-डा. रवीन्द्र अरजरिया-
देश की आन्तरिक व्यवस्था को लेकर हमेशा से ही प्रश्नचिन्ह अंकित होते रहे हैं। कार्यपालिका के उत्तरदायी अधिकारियों के क्रियाकलापों को लेकर यदाकदा न्यायपालिका की गम्भीर टिप्पणियां भी सामने आती रहीं हैं। फिर भी अनेक अधिकारियों-कर्मचारियों अपने सेवाकाल में ही वेतन को पेंशन मान बैठते हैं। निर्धारित दायित्वों की औपचारिक पूर्ति के लिए पहले कागजों का पेट भरा जाता था और अब डाटाबेस तैयार कर पावरप्वाइंट प्रजेन्टेशन दिया जानने लगा है। सरकार ने आम नागरिकों तक सीधी पहुंच बनाने हेतु आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए डिजिटल इण्डिया की जुलाई 2015 में घोषणा कर दी थी। सभी विभागों को अपने दस्तावेजों, दैनिक कार्यों, पत्र व्यवहार आदि के लिए इन्टरनेट तथा कम्प्यूटर के उपयोग के निर्देश जारी किये गये थे। भारी भरकम बजट से अधिकारियों-कर्मचारियों को प्रशिक्षण दिया गया था, उपकरणों की खरीदी की गई थी और नियुक्त की गई थी तकनीकी विशेषज्ञों की फौज। साइबर क्रान्ति के आठ साल गुजर गये। प्रत्येक विभाग को तकनीकी जानकारों की भर्ती से लेकर आउट सोसिंग तक की सुविधायें दी गई परन्तु कार्यपालिका के अनेक उत्तरदायी अधिकारियों ने इसे आज तक गम्भीरता से नहीं लिया। परिणामस्वरूप देवरिया सामूहिक हत्याकाण्ड जैसी दु:खद घटनायें सामने आईं। मृतक सत्यप्रकाश की बेटी शोभिता की मानें तो उत्तर प्रदेश के आइडियल मुख्यमंत्री होने का दावा करने वाले आदित्यनाथ योगी के सीएम पोर्टल पर अनगिनत बार शिकायतें करने के बाद भी धरातल पर सकारात्मक कार्यवाही नहीं हुई। सामूहिक हत्याकाण्ड जैसे जघन्य अपराध के बाद हो हल्ला मचा। आम आवाम में आक्रोश आया। प्रदेश और देश में प्रदर्शन होने लगे। जांच का फरमान जारी हुआ। धरातल पर लापरवाही करने हेतु 15 अधिकारियों को निलम्बित भी कर दिया गया परन्तु सीएम पोर्टल पर कार्य करने वाले अधिकारियों, उनकी निगरानी करने वाले वरिष्ठों तथा उत्तरदायी तंत्र पर आंच तक नहीं आई। समय रहते यदि मुख्यमंत्री कार्यालय ने अपने पोर्टल पर की गई शिकायतों पर कडा रुख अपनाया होता, तो 6 लोगों की हत्या जैसा दिल दहला देने वाला काण्ड न होता। उनका परिवार आज भी अपनों की छांव में किलकारी लगा रहा होता और फहराता सरकार पर विश्वास का परचम। मगर मुख्यमंत्री कार्यालय को कटघरे में खडा करने का साहस करना स्वयं को जोखिम में डालने जैसा ही है। देश के अनेक कानूनों में बिना सुनवाई के ही सलाखों के पीछे पहुंचाने का अधिकार सरकारी अधिकारियों के पास सुरक्षित है। यही हथियार उन्हें सुरक्षा कवच प्रदान करता है। अधिकारियों के मनमाने फरमानों पर न्यायालय की चौखट तक पहुंचने का खर्चीला रास्ता भी आम नागरिकों की पहुंच से बाहर है। उच्च न्यायालय तथा उच्चतम न्यायालय में आज भी अंग्रेजी का राज्य है। राष्ट्रभाषा में व्यवहार करने वाला नागरिक अपनी भाषा में न्याय की गुहार भी नहीं लगा सकता। अनेक मुकदमों में सरकारी पक्ष को हार का सामना करना पडता है परन्तु कुछ मामले छोड दें तो ज्यादातर में उन झूठे मुकदमे दर्ज करके उनकी पैरवी करने वालों पर सरकार व्दारा कोई भी दण्ड आज तक रोपित नहीं किया गया है। आरोपियों व्दारा अपनी मनमानियों और तानाशाही को पहले मानवीय गलती कहकर माफी ली जाती थी और अब तकनीकी त्रुटि का उल्लेख करके स्वयं को बचा लिया जाता है। अब तो सर्वर डाउन, साइट का मेन्टीनेन्स, पोर्टल पर लोड, साफ्टवेयर करप्ट, हैकर्स का प्रकोप जैसे रेडीमेड बहाने मौजूद हैं जिनकी तकनीकी जांच ठीक वैसे ही होती है जैसे कि थानेदार की जांच पदोन्नति पाने वाला समान मानसिकता का क्षेत्राधिकारी करे। विभागीय विरादरी, अधिकारियों की कृपा और स्थाई नौकरी के अनुबंध आदि के कवच से साधारणतया अधिकारियों-कर्मचारियों की हमेशा से ही रक्षा होती रही है और शायद होती रहेगी। शोषण, उत्पीडन और अन्याय के दावानल में पहले गुलामी की बेडियां डालकर फैंका जाता था और अब मनमाने मुकदमे दर्ज करके विशेषाधिकार वाले कानून की आड में सलाखों के पीछे पहुंचा दिया जाता है। डिजिटल इण्डिया के नाम पर हजारों करोड निरंतर खर्च हो रहे हैं परन्तु देश के सभी विभागों के तकनीकी विशेषज्ञों की भारी भरकम फौज आज तक अपने-अपने पोर्टल, साइट और सर्वर को अपडेट नहीं कर पायी है। सरकारी साइट को जीओवी डाट इन तथा एनआईसी डाट इन की आधिकारिक पहचान देने के बाद भी अनेक निजी सर्वर का उपयोग धडल्ले से हो रहा है। अनेक सरकारी पोर्टल तो महीनों से अपडेट नहीं हुए हैं। स्थानांतरित हो चुके अधिकारियों को वर्तमान में भी पूर्ववत ही दर्शाया जा रहा है। अनेक विभाग तो अपने अधिकारियों के सीयूजी नम्बर तथा ई-मेल आईडी तक प्रकाशित करने से बच रहे हैं। साइट पर कभी न लगने वाला लैण्ड लाइन नम्बर ही दिखाई देता है। पहले अधिकारियों की होने वाली शिकायतों को रद्दी की टोकरी में डालने का प्रचलन था जो अब ई-मेल पर पहुंचने वाली शिकायतों को डिलिट करके रिसाइकिल बिन और सर्वर की मेमोरी से उडाने के रूप में परिवर्तित हो गया है। आनलाइन शिकायतें करने वालों को आटो कन्ट्रोल सिस्टम से एक निर्धारित मैसेज प्राप्त हो जाता है और शोषण की पीडा से ग्रसित आवेदक देवरिया जैसी स्थिति पर न्याय की उम्मीद में जान तक गवां बैठता है। निश्चित रूप डिजिटल इण्डिया एक बेहद पारदर्शी व्यवस्था है परन्तु कार्यपालिका के चन्द अधिकारियों की मनमानियों के कारण वह अपनी प्रमाणिकता के लिए जान की कीमत पर संघर्ष कर रही है। इस साइबर क्रान्ति ने नागरिकों के पैसे लूटने के लिए नये-नये ढंग जरूर अख्तियार किये जा रहे हैं। शिकायत दर्ज करने वाले सर्वर भले ही ज्यादा समय तक डाउन रहें परन्तु सडकों पर वाहन चलाने वालों से वसूली का फास्ट ट्रैक सर्वर कभी डाउन नहीं होता। आयकर दाताओं के लिए अन्तिम तिथि के निर्धारण के बाद वहां का सर्वर डाउन हो जाता किन्तु बाद में जुर्माना लगाने वाला सर्वर कभी डाउन नहीं होता। नौकरी के लिए आवेदन करने वाला सर्वर भी आखिरी तारीख के आसपास डाउन हो जाता है परन्तु सरकारों की उपलब्धियों का ढिढोरा पीटने वाला सर्वर कभी डाउन नहीं होता। इन डाउन सर्वर के लिए उत्तरदायी अधिकारी अपने वातानुकूलति चैम्बर में ठहाके लगाते तो मिल जायेंगे परन्तु उन पर सेवा में कोताही बरतने के आरोप कभी नहीं लगेंगे। बिल को जनरेट करने वाले साफ्टवेयर व्दारा मनमाने ढंग से रिकवरी निकालने पर आपरेटर तथा टैक्नीशियन पर शायद ही कभी कार्यवाही हुई हो। कार्यपालिका के स्थाई अधिकारियों-कर्मचारियों की मनमानियां और दबंगई तो यहां तक पहुंच गई है कि वे खुलेआम अपनी सेवा शर्तों का उलंघन करने, सरकारों पर टिप्पणियां करने तथा सोशल मीडिया पर राजनैतिक दल के प्रवक्ता के रूप में प्रस्तुति देने से भी अब परहेज नहीं कर रहे हैं। इसके पीछे स्थाई अधिकारियों-कर्मचारियों का संगठनात्मक स्वरूप, अभिव्यक्ति की आजादी और जरूरत पडने पर न्यायपालिका की दखलन्दाजी सुनिश्चित करने वाले पैतरे होते हैं। समान मानसिकता वाले वरिष्ठ अधिकारी के संरक्षण में अनियमितताओं का खुला खेल चल रहा है। अतीत गवाह है कि देश में अपराधों की संख्या का एक बडा भाग राजस्व विभाग की मनमानियों से आता है। बाकी के लिए पुलिस की कार्य पध्दति, विभागीय अधिकारियों व्दारा किया जाने वाला पक्षपात और अतिरिक्त लाभ का अवसर प्राप्त करने जैसे कारक जिम्मेवार होते हैं। सब कुछ जानते बूझते भी विधायिका का साहस इस विषबेल के जहर को निकाल फैकने का नहीं हो सकता। वास्तविकता तो यह है कि विधायिका में पहुंचने का रास्ता कार्यपालिका के समर्थन भरे गलियारे से होकर ही गुजरता है। वर्तमान में चुनावों का भारी भरकम खर्च देश की धरती से जुडा कोई राष्ट्रभक्त उठा ही नहीं सकता। ऐसे में राजनीति का दिग्गज बनने का पहले धनपति बनाना आवश्यक होता जा रहा है। अनेक विधायक और सांसदों के अपने अनगिनत धंधे जब कार्यपालिका की कृपा पर चल रहे हों, तो फिर वे ईमानदार, कर्मठ और कर्तव्य परायण अधिकारी को अपने क्षेत्र में कैसे बर्दाश्त कर पायेंगे। पाकिस्तान में सेना के पास सत्ता पलटने की शक्ति है तो भारत में कार्यपालिका के पास सरकार बनवाने और गिरवाने की ताकत है। ऐसे में विषवृक्ष का जहर निकाले बिना देवरिया काण्ड की पुनर्रावृत्ति रोकना कठिन है। इस हेतु आम आवाम को गुलामी, स्वार्थपरिता और भौतिक सुख की मानसिकता को तिलांजलि देना होगी तभी देश की कार्यपालिका के मनमाने अधिकारियों पर लगाम कस सकेगी। इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नई आहट के साथ फिर मुलाकात होगी।