सुरेंदर कुमार चोपड़ा
शिव ने योग की शिक्षा, पहले चरण में अपनी पत्नी पार्वती को दी। दूसरे चरण में सप्त ऋषियों को दी।
और उन सप्त ऋषियों ने पूरे संसार को यह ज्ञान दिया। जब हम ‘योग‘ कहते हैं तो सृजन के संपूर्ण
विज्ञान की बात कर रहे हैं। ‘शिव‘ शब्द का अर्थ है ‘वह जो नहीं है‘ यानी ‘शून्य‘, और ‘सब कुछ‘ यानी
पूरा ब्रह्मांड स्वयं ‘शून्य‘ से निकला है और वह फिर लौट कर ‘शून्य‘ में चला जाता है। यही जीवन का
सत्य है। ‘बिग-बैंग‘ सिद्धान्त और आज के भौतिक विज्ञानी भी यही कह रहे हैं। हम जिसे ‘शून्य‘ कहते
हैं, वही शिव है।
‘शिव‘ से हमारा मतलब एक और मूर्ति, एक और देवता को स्थापित करना नहीं है, जिससे हम अधिक
समृद्धि, बेहतर चीजों की भीख मांग सकें। यहां आपकी बुद्धि कोई काम नहीं आएगी। इसका अनुभव
करना होता है, न कि तर्क के आधार पर समझना। शिव बुद्धि और तर्क के परे हैं। तो शिव का यह
ऊर्जा-स्वरूप आपके विसर्जन के लिए है, जिससे कि आप अपनी सर्वोच्च ऊंचाइयों तक पहुंच सकें। इसके
लिए, आप जो अभी हैं, उसे विसर्जित होना होगा। आपके अहं, आपके इस ‘मैं‘ को नष्ट होना होगा। यह
ऊर्जा भीख मांगने के लिए नहीं है, यह ऊर्जा, जीवन से थोड़ा और फायदा उठाने के लिए नहीं है।
यह ऊर्जा, सिर्फ उन लोगों के लिए है जिनमें अपनी चेतना के शिखर तक पहुंचने की चाहत है। यह ईश्वर
की सत्ता को महसूस करना है। अगर आप अस्तित्व की चरम सत्ता तक पहुंचना चाहते हैं, तो वहां आपको
चरम संभावना की याचना के साथ जाना होगा। इसीलिए लोग कहते हैं कि शिव को अपने घर में मत
रखो। लेकिन अगर आप सर्वोच्च प्राप्त करना चाहते हैं, तभी आप ऐसा करें।