लेकिन विभाजन और लाखों निरपराध लोगों की हत्या के लिए जिन्ना के साथ ही गांधी भी बराबर के दोषी हैं। 1947 के बाद कांग्रेस ने जिन्ना को खलनायक बनाकर प्रस्तुत किया और नेहरू को नायक। आजादी की पहली वर्षगांठ से पहले ही गांधी जी विदा हो गये और कुछ समय बाद सरदार पटेल। बस फिर क्या था ? नियन्त्रणहीन नेहरू सब ओर छा गये। कांग्रेसियों ने सत्ता की रेवड़ियों के लालच में नेहरू को भगवान बना दिया।
निःसंदेह किसी समय जिन्ना भारतभक्त थे। जिसने 1925 में सेंट्रल असेंबली में कहा था कि मैं भारतीय हूं, पहले भी, बाद में भी और अंत में भी; जो मुसलमानों का गोखले जैसा नरमपंथी नेता बनना चाहता था; जिसने खिलाफत आंदोलन को गांधी का पाखंड कहा; जिसने मुसलमानों के अलग मतदान और निर्वाचन क्षेत्रों का विरोध किया; जिसने राजनीति में मजहबी मिलावट के गांधी, मोहम्मद अली और आगा खान के प्रयासों का विरोध किया; जिसने तिलक के अपमान पर वायसराय विलिंगटन का मुंबई में रहना दूभर कर दिया; जिसने ‘रंगीला रसूल’ के प्रकाशक महाशय राजपाल के हत्यारे अब्दुल कयूम की फांसी का समर्थन किया; जिसने लाहौर के शहीदगंज गुरुद्वारे के विवाद में सिखों की भरपूर सहायता की; 1933 में जिसने लंदन के रिट्ज होटल में पाकिस्तान शब्द के निर्माता चौधरी रहमत अली की हंसी उड़ाकर उसके भोज का बहिष्कार किया; कट्टरवादी मुल्लाओं को ‘कातिल ए आजम’ और ‘काफिर ए आजम’ कहा; 1934 में जिसने मुंबई के चुनाव में स्पष्ट कहा था कि मैं भारतीय पहले हूं, मुसलमान बाद में; जलियांवाला बाग कांड के बाद जो असेम्बली में गांधी और नेहरू से अधिक प्रखरता से बोला था; रोलेट एक्ट के विरोध में उसकी भूमिका से प्रभावित होकर गांधी ने उसे कायदे आजम (महान नेता) कहा और मुंबई में जिन्ना हाल बनाने की घोषणा की, 1938 तक जिसका रसोइया हिन्दू, कारचालक सिख, आशुलिपिक मलयाली ब्राह्मण, रक्षा अधिकारी गोरखा हिन्दू, जिसके अखबार का संपादक ईसाई और जिसका निजी डॉक्टर पारसी था; वह जिन्ना पाकिस्तान का निर्माता कैसे बन गया, क्या यह प्रश्न विचारणीय नहीं है ?
इसके लिए भारत के मुसलमानों के साथ ही कांग्रेस की मानसिकता पर भी हमें विचार करना होगा। मुसलमानों ने कभी मौलाना आजाद को अपना नेता नहीं माना, जो पांचों समय के नमाजी और कट्टर मुसलमान थे। उन्होंने नेता माना मौलाना मोहम्मद अली और शौकत अली को, जो अलगाव की भाषा बोलते थे। कांग्रेस के काकीनाड़ा अधिवेशन का प्रसंग स्मरण करना यहां उचित होगा, जब उद्घाटन के समय हुए वन्दे मातरम् गान पर अध्यक्षता कर रहे मौहम्मद अली मंच से नीचे उतर गये थे। उनकी इस बदतमीजी को गांधी और कांग्रेस ने बर्दाश्त किया। क्या जिन्ना जैसा अत्यधिक सफल और महत्वाकांक्षी बैरिस्टर इस घटना से अनजान रहा होगा ?
जिन्ना ने समझ लिया कि यदि मुसलमानों का नेता बनना है, तो अलगाव की भाषा ही बोलनी होगी। उसने ऐसा किया और फिर वह मुसलमानों का एकछत्र नेता बन गया। यह भी सत्य है कि अंग्रेजों ने षड्यन्त्रपूर्वक जिन्ना को इस मार्ग पर लगाया, चूंकि वे गांधी के विरुद्ध किसी को अपने पक्ष में खड़ा करना चाहते थे। नमाज तक न जानने वाला जिन्ना उनका सहज मित्र बन गया, चूंकि वह उनके साथ गाय और सुअर का मांस खा लेता था और दारू के जाम छलकाने में भी उसे कोई परहेज नहीं था। अंग्रेजों ने जिन्ना के माध्यम से शासन और कांग्रेस के सामने मांगों का पुलिंदा रखवाना शुरू किया। शासन को उसकी मांग मानने में तो कोई हिचकिचाहट नहीं थी, चूंकि पर्दे के पीछे उनके निर्देश पर तो यह सब हो ही रहा था; पर आश्चर्य तो तब हुआ, जब गांधी जी भी उनके आगे झुकते चले गये।
1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन की विफलता के बाद मुसलमानों के असहयोगी व्यवहार से कांग्रेस का मोह उनसे भंग हो चुका था; पर गांधी जी उस सांप रूपी रस्सी को थामे रहे। मई 1944 में गांधी जी ने जेल से मुक्त होने पर 17 जुलाई, 1944 को जिन्ना को एक पत्र लिखा, जिसमें उसे ‘भाई’ कहकर संबोधित किया था। उन्होंने जिन्ना से भेंट की अभिलाषा व्यक्त करते हुए लिखा कि मुझे इस्लाम और भारतीय मुसलमानों का शत्रु न समझें। मैं तो सदा से आपका और मानवता का सेवक और मित्र रहा हूं। मुझे निराश न करें। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी गांधी और जिन्ना के बीच माध्यम बन गये।
जिन्ना ने वह पत्र 30 जुलाई को मुस्लिम लीग की कार्यकारिणी में रखा। सबने प्रसन्नता व्यक्त की, कि गांधी ने पाकिस्तान की मांग सिद्धांततः मान ली है; और उस समय गांधी का अर्थ ही पूरी कांग्रेस था। अब जिन्ना ने एक शर्त रख दी कि वार्ता के लिए गांधी को माउंट प्लेजेंट रोड स्थित मेरे घर आना होगा। अतः मुंबई के इस ऐतिहासिक भवन में 9 से 27 सितम्बर तक मैराथन, पर असफल वार्ता हुई। जिन्ना ने तो पहले ही तय कर लिया था कि वार्ता से कोई परिणाम नहीं निकालना है। वह तो बस गांधी, पूरी कांग्रेस और भारत के सभी हिन्दुओं को अपमानित करना चाहता था। इतिहास गवाह है कि वह अपने उद्देश्य में पूरी तरह सफल रहा।
इस प्रकरण से जिन्ना का दिमाग सातवें आसमान पर पहुंच गया। मुसलमानों ने गांधी को अपमानित करने वाले को अपना निर्विवाद नेता मान लिया। वार्ता के बाद चले पत्र व्यवहार में गांधी ने जिन्ना को हर बार ‘कायदे आजम’ कहा, जबकि जिन्ना ने सदा ‘मिस्टर गांधी’ लिखा। वार्ता से पूर्व डॉ. श्यायमाप्रसाद मुखर्जी ने गांधी जी को पत्र लिखकर चेतावनी दी कि उनके इस पग में भयानक परिणाम निहित हैं, इसलिए वे यह विचार छोड़ दें। पंजाब के प्रमुख कांग्रेसी और हिन्दू नेता सर छोटूराम ने भी पत्र लिखकर कहा कि पाकिस्तान के मुद्दे पर मनुहार मुद्रा में जिन्ना से वार्ता करने से न केवल हिन्दुओं का अपितु कांग्रेस में कार्यरत मुसलमानों का भी मनोबल गिरेगा। इतिहास ने उनकी संभावना को सच सिद्ध किया। वार्ता के बाद वीर सावरकर ने कहा कि भारत के प्रांत गांधी या राजाजी की निजी जागीर नहीं हैं कि वे उन्हें चाहे जिसे दे डालें।
इस पर भी गांधी जी की आंखें नहीं खुलीं। देसाई-लियाकत समझौते के रूप में एक और प्रयास हुआ, जिसे जिन्ना ने सिरे से नकार दिया। यही हश्र वैवल योजना का हुआ, जिसमें जिन्ना के दोनों हाथों में लड्डू थे। पत्रकार दुर्गादास ने जब इस बारे में पूछा, तो शातिर जिन्ना ने हंसते हुए कहा, ‘‘क्या मैं मूर्ख हूं, जो इसे स्वीकार कर लूं। मुझे तो थाल में सजा कर पाकिस्तान प्रस्तुत किया जा रहा है।’’ स्पष्ट है कि जिन्ना की निगाह अपने अंतिम लक्ष्य पाकिस्तान पर थी। वह उसकी ओर बढ़ते रहे और अंततः सफल हुए।
इसके बाद तो जो कुछ हुआ, वह इतिहास के काले पृष्ठों में दर्ज है। 16 अगस्त, 1946 का ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ जिसमें पूरे बंगाल में मुस्लिम मुख्यमंत्री सुहरावर्दी के नेतृत्व में खुला हत्याकांड हुआ। अकेले कोलकाता में ही 3,000 हिन्दू मारे गये। सड़कें लाशों से पट गयीं, जिन्हें तीन दिन तक उठाया नहीं गया। इससे कांग्रेसी नेता डर गये। यह देखकर जिन्ना ने कहा कि अब हिन्दुओं का भी हित इसी में है कि वे पाकिस्तान की मांग को स्वीकार कर लें। चाहे तो केवल हिन्दुओं को कत्लेआम और विनाश से बचाने के लिए ही। उसने स्पष्ट कहा कि या तो भारत का विभाजन होगा या फिर विनाश।
इतिहास भले ही कितना निर्मम और कटु हो; पर उसे स्वीकार करना ही पड़ता है। देशभक्त जिन्ना को अलगाववादी बनाने का श्रेय जहां एक ओर भारतीय मुसलमानों को है, तो दूसरी ओर गांधी को भी है, जो नेहरू को अपने जीते जी भारत का प्रधानमंत्री बना देखना चाहते थे। देशभक्त जिन्ना के अलगाववादी बनने की कहानी बताती है कि सांप को दूध पिलाने से उसका विष कम नहीं होता। आग में घी डालने से वह बुझने की बजाय और प्रबल होती है। आज देश में जैसा माहौल बनाया जा रहा है, उसमें यह समझना एक बार फिर जरूरी हो गया है।