शिक्षा-व्यवस्था : योग्यता का गोरखधंधा

asiakhabar.com | August 12, 2023 | 4:16 pm IST
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-डॉ. प्रवेश कुमार-
भारतीय समाज विभिन्नताओं से भरा है, और विभिन्नताओं में एकता का होना ही हिन्दुस्तान है। हम सब सैकड़ों वर्ष विदेशी ताकतों के अधीन रहे। इसके कारणों पर गौर किया जाए तो पता चलता है कि हम ग़ुलाम क्यूं बने। क्या कारण था कि भारत का विशाल हिन्दू समाज भारी संख्या में होने पर भी मुट्ठी भर लोगों से हार गया।भारत के बौद्ध मत की शक्ति ने जहां अपने विचार से दुनिया के तमाम देशों में अपने अनुयायियों को खड़ा किया वहीं भारत कैसे थोड़े से लोगों का ग़ुलाम हो गया। इसके पीछे के कारणों को हमारे तमाम महापुरुषों ने बताया है।राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार कहते हैं, हिन्दू समाज में सहोदर भाव की कमी के कारण ही हमें अधीनता का काल देखना पड़ा। वीर सावरकर से लेकर महादेव गोविंद रानाडे अथवा ज्योतिबा फुले एवं बाबा साहेब अंबेडकर ने भी यही माना। यही कारण था कि बाबा साहेब ने आजीवन समाज के असमान माने जाने वाले सभी वर्गों को समाज की मुख्यधारा में समान अधिकार-परस्पर सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष किया। सम्मान केवल बोलने से नहीं आने वाला है। मैं अक्सर कहता हूं कि सामाजिक समरसता मात्र बोलने की चीज नहीं, बल्कि उसे आचरण में लाने की आवश्यकता है।प्राय: लोगों द्वारा कहा जाता है कि हम समरस हैं। हम तो दलितों के यहां भोजन कर लेते हैं, उनके साथ घूमते-फिरते हैं। लेकिन जैसे ही आरक्षित वर्ग का हमारा कोई मित्र कोई पद पा लेता है, तो हम तुरंत यह भी बोल देते हैं कि वो तो आरक्षण था न इसलिए मिल गया, तुम्हारे लोगों की तो मेरिट ही कम जाती है। इस पर मुझे पिछले दिनों के एक लेख का स्मरण हो जाता है, जिसे डॉ. अदिति पासवान ने लिखा। इंडियन एक्सप्रेस में छपे इस लेख कोटा किड में उन्होंने बखूबी दलित समस्या को उभारा है। यह लेख उन तमाम लोगों पर तमाचा है, जो कहते हैं कि हम समरस हैं पर असल में जाति उनके भीतर है। मुझे याद है कि मेरे एक घनिष्ठ मित्र अक्सर मुझसे कहते थे कि रामविलास पासवान किसी दलित डॉक्टर से क्यूं नहीं इलाज कराता।हमेशा सामान्य वर्ग के डाक्टर को ही क्यों ढूंढ़ता है। अब पासवान ऐसे करते थे अथवा नहीं, यह तो हम नहीं जानते पर यह विमर्श जरूर समाज में पैदा किया जाता रहा है। मेरे तमाम उदाहरण देने का मकसद था कि हमारे सभी मनीषियों ने भारत को समरस बनाने के लिए अथक प्रयास किए। उन्हीं प्रयासों का परिणाम था प्रतिनिधित्व का अधिकार यानी कि आरक्षण। समरस समाज को बनाने के लिए छत्रपति साहू जी महाराज ने 1902 में आरक्षण का प्रावधान अपने राज्य के तमाम पिछड़े एवं दलित वर्ग के लिए किया था। आजादी की लड़ाई में ही 1932 में पूना पैक्ट के माध्यम से तमाम अनुसूचित जाति वर्ग के लोगों को आरक्षण दिया गया। यह आरक्षण सर्वप्रथम दलितों को दिया गया-यह मिथ वर्षो से लोगों के मन में है। पहली बार 1852 में अंग्रेजों ने गैर-अंग्रेजों यानी पढ़े-लिखे भारतीयों को आरक्षण दिया। आरक्षण का अभिप्राय भी प्रतिनिधित्व से ही है। जैसे पढ़े-लिखे भारतीयों ने अंग्रेजों से इसकी मांग की थी।उसी तरह बाबा साहेब अंबेडकर ने अनुसूचित जाति के लिए प्रतिनिधित्व की मांग की। यह प्रतिनिधित्व धीरे-धीरे महिला, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग एवं दिव्यांग और हाल में आर्थिक रूप से पिछड़े समाज के लिए भी किया गया है। अब आरक्षण तो लागू हो गया लेकिन उसे जमीन पर लाने की जिम्मेदारी जिन कंधों पर थी, वह सभी जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त, गैर-समता में विास करने वाले थे। यही कारण है कि आज भी चतुर्थ श्रेणी को छोड़ कहीं पर भी आरक्षित वर्ग को प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। क्या उपयुक्त पद के लिए आरक्षित वर्ग के कैंडिडेट नहीं मिलते अथवा मानसिक बीमारी के कारण इस वर्ग का समावेशन नहीं किया जा रहा है।हाल के वर्षो में देश भर के केंद्रीय एवं राज्य विश्वविद्यालयों में आरक्षित वर्ग की सीटों को नहीं भरा गया। हिमाचल केंद्रीय विश्वविद्यालय में तो अधिकतर पदों पर यह लिख दिया गया कि हमें आरक्षित वर्ग में कोई भी उपयुक्त अभ्यर्थी नहीं मिला (एनएफएस-नॉट फाउंड सुटेबल। दिल्ली विश्वविद्यालय में कॉमर्स विभाग अथवा अन्य कई विभागों में-कोई भी उपयुक्त नहीं-लिख कर आरक्षित वर्ग को कमतर बताने का प्रयास किया गया है। लखनऊ विविद्यालय, इलाहाबाद तथा जेएनयू सभी में यही हाल है। अभी गुरु घासीदास यूनिर्वसटिी ने भी अधिकतर सीटों पर एनएफएस लगा दिया है। इस एनएफएस को लेकर आरक्षित वर्ग में काफी रोष है। प्रो. हंसराज सुमन एवं जेएनयू के प्रो. राजेश पासवान कहते हैं कि अनुसूचित जाति-जनजाति एवं अन्य पिछड़े वर्ग के अभ्यर्थियों को एनएफएस किया जाना, कुछ लोगों की जातिवादी मानसिकता का परिचायक है। ये लोग अपने विवेक का इस्तेमाल बेईमानी के लिए करते हैं। यह समस्या एक दिन विकराल रूप न बन जाए, मुझे इसकी चिंता जरूर है।पिछले दिनों लोक सभा में एक प्रश्न के जवाब में शिक्षा मंत्रालय ने जवाब में कहा कि कुल केंद्रीय विश्वविद्यालयों में केवल एक में ही अनुसूचित जाति का उप-कुलपति है। वहीं जनजाति में भी एक है, अन्य पिछड़ा में 5 हैं। अगर रजिस्ट्रार देखें तो अनुसूचित जाति के 2 हैं, वहीं जनजाति के भी 2 ही हैं, वहीं अन्य पिछड़े समाज के तीन हैं। इन केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रोफेसर अनुसूचित जाति की तय सीटों की मात्र 7 प्रतिशत ही भरी गई हैं, वहीं जनजातियों एवं पिछड़े समाज की क्रमश: 2 एवं 4.5 प्रतिशत हैं।अमूमन यही स्थिति एसोसिएट और असिस्टेंट प्रोफेसर में भी है। देखें तो भारत में कुल आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा आरक्षित वर्ग से आता है लेकिन इसी वर्ग की हालत कोई खास अच्छी नहीं दिखती। जिस तरह से प्रतिष्ठित संस्थानों में जाति के आधार पर योग्य और अयोग्य होने का खेल खेला जाता है, वही सब कुछ गांवों में भी दलित जातियों के साथ बदस्तूर है। हाल में राजस्थान और मध्य प्रदेश की घटनाओं को हम आसानी से समझ सकते हैं। बाबा साहेब अंबेडकर द्वारा संविधान में दिए गए अधिकारों के लिए जब देश के एक बड़े समाज को लडऩा पड़ेगा तो ऐसे में भारत कैसे मजबूत राष्ट्र बनेगा। सबका साथ सबका विकास के साथ सबका विास होना भी जरूरी है। देश में हिस्सेदारी के सवाल पर देश के बड़े वर्ग के भीतर निस्संदेह कुछ बेचैनी और असंतोष है, जिसका समाधान सरकार के पास ही है।


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