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संयोग गुप्ता
तीन दिन पहले आतंकवादियों ने कश्मीर घाटी में बांदीपोरा जिला के भाजपा अध्यक्ष शेख वसीम बारी की हत्या कर
दी। वसीम के साथ उनके भाई और पिता को भी मार डाला गया। इससे कुछ दिन पहले अनंतनाग जिला में एक
सरपंच अजय की हत्या भी दुर्दांत आतंकवादियों ने की थी। घाटी में आतंकवादियों का जाल फैले लगभग चार दशक
हो गए हैं। इसकी शुरुआत अफगानिस्तान में रूसी सेना से लड़ने के लिए जेहादी तैयार करने से हुई थी। ये जेहादी
इस्लाम की घुट्टी पिला कर ही तैयार किए जा सकते थे। इसलिए अरब, तुर्क और मुगल मंगोल जगत से इस
इलाही काम के लिए मजहब पर शहीद होने वालों की डिमांड हुई। पाकिस्तान इस प्रशिक्षण का केंद्र बना। इसके
लिए पैसा अमरीका ने मुहैया करवाया। इन जेहादियों ने रूसियों को तो पाकिस्तान से भगा दिया या फिर रूस के
अंदर ही ऐसे हालात बन गए थे कि रूसियों को काबुल छोड़ना पड़ा। अब ये विदेशी जेहादी अमरीका के किसी काम
के नहीं रहे। वैसे भी इनमें से कुछ अमरीका पर ही झपट पड़े थे। लेकिन अब ये पाकिस्तान के लिए बहुत काम के
हो गए थे।
पाकिस्तान ने इन्हें भारत में कश्मीर घाटी में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 होने
के कारण कश्मीर घाटी एसटीएम (सैयद अरब, तुर्क, मुगल मंगोल) मूल के आतंकियों के लिए सुरक्षित शरणस्थली
बन गई। यहां के राजनीतिक दलों ने भी किसी न किसी रूप में एसटीएम मूल के इन आतंकियों का प्रयोग अपने
राजनीतिक हितों के लिए करना शुरू कर दिया। थोड़ी गहराई से खोज की जाए तो कहा जा सकता है कि कश्मीर
घाटी में बसे एसटीएम मूल के लोगों ने भी प्रत्यक्ष या परोक्ष इन पाकिस्तानी जेहादियों का समर्थन शुरू कर दिया।
हुर्रियत कांफ्रेंस इसी मानसिकता में से उपजी थी। एसटीएम ने कश्मीर घाटी का अरबीकरण करना शुरू कर दिया।
देवदार की जगह खजूर रोपने का प्रयास किया। लल्लेश्वरी व नुन्द ऋषि सहजपाल के समय से चले आ रहे ऋषियों
के डेरों को जलाना शुरू कर दिया। चरारे शरीफ तभी जलाया गया था। भाव शायद यह था कि कश्मीरियों ने अपना
इस्लामीकरण कर लिया, इतने से काम नहीं चलेगा, उनको अपना अरबीकरण भी करना होगा। स्वाभाविक ही
इसकी प्रतिक्रिया कश्मीरियों में होती। कश्मीरी चाहे वह किसी भी जाति का हो, हिंदू हो, सिख हो या मुसलमान हो,
वह अपने आप को अरब की रेगिस्तान संस्कृति से कहीं बेहतर समझता है।
शेख मोहम्मद अब्दुल्ला के वक्त में जो बकरा पार्टी और शेर पार्टी का आपस में जो संघर्ष हुआ था, वह इसी
एसटीएम और कश्मीरियों का सांस्कृतिक संघर्ष ही था। यदि बाद में शेख मोहम्मद अब्दुल्ला कश्मीरियों से
विश्वासघात कर एसटीएम से न मिल गए होते तो आज कश्मीर का इतिहास कुछ और होता। लेकिन वह संघर्ष
आज भी किसी न किसी रूप में चला हुआ है। पहले अनुच्छेद 370 की चारदीवारी के भीतर होने के कारण बाहरी
जगत को उतना ही दिखाई देता था जितना सरकार दिखाना चाहती थी। इस चार दीवारी को एसटीएम ही मजबूती
से पकड़े हुए था। नियंत्रण भी एसटीएम का ही था। इसलिए आम कश्मीरी एसटीएम से भिड़ते डरता भी था। फिर
वक्त की सरकारें भी एसटीएम के साथ थी। गिलानियों, इमामों, पीरजादों, मुफ्तियों और मीरवायजों का ही
बोलबाला रहता था। कोई कश्मीरी एसटीएम का साथ छोड़ना भी चाहता था तो उसकी हालत अब्दुल गनी लोन जैसी
कर दी जाती थी। लेकिन अब 370 की दीवार टूट गई है तो एसटीएम और आतंकियों का डर समाप्त होने लगा है।
इतने दशकों से घुट-घुट कर जी रहा कश्मीरी दोबारा खड़ा होने लगा है। वह गिलानियों की बजाय नुन्द ऋषि और
लल्लेश्वरी में अपनी पहचान तलाशने लगा है।
अब कश्मीर घाटी में एसटीएम की राजनीति खत्म होने लगी है और कश्मीरियों की अपनी राजनीति शुरू होने लगी
है। पिछले दिनों अजय और अब शेख वसीम बारी की शहादत इस बात का संकेत है कि आतंकवादी घाटी में
परिवर्तन की इस हवा को किसी भी कीमत पर रोकना चाहते हैं। कश्मीर घाटी में सभी जानते हैं कि वे इसके लिए
किसी भी सीमा तक जा सकते हैं। जाहिर है यह बात अजय और वसीम बारी को भी पता ही होगी। इसके बावजूद
वे डटे रहे। जाहिर है उन्होंने कश्मीरियत की खातिर अपना बलिदान दिया है। यह अरबियत के मुकाबले कश्मीरियत
की रक्षा के लिए किया गया बलिदान है। कश्मीर में सागर मंथन हो रहा है। इसमें अमृत भी निकल रहा है और
जहर भी। वह अमृत कश्मीर में नई जान भर देगा। कश्मीर के जाने-माने कवि अब्दुल रहमान राही कश्मीरियों के
इसी पुनर्जागरण के गीत गाते थे। लेकिन तब उनके गीतों को सुनने वाले कश्मीर में कोई नहीं थे। लेकिन इतने
साल एसटीएम की यातना को सहते, कश्मीरी भाषा के स्थान पर अरबी भाषा को थोपने को झेलते हुए अब
कश्मीरियों ने भी खजूर के सामने चिनार चिन दिए हैं, देवदार तान दिए हैं, हब्पा खातून को फिर से बुला लिया है,
इस नए जलोदभव को उसके सागर में घुस कर मारने का निर्णय कर लिया है। इस बार कोई कश्यप नहीं, बल्कि
हर कश्मीरी कश्यप बन गया है। शेख वसीम बारी यही लड़ाई लड़ते हुए शहीद हुए हैं। उनकी इस शहादत को नमन
किया जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद अब तक जो शोषित थे, उनको अधिकार मिलने
लगे हैं। यही बात आतंकवादियों को अखर रही है। इसलिए ही वे उन लोगों को मार रहे हैं जो कश्मीर को नई राह
पर ले जाकर उसे मजबूत बनाना चाहते हैं। आशा है कि कश्मीर में बदलाव की जो बयार चली है, वह मजबूत होगी
और आतंकवादी अपने मंसूबों में सफल नहीं होंगे। आतंकवादियों पर अब वहां शिकंजा कसता जा रहा है, इसीलिए
वे बौखला उठे हैं तथा आतंकवाद को जारी रखना चाहते हैं।