-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
देश में चुनावों को लेकर सरगर्मियां तेज होने लगीं हैं। एक देश, एक चुनाव के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में 8 सदस्यीय समिति बना दी गई है जिसमें केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह, लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष अधीर रंजन चौधरी, राज्यसभा के पूर्व नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद, 15वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप, वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश साल्वे तथा पूर्व मुख्य सतर्कता आयुक्त संजय कोठारी को रखा गया है। निर्वाचन के दौरान में होने वाले भारी भरकम व्यय, समय तथा संसाधनों को नियंत्रित करने की गरज से इस मुद्दे को उठाया गया है। यूं तो स्वतंत्रता के बाद देश के पहले 4 चुनाव एक साथ हुए थे। पहली बार सन् 1951-52 में एक साथ चुनाव हुए थे। यह क्रम 1957, 1962, और 1967 तक निरंतर जारी रहा। सन् 1968 और 1969 में समय से पहले कई राज्यों में विधानसभायें भंग हो गई और सन् 1970 में लोकसभा भी भंग हो गई। इसके बाद से यह सिलसिला थम गया। वहीं सन् 1999 में विधि आयोग तथा सन् 2019 में संसदीय समिति ने एक साथ चुनाव कराने के सुझाव दिये थे, जिस पर केन्द्र सरकार ने विधि आयोग, निर्वाचन आयोग तथा नीति आयोग से राय मांगी थी ताकि देश का पैसा और समय बचाया जा सके। साउथ अफ्रीका, स्पेन, स्लोवेनिया, होंडुरस, अल्बानिया, पोलैंड तथा स्वीडन में संसदीय चुनावों के साथ ही काउंटी और म्यूनिसिपल इलेक्शन होते हैं। ब्रिटेन में भी हाउस आफ कामन्स, लोकल इलेक्शन एवं मेयर इलेक्शन एक साथ कराने की परम्परा है। फिलिपीन्स, जर्मनी, बोलीविया, बेल्जियम, ग्वाटेमाला, कोस्टा रिका तथा गुआना जैसे देशों में भी वन नेशन-वन इलेक्शन लागू है। इस कम खर्चीली व्यवस्था को लागू करने में जहां विपक्ष की भूमिका को रेखांकित किया जा रहा है वहीं कार्यपालिका के अनेक आराम तलब हो चुके अधिकारी भी काम की अधिकता, जिम्मेवारी और व्यस्तता को नकारने में लगे हैं। निर्वाचन पध्दति के अलावा सत्ता हासिल करने के लिए भी नये-नये फार्मूले आजमाये जा रहे हैं। अनेक राजनैतिक दलों की स्थापना के दौरान निर्धारित किये गये सिध्दान्त अब तार-तार होने लगे हैं। आदर्शों की होली जलाई जा रही है। मान्यतायें अपनी अनदेखी पर जार-जार रो रही है। धरती से जुडा कार्यकर्ता अपने अवसर की तलाश में पथराई आंखों से परिवारवाद को हस्तांतरित हो चुके दलों के मुखियों की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है परन्तु सत्ता-सुख, व्यक्तिगत लाभ और परिवार की आगामी पीढियों के लिए आर्थिक सुरक्षा के मकड जाल में जकडे अनेक खद्दरधारियों की नजर स्वयं से दूर पहुंच ही नहीं रही है। जिन कार्यकर्ताओं ने जी-तोड मेहनत करके पार्टी के सिध्दान्तों की दुहाई पर सदस्यों की भीड खडी की थी, वे ही आज हाशिये पर पहुंचा दिये गये हैं। उपेक्षित पडे नींव के पत्थरों के दरकने से महल के अस्तित्व पर ही खतरा मडराने लगता है, किन्तु सोने के हिडोले में झूलने वाले परिवारवादी मुखियों को इस दिशा में सोचना की फुर्सत ही नहीं है। अनेक विधानसभाओं के चुनावों का अघोषित शंखनाद हो चुका है जबकि लोकसभा चुनावों के लिए कमर कसी जा रही है। विरोधी विचारधारा वाले दल भी एक ही झंडे के नीचे स्वार्थ की छांव में बैठकर चन्द्रयान से भी बडी काल्पनिक उडा भर रहे हैं। पार्टी सदस्यों के संख्याबल के आधार पर ठेकेदार बन चुकी पार्टियां आज भी इस मुगालते में हैं कि सिध्दान्तों से भटकने के बाद भी उनके सभी सदस्य अब भी बंधुआ मजदूर बनकर आका के इशारे पर न केवल मतदान करेंगे बल्कि विरोधी रह चुके दलों के पक्ष में समर्पित कार्यकर्ता बनकर जुट जायेंगे। राजनैतिक गठबंधों में आईएनडीआईए यानी कि इंडिया नेशनल डेमोक्रेटिक इन्क्ल्युएसिव अलाइन्स तथा एनडीए यानी नेशनल डेमोक्रेटिक अलाइन्स ही मुख्य रूप से दिखाई पड रहे हैं। अनेक राजनैतिक दल ऐसे भी हैं जिन्होंने अभी तक अपने कार्ड ओपिन नहीं किये हैं। विरोधी विचारधारा, अह्म की मजबूती और टिकिटों में वर्चस्व के कारण आने वाले समय में गठबंधनात्मक स्वरूप के नये आकारों की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। इन गठबंधनों में लगभग 50 प्रतिशत दल ऐसे हैं जिनकी लोकसभा में भागीदारी तक नहीं है फिर भी वे गठबंधन का अंग बनकर अपने खास मतों को मोडने का दावा करते हुए अवसर की मांग कर रहे हैं। मुम्बई सम्मेलन में तो बिना बुलाये कपिल सिब्बल के पहुंचने से आईएनडीआईए के अनेक दल असहज हो गये थे। दूसरी ओर मतदाताओं को जागरूक करने के नाम पर देश की कार्यपालिका व्दारा एक बडा बजट खर्च किया जा रहा है परन्तु बदलाव की बयार अभी तक अनुभूतियों की परिधि से बाहर है। पार्टियों के सिध्दान्तों से ज्यादा प्रत्याशियों की व्यक्तिगत छवि के परिणाम सामने आने की आशा है। आम आवाम को इस बात से कोई मतलब नहीं है कि उनके क्षेत्र से चुना जाने वाला प्रतिनिधि किन नीतियों वाले दल के किस मुखिया के कहने पर हाथ उठायेगा। उसे तो बस स्वयं के छोटे-मोटे प्रशासनिक कामों को करवाने या फिर लाभ कमाने से मतलब होता है। यह अलग बात है कि लोगों के मध्य अपनी सरल छवि, सहयोगात्मक व्यवहार और उदारता के कारण लोकप्रिय हुए क्षेत्रीय नेता अपने दल के सिध्दान्तविहीन मुखिया की हां में हां मिलाने के लिए यंत्रवत ही रहेगा और देश की दिशा तय करने में भी महात्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। आम मतदाता को सदन में आने वाले प्रस्तावों पर ज्यादा मतलब नहीं होता। वह तो केवल व्यक्तिगत मुनाफे के मौके ही ढूंढता रहता है। यही कारण है कि पार्टियों के मुखिया अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति के लिए विरोधी दलों के दुश्मन की तरह रह चुके लोगों को भी गले लगाने से परहेज नहीं कर रहे हैं। आयातित खद्दरधारियों की जमात से पार्टियों का आंतरिक स्वरूप ही नष्ट होता जा रहा है। ऐसे में जहां पार्टियों को अपना प्रत्याशी चयनित करने में पुराने कार्यकर्ता की भावनाओं को महात्व देना होगा वहीं मतदाताओं को भी व्यक्तिवाद से ऊपर उठकर पार्टी की गिरगिट की तरह बदल रही नीतियों का भी मूल्यांकन करना आवश्यकता है अन्यथा सीमित सोच से देश का भविष्य अंधकार में पहुंच सकता है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि शुरू हो चुका है राजनैतिक दलों की अग्नि-परीक्षा का दौर जो आने वाले समय में विश्वमंच पर अपनी भागीदारी करने करेगा। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।