विनय गुप्ता
विजय दशमी के दिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघ चालक डा. मोहन भागवत के नागपुर में दिए
गए उद्बोधन की देश भर में चर्चा रही। मोहन भागवत ने कहा कि लिंचिग शब्द विदेशी मूल का है,
जिसका अर्थ भीड़ द्वारा बिना किसी कारण के मारा जाना होता है। रोम साम्राज्य की स्थापना में ईसाई
भीड़ द्वारा निरपराधों की हत्या कर दी जाती थी। औरतों को डायन बता कर सैकड़ों की भीड़ द्वारा मार
दिए जाने के उदाहरणों से यूरोप का इतिहास भरा हुआ है। भारत में इस प्रकार हत्याओं का इतिहास नहीं
है, लेकिन इतने बड़े देश में किसी इक्का-दुक्का घटना को लेकर मीडिया में इस प्रकार का प्रचार किया
जा रहा है, मानों भारत में इस प्रकार की अमानवीय हत्याओं का रिवाज हो। भारत में लगभग एक हजार
साल तक विदेशी शासकों का राज रहा, जिसमें मुख्य रूप से तुर्क, अरब, अफगान, अंग्रेज, फै्रंच,
पुर्तगालियों का नाम आता है। तुर्क, अरब और अफगान भारत समाज के भीतर तक घात नहीं लगा सके।
अलबत्ता कुछ सीमा तक उनके ही भारतीयकरण की शुरुआत हो गई थी, लेकिन यूरोपीय शासक इस
प्रकार के नहीं थे। उनका मकसद केवल भारत की जमीन और व्यापार पर कब्जा करना ही नहीं था
बल्कि वे भारत के मस्तिष्क पर भी कब्जा करना चाहते थे। देश से जाने से पहले भी और देश से चले
जाने के बाद भी। इसमें उन्हें कुछ सीमा तक सफलता भी मिली थी। दरअसल वे देश छोड़ने से पहले,
जिन लोगों को सत्ता सौंप कर जाना चाहते थे, उन के मन मस्तिष्क को यूरोपीय मान्यताओं व संस्कृति
के अनुसार ढाल लेना चाहते थे, लेकिन 1925 में डा. केशव राव बलिराम हेडगवार ने नागपुर में राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ की स्थापना इसलिए की थी ताकि विदेशी साम्राज्यवादी शासकों के इस षड्यंत्र को सफल
न होने दिया जाए।
संघ ऐसे लोग तैयार करना चाहता था जिनकी जड़ें भारतीय परंपरा एवं संस्कृति में धंसी हों लेकिन गर्दन
आधुनिक युग में हो। ऐसे लोग न तो अंग्रेजों के माफिक लग रहे थे और न ही कांग्रेस के भीतर उस
समूह जो तहजीब और परंपरा के मामले में अपने आप को विदेशी शासकों के ज्यादा नजदीक मानते थे।
कांग्रेस में इस समूह का नेतृत्व पंडित नेहरू कर रहे थे। महात्मा गांधी और सरदार पटेल उस समूह के
साथ थे जो अपनी ऊर्जा व शक्ति भारतीय परंपरा से लेते थे। पंडित नेहरू का तथाकथित अंतरराष्ट्रीय
आभामंडल अंग्रेजों ने ही प्रयत्नपूर्वक तैयार किया था। लेकिन यह देश का दुर्भाग्य था कि आजादी के कुछ
समय बाद ही महात्मा गांधी की हत्या हो गई। पंडित नेहरू ने इसका लाभ उठाकर पटेल और संघ दोनों
को ही निपटा देने की योजना बना ली थी। संघ पर तो सीधे ही प्रतिबंध लगा दिया गया और पटेल के
खिलाफ दुष्प्रचार शुरू हो गया कि वे महात्मा गांधी की जान की रक्षा नहीं कर पाए, इसलिए उन्हें
गृहमंत्री के पद से इस्तीफा दे देना चाहिए। संघ और पटेल दोनों ही नेहरू की इस घेराबंदी से बच
निकले, लेकिन आयु में पटेल का साथ नहीं दिया और जल्दी ही वे काल कवलित हो गए। अब भारत की
सांस्कृतिक लड़ाई में कांग्रेस और साम्यवादी एक ओर थे और संघ के नेतृत्व में भारत की सांस्कृतिक
शक्तियां दूसरी और थीं, लेकिन जैसा कि गीता में कहा गया है विजय अंत में धर्म की ही होती है।
भारत में हो रहे इस सांस्कृतिक संघर्ष में अमरीका और यूरोप की ताकतें भी प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से कांग्रेस
के साथ ही थीं। क्योंकि उनको भी वही भारत अपने हितों के अनुकूल लगता था जो अपनी सांस्कृतिक
जड़ों से कटा हुआ हो। क्योंकि सांस्कृतिक जड़ों से कटे हुए समाज को आसानी से अपने रंग में रंगा जा
सकता था। लेकिन सात दशक के बाद वही हुआ जिसकी भविष्यवाणी गीता ने की थी। भारत में
सांस्कृतिक शक्तियों की विजय हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के समय डा. हेडगेवार ने जो
सपना देखा था, मानों वह पूरा होने की ओर चल पड़ा हो। राष्ट्रवादी शक्तियां सत्ता के केंद्र में पहुंच गईं।
जब राफेल पर भी ‘ॐ’ लिखा जाने लगा तो उन शक्तियों का चौंकना स्वाभाविक ही था जो इतने दशकों
से इसी ‘ॐ’ को अप्रासांगिक बनाने के काम में लगी हुईं थीं। भारत के संविधान के भीतर अनुच्छेद 370
को लेकर संशोधन होता है तो उन लोगों का चौंकना तो स्वाभाविक ही था जिन्होंने आज तक दिल्ली को
अपने निर्णय लेने से पहले भी बाहरी शक्तियों की प्रतिक्रिया को महत्त्व देते देखा था। वहां की सरकारें तो
शायद बहुत खुल कर भारत के खिलाफ बोलने से बदली परिस्थितियों में परहेज करती हैं, लेकिन विदेशी
मीडिया इस नए भारत के विष वमन करने में पीछे नहीं हट रहा। दरअसल भारत की सत्ता के केंद्र में आ
जाना ही भारत विरोधी मानसिकता के लोगों की पराजय है। इसलिए कभी भारत में लिंचिंग का
आविष्कार कर और कभी वाराणसी की उन्नति में सांप्रदायिकता का दर्शन कर, विदेशी मीडिया और
उसकी छाया में चलने वाला देसी मीडिया भी अपनी हताशा का ही परिचय दे रहा है। मोहन भागवत ने
उसी की ओर संकेत किया है।