विरोध के स्वर दबाने के यह कुटिल शस्त्र

asiakhabar.com | December 6, 2020 | 3:47 pm IST

शिशिर गुप्ता

किसी भी लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका को सत्ता की भूमिका से कम कर के नहीं आंका जाता है, न ही आंका जा
सकता है। प्रायः पूरे विश्व के सभी लोकताँत्रिक व्यवस्था रखने वाले देशों में विपक्ष को, सत्ता के किसी भी निर्णय
का सड़क से लेकर संसद तक विरोध करने का पूरा अधिकार है। और जहाँ जहाँ सत्ता तानाशाहों या तानाशाह प्रवृति
के शासकों के हाथों में रही वहां वहां न केवल तानाशाहों को हिटलर, मुसोलोनी, ईदी अमीन, ज़िआउलहक़, सद्दाम
व गद्दाफ़ी जैसे दिन देखने पड़े हैं बल्कि ऐसे तानाशाह शासकों के देशों को भी इनकी तानाशाह प्रवृति व
मानसिकता की भारी क़ीमत भी चुकानी पड़ी है। भारत में भी सत्ता द्वारा विपक्ष को हमेशा ही पूरा मान सम्मान व
महत्व दिया जाता रहा है। परन्तु निश्चित रूप से भारत ने ही 1975 -77 का वह दौर भी देखा जब विपक्ष के
विरोध स्वर को कुचलते हुए सत्ता से चिपके रहने की चाहत ने इंदिरा गाँधी को आपात काल लगाने के लिए मजबूर
किया। उसके बाद अजेय समझी जाने वाली वही इंदिरा गाँधी 1977 में जनता द्वारा नकार दी गयीं। दूसरी ओर
इसी भारतीय राजनीति में पंडित नेहरू -व डॉ राम मनोहर लोहिया तथा इंदिरा व राजीव गाँधी तथा अटल बिहारी
वाजपेई के मध्य सत्ता-विपक्ष के सौहार्द तथा विश्वास के कई क़िस्से भी बहुत मशहूर हैं।
परन्तु इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अब सत्ता न छोड़ने की चाहत ने सत्ताधीशों को अनैतिकता की सभी
सीमाएं पार कर जाने का ऐसा पाठ पढ़ा दिया है कि सत्ताधारी, विपक्ष पर झूठे लांछन लगाना तो दूर उसे समाप्त
करने की साज़िश रचने व इसकी पूरी कोशिश करने पर तुले हुए हैं। बहुमत की सत्ता के बाद तानाशाही व अहंकार
की प्रवृति ने भारतीय राजनीति का चेहरा ही कुरूपित कर दिया है। अपने विरोधियों, आलोचकों व विपक्ष के लिए
नई नई शब्दावली गाढ़ी जाने लगी है। देश में ही जन्मी भारत माता की संतानों को विदेशी, ग़द्दार, देशद्रोही,
धर्मद्रोही राष्ट्र विरोधी, राष्ट्रद्रोही आदि सब कुछ कहा जाने लगा है। बुद्धिजीवियों को अलग अलग 'गैंग' का सदस्य
बताया जाने लगा है। जो कश्मीर में मानवाधिकारों की बात करे उसे पाकिस्तान समर्थक, जो एन आर सी व सी ए
ए का विरोध करे वह राष्ट्र विरोधी, जो अल्पसंख्यकों के हितों की बात करे वह हिन्दू विरोधी, जो वामपंथी विचार
रखे उसे चीन समर्थक तथा अपने प्रत्येक विरोधी या आलोचक को काँग्रेसी या कम्युनिस्ट बताने का चलन चल पड़ा
है।
और अपने इस नापाक मिशन को कामयाब करने के लिए सत्ता ने मीडिया को अपना ग़ुलाम बना लिया है।
बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, लेखकों व फ़िल्म जगत को विभाजित करने की कोशिश की गयी है।और अब यही
प्रयास किसान आंदोलन को लेकर भी किया गया है। सत्ता से जुड़े, इनकी भाषा बोलने तथा पद व 'सत्ता शक्ति' की
उम्मीद पाले अनेक नेता व फ़िल्मी सितारे किसान आंदोलन को बदनाम करने की कोशिश ठीक उसी तरह करने
लगे जैसे शाहीन बाग़ के एन आर सी व सी ए ए विरोधी आंदोलन को किया गया था। किसी ने इसे ख़ालिस्तानी

आंदोलन बताया तो कोई 'एन आर सी व सी ए ए गैंग' का आंदोलन बताने लगा। कोई किसानों के आंदोलन की
फ़ंडिंग विदेशी बताने लगा तो कोई उनके खाने को 'बिरयानी' बताने लगा।आश्चर्य है कि मंत्री व सांसद स्तर के
लोगों ने इस तरह की ग़ैर ज़िम्मेदाराना व तथ्यहीन बातें करनी शुरू कर दीं। इन अनर्गल आरोपों का नतीजा यह
निकला की दिन प्रतिदिन किसान आंदोलनकारियों की शक्ति और अधिक बढ़ती गयी। तथाकथित 'ख़ालिस्तानी'
किसानों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, राजस्थान व हरियाणा के किसानों ने भी शामिल होकर सत्ता को
यह आईना दिखा दिया कि वे आंदोलनकारियों की धर्म व उनके 'कपड़ों से पहचान ' करना बंद कर दें। और यह
आंदोलन किसी एक धर्म या राज्य का नहीं बल्कि यह उन भारतीय किसानों का आंदोलन है जो पूरे देश का अन्य
दाता है। उन सत्ताधीशों, सत्ता के दलालों व कृषक समाज के विरोधियों का भी जो इन्हें ख़ालिस्तानी पाकिस्तानी या
'एन आर सी व सी ए ए गैंग' या बिरयानी खाने वालों का आंदोलन बता रहे हैं।
दरअसल अपने प्रत्येक विरोधियों, आलोचकों व विपक्ष को बदनाम करने की साज़िश के पीछे इनका ख़ास मक़सद
यही होता है कि इनकी ग़लत नीतियों, वास्तविक मुद्दों व असली समस्याओं से लोगों का ध्यान भटकाया जा सके।
उदाहरण के तौर पर किसानों को ख़ालिस्तानी बताने की इनकी ताज़ातरीन साज़िश के पीछे भी यही रणनीति काम
कर रही है। ताकि ख़ालिस्तानी के नाम पर किसानों में धर्म के आधार पर विभाजन किया जा सके। ज़रुरत पड़ने
पर इनके विरुद्ध शक्ति का प्रयोग करने के लिए उचित बहाना व आधार तैयार किया जा सके। तथा इसी नाम पर
किसानों को एकजुट होने से रोका जा सके। और इस तरह कृषक अध्यादेश पर विजय हासिल की जा सके। लेकिन
'विभाजनकारी राजनीति के इन माहिर खिलाड़ियों की चालों को पूरा देश धीरे धीरे समझने लगा है। कृषक आंदोलन
के पक्ष में एक बार फिर अवार्ड वापसी की झड़ी लग गयी है। प्रकाश सिंह बादल जैसे कई नेता व सामाजिक
कार्यकर्ता तथा परगट सिंह जैसे अनेक खिलाड़ियों ने अपने अपने अवार्ड व सम्मान वापस कर एक और 'अवार्ड
वापसी गैंग' तैयार कर दिया है।
और निश्चित रूप से किसानों तथा कृषक समाज के प्रति पूरे देश द्वारा दिखाई जा रही एकजुटता ने सरकार व
उसके अहंकार को घुटने के बल खड़ा कर दिया है। देश का समूचा विपक्ष तथा सभी किसान संगठन एकमत होकर
किसान आंदोलन का समर्थन कर रहे हैं। उधर अहंकारी सत्ता कृषक अध्यादेश को वापस लेने के बजाए उसमें
संशोधन करने के लिए तैयार भी हो गयी है परन्तु सत्ता के अहंकार ने किसानों में भी इस बात की ज़िद पैदा कर
दी है कि सरकार उन तीनों अध्यादेशों को रद्द करे जिन्हें वह किसानों की सलाह के बिना लागू करना चाह रही है।
जिस प्रकार किसानों ने तमाम बाधाओं व शक्तियों को धत्ता बताते हुए लगभग पूरी दिल्ली घेर ली और सरकार के
अहंकार व उसके मुग़ालते को चकनाचूर कर दिया उससे एक बात तो स्पष्ट हो ही गयी है कि जिस कुटिलता का
इस्तेमाल करते हुए सरकार ने अपने विरुद्ध उठने वाले अनेक स्वरों को कुचलने का प्रयास किया था वह चालें तथा
सत्ता के वह 'कुटिल शस्त्र' किसान आंदोलन को रोक पाने में कामयाब नहीं हो सके।


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