्थली बनाकर संत रविदास ने समस्त भारतीय समाज को बंधुत्व
और मानवता के प्रेम में बांधते हुए विश्व को भ्रातृभाव का संदेश दिया। समाज में व्याप्त वर्ण व्यवस्था और जात-
पात पर चोट करते हुए उन्होंने कहा था- रैदास जन्म के कारनै, होत न कोऊ नीच, नकर कूं नीच करि डारि है,
ओछे करम की कीच। अर्थात् कोई व्यक्ति केवल अपने कर्म से नीच होता है, जन्म से नहीं। जो व्यक्ति गलत कार्य
करता है, वह नीच होता है।
संत रविदास का कहना था कि जिस प्रकार केले के तने को छीला तो पत्ते के नीचे पत्ता, फिर पत्ते के नीचे पत्ता और
अंत में कुछ नहीं निकलता लेकिन पूरा पेड़ खत्म हो जाता है, ठीक उसी प्रकार इंसानों को भी जातियों में बांट दिया
गया है। जातियों के विभाजन से इंसान तो अलग-अलग बंट ही जाते हैं, अंत में इंसान खत्म भी हो जाते हैं।
रविदास की नजर में कोई भी धर्म छोटा-बड़ा नहीं था। उनका मानना था कि हर धर्म का रास्ता एक ही मंजिल पर
जाकर मिलता है। सर्वधर्म समभाव के इसी अर्थ को समझाते हुए उन्होंने लिखा- रविदास हमारो राम जी, सोई है
रहमान।
काशी जानी नहीं दोनों एकै समान।
ईश्वर को मानने की बाध्यता और समाज को आडम्बरों से मुक्त कराने के लिए रविदास ने समाज को जो प्रेरक
संदेश दिए, उन्हीं के चलते उन्हें रविदास से संत रविदास कहा जाने लगा। उनके समर्थकों को रैदासी कहा गया।
कई राजा भी उनके ओजस्वी विचारों से बेहद प्रभावित हुए। झालावाड़ की महारानी झाालाबाई तथा चितौड़ की
महारानी मीराबाई उन्हें अपना आध्यात्मिक गुरू मानते हुए उनकी शिष्या बनीं। संत रविदास ने सांसारिक बंधनों में
रहते हुए भी वैराग्य को जीवन बनाकर भक्ति भाव की ऐसी अलख जगाई, जो कई सदियां बीत जाने के बाद भी
समस्त भारतीय समाज के लिए आकर्षण और प्रेरणा का केन्द्र बनी हुई है।