-प्रियंका सौरभ
भारत में महिलाओं की स्थिति हमेशा एक समान नहीं रही है। इसमें समय-समय पर हमेशा बदलाव होता रहा है। यदि हम महिलाओं की स्थिति का आंकलन करें तो पता चलेगा कि वैदिक युग से लेकर वर्तमान समय तक महिलाओं की सामाजिक स्थिति में अनेक तरह के उतार-चढ़ाव आते रहे हैं और उसके अनुसार ही उनके अधिकारों में बदलाव भी होता रहा है। इन बदलावों का ही परिणाम है कि महिलाओं का योगदान भारतीय राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक व्यवस्थाओं में दिनों-दिन बढ़ रहा है जो कि समावेशी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक सफल प्रयास है। चुनाव महिला उम्मीदवारों से जुड़े कई राजनैतिक पूर्वाग्रहों को दूर करने में मददगार साबित हो सकता है। साथ ही महिलाओं का राजनीतिक सशक्तीकरण करने भी कारगर सिद्ध होगा।
तमाम प्रमुख राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में भारी फर्क है। जब तक राजनीतिक पार्टियां अधिक से अधिक महिलाओं को टिकट नहीं देती, तब तक उनकी भागीदारी बढ़ाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। लेकिन टिकटों के बंटवारे के समय तमाम दल किसी न किसी बहाने महिलाओं को चुनाव लड़ने से दूर रखने का प्रयास करते रहे हैं। जब तक यह पुरुषवादी मानसिकता नहीं बदलती, महिला आरक्षण विधेयक पारित होने के बावजूद तस्वीर ज्यादा नहीं बदलेगी। महिला मतदाता इतनी महत्वपूर्ण कभी नहीं थी जितनी अब है। महिला मतदाताओं को तेजी से एक ऐसे निर्वाचन क्षेत्र के रूप में पहचाना जा रहा है जो परिणामों को प्रभावित कर सकता है, महिला आरक्षण विधेयक के जल्दबाजी में पारित होने से बेहतर इसका कोई प्रतीक नहीं है।
भाजपा द्वारा “नारी शक्ति” पर किए गए सभी बड़े दावों के बावजूद, नवंबर में पांच राज्यों के चुनावों में उसके केवल 10 से 15 प्रतिशत उम्मीदवार महिलाएं थीं। यही बात उन अन्य पार्टियों पर भी लागू होती है जिनकी अखिल भारतीय उपस्थिति है। भारत की महिला मतदाता, एक ताकत है जिसे गिना जाना चाहिए। राजनीतिक दल कल्याणकारी योजनाओं और रियायतों के वादों के साथ महिलाओं के वोट हासिल करने की होड़ में हैं, लेकिन सच्चा सशक्तिकरण अभी भी मायावी है। जब तक राजनीतिक पार्टियां अधिक से अधिक महिलाओं को टिकट नहीं देती, तब तक उनकी भागीदारी बढ़ाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती। देश की मतदाता सूची में महिला वोटरों की तादाद लगातार बढ़ रही है। लेकिन राजनीतिक दलों की ओर से टिकट नहीं मिलने के कारण वे इस अनुपात में संसद में नहीं पहुंच पातीं। मतदाताओं में आधी आबादी महिलाओं की है। पिछले 15 सालों में हिंदी बेल्ट राज्यों में उनकी संख्या में वृद्धि चुनाव परिणामों पर गहरा असर डाल रही है। इन सबके बीच एक सवाल यह भी उठता है कि भारत की संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अब भी कम क्यों है? क्यों अब भी लगभग सभी पार्टियां महिलाओं को टिकट देने से कतराती हैं?
बीते लोकसभा चुनाव में 542 सांसदों में से 78 महिलाएं थीं। इनमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में 11-11 महिलाएं चुनाव जीती थीं। संसद में महिला आरक्षण विधेयक को पारित कराने वाली भाजपा ने 417 संसदीय सीटों के लिए उम्मीदवारों की घोषणा की है। इनमें 68 महिलाएं हैं। यानी पार्टी ने सिर्फ 16 फीसदी महिलाओं पर ही भरोसा जताया है। बीजेपी ने 2009 में 45, 2014 में 38 और 2019 में 55 महिला उम्मीदवारों को मैदान में उतारा था। कांग्रेस ने अब तक 247 उम्मीदवारों की घोषणा की है। इसमें 35 उम्मीदवार यानी 14 फीसदी से कुछ ज्यादा महिलाएं हैं। वर्ष 2019 में कांग्रेस ने 54 महिला उम्मीदवारों को टिकट दिया था। टीएमसी ने पश्चिम बंगाल में जिन 42 उम्मीदवारों की घोषणा है उनमें 12 महिलाएं हैं।
लोकसभा चुनाव में कुल 96.8 करोड़ मतदाताओं में से 68 करोड़ लोग मताधिकार का इस्तेमाल कर सकते हैं। इसमें 33 करोड़ यानी 49 फीसदी महिला मतदाता होंगी। 85.3 लाख महिलाएं पहली बार मतदान करेंगी। रिपोर्ट के मुताबिक, 2047 तक (2049 में संभावित चुनाव) महिला मतदाताओं की संख्या बढ़कर 55 फीसदी (50.6 करोड़) और पुरुषों की संख्या घटकर 45 फीसदी (41.4 करोड़) हो जाएगी। भारत के राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी पिछले दशक की सबसे महत्वपूर्ण बातों में से एक है। महिला मतदाता अब चुनावों में पहले से कहीं अधिक बड़ी भूमिका निभा रही हैं। रिपोर्ट के मुताबिक अब साक्षरता बढ़ने के कारण महिलाएं राजनीतिक फैसला लेने वाले एक अहम समूह के रूप में उभर रही हैं। महिला आरक्षण विधेयक, रसोई गैस सब्सिडी, सस्ते ऋण और नकद राशि के वितरण जैसे कदमों से महिला मतदाताओं को लुभाने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से बीजेपी के वोटों में वृद्धि में मदद मिली है।
महिला वोटरों की संख्या बढ़ी है क्योंकि उनकी आबादी और शिक्षा भी बढ़ी है। राजनीतिक दलों ने भी जागरूकता फैलाने में योगदान दिया है। यह उनके भी हित में था की वो महिलाओं को जागरुक करें और मतदान के लिए प्रोत्साहित करें ताकि उनका वोट प्रतिशत बढ़ सके। महिलाओं की तरफ फोकस इसलिए भी बढ़ गया क्योंकि पुरुष कई बार काम की तलाश में बाहर चले जाते हैं और ऐसे में वो मतदान के लिए अपने क्षेत्र में नहींआते हैं।” चुनाव आयोग ने भी इस दिशा में काम किया और महिलाओं के लिए बूथ तक पहुंचना और वोट डालना आसान बनाया। बूथों पर गर्भवती महिलाओं के लिए भी अलग इंतजाम किए जाते हैं। पर यह प्रगति इतनी धीमी है कि भारत अब भी कई बड़े देशों से इस मामले में पीछे है। महिला वोटर्स की संख्या में तो इजाफा हुआ है पर कैंडीडेटडे और सांसदों के तौर पर उनकी संख्या अभी भी बहुत कम है। तमाम राजनीतिक दल महिलाओं को कई स्पेशल स्कीम से लुभाने की कोशिश करते हैं। जैसे फ्री बस राइड, डायरेक्ट मनी ट्रांसफर आदि पर ज़्यादातर पार्टियांउन्हें टिकट देने के मामले में कंजूसी करती हैं। छतीसगढ़ और त्रिपुरा को छोड़ दें तो ज्यादातर राज्यों में महिला सांसदों की संख्या बहुत कम है।
स्वामी विवेकानन्द का मानना है — कि किसी भी राष्ट्र की प्रगति का सर्वोत्तम थर्मामीटर है, वहाँ की महिलाओं की स्थिति। हमें महिलाओं को ऐसी स्थिति में पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिए, जहाँ वे अपनी समस्याओं को अपने ढंग से ख़ुद सुलझा सकें। हमारी भूमिका महिलाओं की ज़िंदगी में उनका उद्धार करने वाले की न होकर उनका साथी बनने और सहयोगी की होनी चाहिए। क्योंकि भारत की महिला इतनी सक्षम है कि वे अपनी समस्याओं को ख़ुद सुलझा सकें। कमी अगर कहीं है तो बस इस बात की, हम एक समाज के तौर पर उनकी क़ाबलियत पर भरोसा करना सीखें। ऐसा करके ही हम भारत को उन्नति के रास्ते पर ले जा पाएंगे।