इस बार का वेलेंटाइन दिवस कुछ फीका रहा। कुछ क्या, ज्यादा ही फीका रहा। हो सकता है, इसका एक कारण शिवरात्रि हो। लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता क्योंकि शिवरात्रि मनाने वाले युवा और संत वेलेंटाइन की आराधना करने वाले युवा अलग-अलग वगरे में आते हैं। वैसे, शिव और पार्वती की जोड़ी को महान जोड़ी माना जाता है। पार्वती जैसी प्रेम करने वाली स्त्री नहीं और शिव जैसा प्रेम करने वाला पुरु ष नहीं। प्रेम के इस महान अध्याय की एक और विशेषता है, जिसका बड़ा सांस्कृतिक महत्त्व है। पार्वती और शिव, दोनों दो महान संस्कृतियों के प्रतीक जान पड़ते हैं। पार्वती आर्य संस्कृति की बेटी तो शिव आर्येतर संस्कृति के सबसे बड़े देवता। दोनों में ऐसा अद्भुत मिलन होता है कि दोनों संस्कृतियां धन्य हो जाती हैं। लेकिन पार्वती के प्रति उसके मायके में एक ग्लानि ग्रंथि बनी रह गई तो शिव को भी अपनी ससुराल में अपमानित होना पड़ा। उनके विवाह की तुलना एक तरह से आज के अंतरजातीय या अंतरधार्मिंक विवाह से की जा सकती है, जो सामाजिक व्यवस्था में एक खलल बन जाता है। यद्यपि पार्वती के माता-पिता औघड़ शिव को हृदय से स्वीकार नहीं कर सके पर शिव आज भी भारत के सबसे बड़े देवता हैं, जिनकी पूजा देश भर में की जाती है। कुंवारी लड़कियां भी इस मन्नत के साथ व्रत करती हैं कि शिव जैसा वर मिले। इसलिए मुझे शिवरात्रि और वेलेंटाइन दिवस की मूल प्रेरणाओं में कोई टकराव नजर नहीं आता, बल्कि गहरा साम्य दिखाई देता है, यदि रूढ़ि से बाहर निकल कर मुक्त मन से विचार किया जाए। लेकिन यही तो समस्या है। भारतीय आदमी का चित्त शताब्दियों से इतना उदास और बंधा हुआ रहा है कि वह आज भी मुक्त हो कर सोचने और व्यवहार करने के लिए राजी नहीं है। यही कारण है कि आधुनिकीकरण के प्रभाव से भारत के युवा को अपने प्रेम का इजहार करने के लिए एक दिन मिला है, तो देश की रूढ़िवादी ताकतें उसका विरोध करने के लिए खून-पसीना एक किए दे रही हैं। जब से वेलेंटाइन दिवस थोड़ा लोकप्रिय हुआ है, इन रूढ़िवादी ताकतों ने इसे एक खूनी दिवस में परिणत करने में कोई कोशिश छोड़ी नहीं है। उन्हें लगता है कि यह एक विदेशी त्योहार है, जो पश्चिमी समाजों के लिए ठीक हो सकता है, पर हमारे लिए नहीं। लेकिन मेरी समझ से जिसे आजकल भारतीय संस्कृति की संज्ञा दी जा रही है, वह वास्तव में भारतीय संस्कृति है ही नहीं। उसका एक विकृत, कुरूप, पराजित और अनुदार संस्करण है। यह असंस्कृत संस्करण पिछले डेढ़-दो हजार वर्षो में तैयार हुआ है, जिसने हमारे दिमाग को भयावह जड़ता का शिकार बना दिया है। मजे की बात यह है कि यथास्थितिवादी ताकतें राम को अपना आदर्श बताती हैं। उन्हें याद दिलाने की जरूरत है कि सीता और राम भी कोई मामूली प्रेमी नहीं थे। बेशक, स्वयंवर द्वारा उनका विवाह हुआ था, लेकिन राम और सीता स्वयंवर के पहले ही एक-दूसरे को अपना हृदय दे चुके थे। तुलसीदास ने रामचरितमानस में स्वयंवर के पहले राजा जनक की पुष्प वाटिका में राम और सीता के दृष्टि विनिमय का सुंदर वर्णन किया है। राम को देखते ही सीता चाहने लग गई थीं कि उनकी वरमाला राम के गले में ही पड़े। दूसरी ओर ‘‘कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।। मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही।।’ यानी कंकण, करधनी और पायजेब के शब्द सुन कर राम हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं ‘‘(यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है। ऐसा कह कर राम ने फिर उस ओर देखा। सीता के मुख रूपी चंद्रमा के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। सुंदर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई)।’ लेकिन तुलसी दास मर्यादा पुरु षोत्तम के अद्वितीय भक्त भी हैं नहीं चाहते कि यह साधारण, लौकिक प्रेम कथा बन जाए। इसलिए पहले ही बता देते हैं : प्रीति पुरातन लखइ न कोई। यानी राम व सीता का संबंध कुछ नया है, यह तो ‘‘प्रीति पुरातन’ है। तीसरी ओर, हमारे तीसरे बड़े देवता कृष्ण तो प्रेम के ही देवता थे। वह भी परकीया प्रेम के। कृष्ण कुंवारे थे, उनकी सब से नजदीकी मित्र और सखी राधा विवाहित थीं, और उम्र में कृष्ण से बड़ी भी। राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन करने के लिए लाखों कविताएं लिखी गई हैं। कृष्ण के द्वारका चले जाने के बाद राधारानी और उनकी सखियों का विलाप विश्व के प्रेम साहित्य में अनूठा है। ऐसे देश में, जिसके तीनों प्रमुख देवताओं शिव, राम और कृष्ण के साथ प्रेम का कोई महान प्रसंग जुड़ा हुआ है, प्रेम आज खलबली मचाता है, तो सोचनीय बात है। लेकिन एक शुभ घटना भी है। एक जड़ और ठहरे हुए समाज में प्रेम की सामाजिक भूमिका स्वस्थ दिशा में परिवर्तन लाने वाली ही हो सकती है। वेलेंटाइन दिवस के रस में व्यावसायिक संस्कृति ने भी बहुत-सी वाहियात खुशबुएं भर दी हैं। फिर भी भारतीय समाज के लिए, जहां दो व्यक्तियों की नहीं, दो कुंडलियों की शादी होती है, प्रेम एक क्रांतिकारी हस्तक्षेप है। क्रांति के दौरान बहुत कुछ उलट-पलट होता है, किले और प्राचीर ढहते हैं, लेकिन एक नई, बेहतर संस्कृति का जन्म भी होता है। ऐसे ही, प्रेम भारतीय समाज के ठहरेहुएपन को तोड़ता है, और उसमें नई ऊर्जा भरता है। इसलिए रूढ़िवादियों और यथास्थितिवादियों का दबाव चाहे जितना बढ़ता रहे, मैं तो यही कहूंगा : वेलेंटाइन दिवस जिंदाबाद।