पुलवामा आतंकी हमले के शहीद सैनिकों की वीरांगनाएं राजस्थान में सडक़ पर विरोध-प्रदर्शन को विवश हुई हैं। हम अपने जांबाज सैनिकों के शौर्य और बलिदान को एक पल के लिए भी विस्मृत नहीं कर सकते। वीरांगनाओं की मांग है कि सरकार नियमानुसार शहादत की क्षतिपूर्ति करे, लेकिन राजस्थान सरकार अनसुनी और वादाखिलाफी कर रही है। शहादत की कोई कीमत नहीं है, फिर भी भारत सरकार का संशोधित कानून है कि शहीद की पत्नी, बेटा या बेटी अथवा गोद लिया बेटा या बेटी अनुकंपा के आधार पर सरकारी नौकरी को अधिकृत है, लेकिन तीन आंदोलित वीरांगनाएं चाहती हैं कि उनके देवरों को अनुकंपा वाली नौकरी यथाशीघ्र दी जाए, क्योंकि उनके बच्चे अभी छोटे और नाबालिग हैं। विरोध-प्रदर्शन के दौरान पुलिसवालों ने वीरांगनाओं के साथ हाथापाई, धक्कामुक्की की और उन्हें खदेडऩे की कोशिश की। नतीजतन यह राजनीतिक मुद्दा बन गया है। चूंकि राजस्थान में यह चुनावी वर्ष है, लिहाजा भाजपा ने इस मुद्दे को लपक कर शहीदों और राष्ट्रवाद के अपमान से जोड़ दिया है। आंदोलित वीरांगनाओं के पति-सैनिकों ने पुलवामा आतंकी हमले के दौरान शहादत दी थी। बेशक शहीदों की विधवाओं को सरकार उचित मुआवजा देती रही है। कई मामलों में पेट्रोल पंप, विशेष कोटे के तहत, आवंटित किए जाते रहे हैं। सरकार किसान परिवार को कृषि-योग्य जमीन भी मुहैया कराती है। बुनियादी मकसद यह है कि शहीद की अनुपस्थिति में भी परिवार की रोजी-रोटी सम्मान से बरकरार रहे। अनुकंपा की नियुक्ति शहीद के एकदम आश्रित परिजन को ही दी जाती रही है।
यदि बच्चे नाबालिग हैं, तो नौकरी पत्नी को दी जाती रही है। नियम-कानून अपनी जगह हैं और शहीद के परिवार का सामाजिक-आर्थिक सम्मान अपनी जगह महत्त्वपूर्ण है। राजस्थान में वीरांगनाओं के सडक़ पर उतरने की नौबत ही नहीं आनी चाहिए थी। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को नाराज और आंदोलित वीरांगनाओं से मुलाकात करनी चाहिए थी। उनका संवैधानिक दायित्व है कि ऐसे चेहरों को यथासंभव संतुष्ट करें। यदि राज्य सरकार ने अपनी योजना के मुताबिक, पुलवामा शहीदों के परिवारों को यथोचित लाभ दे दिया है, तो मुख्यमंत्री वीरांगनाओं से उसे साझा करें। यह भी बताना जरूरी था कि राजस्थान सरकार ने ऐसे प्रावधान किए हैं कि यदि शहीद का बच्चा नाबालिग है, तो भी उसे नौकरी मुहैया कराई जाती है। बालिग होने पर वह बच्चा नौकरी को हासिल कर सकता है, क्योंकि तमाम दस्तावेज उसके पास होते हैं। हम समझते हैं कि शहीद के आश्रित परिवार की परिभाषा को राज्य सरकार बदल नहीं सकती। यह भारत सरकार का अधिकार-क्षेत्र है। यदि परिभाषा प्रत्येक मामले के संदर्भ में संशोधित कर बदली जाती रहे, तो अवांछित मांगों का पिटारा खुल सकता है। कोई भी सरकार व्यापक मांगों को पूरा नहीं कर सकती। फिर भी हमारा विवेक और सम्मान का तकाजा है कि वीरांगनाओं के साथ सडक़ पर तमाशा नहीं किया जाना चाहिए था। मुख्यमंत्री इस मांग को पूरा नहीं कर सकते, क्योंकि यह कायदे-कानून के दायरे से बाहर की मांग है। राजनीतिक दलों के लिए यह फजीहत की स्थिति है।