शिवराज के लिए कांटों भरा ताज

asiakhabar.com | April 4, 2020 | 5:36 pm IST
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कांग्रेस की कमलनाथ सरकार को गिराकर मध्य प्रदेश के चौथी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह चौहान के लिए
यह एक उपलब्धि तो है, लेकिन यह कांटों भरा ताज भी साबित हो सकती है। जिन ज्योतिरादित्य सिंधिया और
उनके समर्थक 22 विधायकों के बूते शिवराज ने सत्ता संभाली, वे सिंधिया कांग्रेस के वचन-पत्र में दर्ज उन वादों को
पूरा करने के लिए दबाव बनाएंगे, जिनके पूरा नहीं होने पर उन्होंने कमलनाथ सरकार को उखाड़ फेंकने का दंभ
दिखाया था। शिवराज को उन 22 कांग्रेस के बागी विधायकों से समन्वय बिठाना भी मुश्किल होगा, जिन्होंने स्वामी
भक्ति के चलते सत्ता गंवाने का जुआ खेला। इनके इतर कमलनाथ ने जाते-जाते ऐसे कई आर्थिक निर्णय लिए हैं,
जिन्हें खस्ताहाल खजाने के चलते पूरा करना मुश्किल होगा। इनमें किसानों को गेहूं का बोनस देने से करीब 2600
करोड़ और कर्मचारियों को डीए देने से करीब 1400 करोड़ का अतिरिक्त भार बाहर आएगा। अभी पांच लाख

किसानों के दो लाख तक के कर्ज माफी किए जाने हैं, जबकि दूसरे चरण के किसानों की कर्जमाफी भी पूरी नहीं हुई
है। इसी में करीब 1000 करोड़ तक के कर्ज माफ किए जाने हैं।
भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को इस सत्ता परिवर्तन से बल मिलेगा। सिंधिया भाजपा में आने से पहले धर्मनिरपेक्षता के
प्रखर पैरोकार रहे हैं। अब उनका भाजपा की शरण में आने का मतलब है, नरेंद्र मोदी सरकार ने जो नीतिगत बड़े
बदलाव किए हैं, उन्हें कांग्रेस का एक धड़ा देश की अखंडता और संप्रभुता के लिए संविधान सम्मत मानने लगा है।
हालांकि सिंधिया के भाजपा में जाने का यह अर्थ लगाना गलत होगा कि वे संवैधानिक लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा
और जनसेवा के लिए भाजपा में गए हैं। दरअसल लोकसभा चुनाव में हार के बाद सिंधिया और उनके परिवारिक
शुभचिंतक यह ताड़ गए थे कि कांग्रेस का अब कोई भविष्य नहीं है, इसलिए डूबते जहाज से उड़ान भरना ही सार्थक
है। इस मकसद पूर्ति के लिए उनके ससुराल पक्ष (वड़ौदा राजघराना) और डाॅ. कर्ण सिंह की भी प्रेरणा रही है। कर्ण
सिंह के बेटे से ज्योतिरादित्य की बहन की शादी हुई है। अब ऐसे भी कयास लगाए जा रहे हैं कि कर्ण सिंह के पुत्र
भी जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अहम् भूमिका निभाने की दृष्टि से भाजपा में चले जाएंगे। सिंधिया के भाजपा में
जाने के मार्ग को प्रशस्त करने का काम उनकी बुआ वसुंधरा और यशोधरा राजे सिंधिया ने भी किया है।
दरअसल सिंधिया को प्रदेश नेतृत्व द्वारा महत्व नहीं दिए जाने के बहाने से कहीं ज्यादा पार्टी से असंतुष्टि का
कारण वर्चस्व का टकराव रहा है। सिंधिया एक बड़े राजघराने से आते हैं, इसलिए वे आसानी से किसी के साथ
घुल-मिल नहीं पाते। उनका आचार-व्यवहार राजा और प्रजा का ही रहता है। इस वर्चस्व की लड़ाई को सिंधिया,
सरकार पर वचन-पत्र में किए वादे पूरे नहीं करने की बातें भाषणों में बार-बार कहकर गहराते रहे हैं। इसी वजह से
संविदा शिक्षकों के संदर्भ में तंज कसने पर कमलनाथ को कहना पड़ा था कि ‘सिंधिया यदि सड़क पर उतरना चाहते
हैं तो उतर जाएं।‘ जबकि सच्चाई यह है कि कमलनाथ आर्थिक संकट के बावजूद कर्जमाफी की प्रक्रिया को आगे
बढ़ा रहे थे। तीस लाख किसानों के पचास हजार तक के चार सौ करोड़ रुपए के कर्ज सरकार माफ कर चुकी है और
दूसरे चरण में साढ़े सात लाख रुपए के कर्ज माफ किए जा रहे थे। अब कमलनाथ सरकार गिर गई है, नई सरकार
को आगे कर्जमाफी करना मुश्किल होगा? गोया, सिंधिया यदि शिवराज पर कर्जमाफी को लेकर दबाव बनाएंगे तो
टकराव सामने आएगा।
अब बड़ा संकट उन सिंधियानिष्ठ विधायकों पर आने वाला है, जिनकी विधानसभा की सदस्यता खत्म हो गई है।
इन्हें भविष्य में भाजपा का टिकट पाने के लिए भी संघर्ष करने के साथ चुनाव जीतना आसान नहीं होगा।
उपचुनावों में मूल भाजपाईयों के टिकट नहीं मिलने पर बागी तेवर भी देखने को मिल सकते हैं। अलबत्ता भाजपा का
शीर्ष नेतृत्व इतनी नादानी कभी नहीं करेगा कि वह सभी बागी विधायकों को सिंधिया के कहने पर टिकट दे क्योंकि
भाजपा और संघ यह कूटनीतिक रणनीति अपनाने में सिद्धहस्त हैं कि किसी दूसरे दल से आए नेता को कभी
इतनी ताकत न दी जाए कि वह शाक्तिशाली होकर भाजपा नेतृत्व के लिए ही चुनौती बन जाए।
विधानसभा चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश कांग्रेस जब अपने चुनावी घोषणापत्र के बहाने लोक-लुभावन वादों का
‘वनचपत्र‘ तैयार कर रही थी, तब शायद उसे अंदाजा नहीं रहा होगा कि यही वादे उसे कल संकट में डालने का
आधार बनेंगे। अतएव कांग्रेस ने मतदाताओं से चुनाव पूर्व कुल 973 वायदे पूरा करने का वचन दिया था। पूर्व
मुख्यमंत्री कमलनाथ का दावा था कि सवा साल में 365 वचन पूरे कर चुके हैं, 608 बाकी हैं। भारत का यदि
इतिहास पढ़ें तो पता चलता है कि दान, वरदान, वचन और उदारता अभिशाप ही सिद्ध हुए हैं। भीष्म पितामह के
आजीवन ब्रह्मचारी रहने के वचन ने कुरुक्षेत्र का युद्ध कराया, वहीं दानवीर कर्ण को ऐसे ही दान व वचनों के
चलते प्राण गंवाने पड़े थे। पृथ्वीराज चौहान ने अतिरिक्त उदारता बरतते हुए जहां मोहम्मद गोरी को 18 बार

क्षमादान दिया, वहीं गोरी के हाथ पृथ्वीराज के आते ही, उसने पृथ्वीराज की आंखों में गर्म सलाखें चुभो दीं। गोया,
अब समय आ गया है कि मुफ्तखोरी के ऐसे वचन दिए ही न जाएं, जिन्हें पूरा करना मुश्किल हो। क्योंकि सपने
दिखाना जितना आसान हैं, उन्हें पूरा करना उतना ही कठिन है।
कांग्रेस में वर्तमान अंतरविरोध का कारण वह चुनावी वचन-पत्र है, जिसे सत्ता में काबिज होने से पहले प्रदेश के
सभी प्रमुख नेताओं ने मिल-जुलकर बनाया था। तब भाजपा से सत्ता हथियाने के लिए लोक-लुभावन वादों की बारिश
कर दी थी। ऐसा ही एक बड़ा वादा 65000 लिपिकों का है। वचनपत्र में इन लिपिकों से वादा किया गया था कि
उनकी वेतन-विसंगतियों को दूर किया जाएगा। दरअसल मध्य प्रदेश में अन्य राज्यों की तुलना में लिपिकों को कम
वेतन मिलता है। लिपिक इस वचन को पूरा करने के लिए आंदोलन कर चुके हैं। सरकार इसे पूरा करने के लिए
मंथन कर रही है।
शिक्षा विभाग में संविदाकर्मियों को अध्यापक के रूप में संविलयन करने का है। वचन-पत्र में इन्हें नियमित पदों पर
नियुक्त करने का वचन दिया था। अब इस मांग को लेकर आंदोलित है। इसी तरह महाविद्यालयों में पढ़ाने वाले
अतिथि विद्वान भी सहायक प्राध्यापक बनने के लिए मध्य-प्रदेश लोकसेवा आयोग की शर्तों में ढील चाहते हैं। तीन
महीने से धरने पर बैठे हैं। लेकिन यूजीसी के नियम आड़े आने के कारण सरकार कुछ भी करने में असमर्थ है।
सिंधिया ने इन्हीं अतिथि विद्वानों की मांगों के समर्थन में सड़क पर उतरने की धमकी दी थी। बिजली विभाग में
आउटसोर्स कर्मचारी भी अपनी मांगे मनवाने के लिए अड़े रहे थे। पुलिसकर्मियों को साप्ताहिक अवकाश देने का
वायदा किया था। इस वायदे को पूरा भी कर दिया है, लेकिन पुलिस बल की कमी होने के कारण यह वादा कागजी
साबित हो रहा है।
अर्से तक मुस्लिम तुष्टिकरण में लगी रही कांग्रेस की कमलनाथ सरकार ने नरम हिंदुत्व अपनाते हुए भगवान राम-
वन-पथ-गमन और श्रीलंका में सीता मंदिर बनवाने की पहल तेज कर दी थी। हालांकि शिवराज ने मुख्यमंत्री रहते
हुए ‘राम-वन-गमन-पथ‘ निर्माण की रूपरेखा रची थी लेकिन इसके बाद 10 साल सत्ता में रहने के बावजूद इस
योजना पर अमल संभव नहीं हुआ। हालांकि जब दिग्विजय सिंह ने 2017 में नर्मदा परिक्रमा के दौरान इस मुद्दे
को हवा दी तो शिवराज ने आनन-फानन में 69 करोड़ रुपए का प्रस्ताव बनाकर केंद्र सरकार को भेजा और इसे
जल्द मंजूरी मिल जाने का दावा किया था। जबकि यह राशि इतनी छोटी थी कि इसका खर्च स्वयं प्रदेश सरकार
उठा सकती थी लेकिन शिवराज सरकार यह भलि-भांति जानती थी कि इस काम को पूरा करने के लिए मोटी
धनराशि के साथ लंबी अवधि की भी जरूरत पड़ेगी। इसलिए उसने वह उपाय किया जिससे सांप भी मर जाए और
लाठी भी न टूटे।


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