विभाजनकारी जिन्ना की तसवीर छाती से लगा कर रखने की क्या जरूरत है?

asiakhabar.com | May 3, 2018 | 5:16 pm IST
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क्षयरोग से पीड़ित पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना से जब वहां के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खान मिलने आए तो उनके जाने के बाद जिन्ना ने अपनी बहन फातिमा जिन्ना से पूछा कि- जानती हो फातिमा वजीर-ए-आजम क्या देखने आए थे ? इस पर फातिमा पशोपेश में पड़ गई। जिन्ना ने खुद ही जवाब दिया कि- वे देखने आए थे कि मैं मर गया हूं या नहीं। कहने को तो इस घटना के कुछ समय बाद ही 11 सितंबर, 1948 को टीबी के मरीज जिन्ना ही मौत हो गई, लेकिन यदाकदा भारत जैसे प्राचीन राष्ट्र को बांटने और लाखों हत्याओं के लिए जिम्मेवार पाकिस्तानी कायदे आजम की रुह कबर से बाहर आ ही जाती है।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना को लेकर मारामारी चल रही है और टकराव में कई विद्यार्थी घायल हो चुके हैं। दुखद आश्चर्य है कि जिन्ना जैसे व्यक्ति को लेकर भी देश में दो विचार देखने को मिल रहे हैं, एक विपक्ष में तो दूसरा पक्षधर। पता नहीं चल पा रहा है कि जिन्ना जिन हैं या हमारे जीन में है जो लाखों लाशें बिछाने, देश के टुकड़े करवाने और करोड़ों लोगों को घर से बेघर करने के बाद भी देश का पीछा ही नहीं छोड़ रहे हैं।

जिन्ना को लेकर ताजा विवाद उस समय पैदा हुआ जब अलीगढ़ से भाजपा सांसद सतीश गौतम ने विश्वविद्यालय के कुलपति तारिक मंसूर को पत्र लिख कर वहां जिन्ना की तस्वीर लगे होने पर स्पष्टीकरण मांगा। सांसद ने लिखा है कि अगर वे विश्वविद्यालय में कोई तस्वीर लगाना चाहते हैं तो वे महेंद्र प्रताप सिंह जैसे लोगों की तस्वीर लगाएं, जिन्होंने विश्वविद्यालय के लिए जमीन दान में दी। इस पर विश्वविद्यालय के जनसंपर्क अधिकारी सैफी किदवई ने कहा कि जिन्ना 1938 में विश्वविद्यालय आए। उन्हें यहां के छात्र संघ द्वारा कई अन्य लोगों की तरह मानद उपाधि दी गई। छात्रसंघ एक स्वतंत्र संस्था है जिसने 1920 में आजीवन सदस्यता देन की शुरुआत की थी। तब महात्मा गांधी और जिन्ना को भी सदस्यता मिली, तभी वहां जिन्ना की तस्वीर लगाई गई।

छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष फैजुल हसन ने कहा कि देश बंटवारे से पहले 1938 में जिन्ना की तस्वीर लगाई गई थी। साथ ही उन्होंने बताया कि यूनिवर्सिटी में जिन्ना पर कोई पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाया जाता है न ही कोई कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। उन्होंने सांसद से भी सवाल कर दिया कि अभी तक संसद भवन में से जिन्ना की तस्वीर क्यों नहीं हटाई गई है? छात्रसंघ के वर्तमान अध्यक्ष मशकूर अहमद उस्मानी ने जिन्ना को अविभाजित भारत का नायक बताया।

यह हमारी लापरवाही है या अलगाववाद से लगाव कि देश के खलनायक माने जाने वाले जिन्ना की तस्वीरें आज भी कई जगहों पर लगी हैं। मुंबई के इंडियन नेशनल कांग्रेस के कार्यालय में 1918 से जिन्ना की तस्वीर लगी हुई। मुंबई में जिन्ना हाउस भी है। ‘जिन्ना ऑफ पाकिस्तान’ के लेखक स्टैनले वॉल्पर्ट लिखते हैं- जब पहला विश्वयुद्ध खत्म हुआ तो बॉम्बे के राज्यपाल का कार्यकाल पूरा होने पर उन्हें विदायी पार्टी दी जा रही थी। तब जिन्ना इसके विरोध में जनता को सड़कों पर लाए। हिंदू-मुस्लिम सब साथ आए। तकरीर हुई कि क्यों अंग्रेजों का विरोध होना चाहिए। तब जिन्ना के लिए 6500 रुपये चंदा किया गया और एक हॉल बनाया गया। इस हॉल का नाम है पीपुल्स ऑफ जिन्ना हॉल। ये हॉल आज भी मौजूद है। जिन्ना की तस्वीर को सीने से लगाने वाले भूल रहे हैं कि विभाजन के तुरंत बाद ही लाहौर के पितामह कहे जाने वाले सर गंगाराम, शेर-ए-पंजाब लाला लाजपत राय की प्रतिमाओं को लाहौर के चौराहों से 1947 में ही हटा दिया गया था। वहां महात्मा गांधी की प्रतिमा को भी भारतीय उच्चायोग में स्थानांतरित करना पड़ा। ये तीनों नेता वे थे जिन्होंने न तो विभाजन का किसी तरह समर्थन किया, न ही अपने कार्यों से किसी के साथ सांप्रदायिक विभेद और सारा जीवन संयुक्त भारत की सेवा में खपा दिया जिसका कि किसी समय एक हिस्सा पाकिस्तान भी था।

इसके बावजूद वहां की सरकारों ने इन महापुरुषों की प्रतिमाओं को अपने यहां स्थान देना उचित नहीं समझा तो हमें क्या मजबूरी है कि देश के खलनायक की तस्वीर छाती पर ठोक कर रखें। हर तस्वीर व प्रतिमा का अपना मनोविज्ञान होता है। बचपन में कृष्ण जी की मोहक तस्वीर ने मीरा को उनकी अमर दीवानी बना दिया। तस्वीर या प्रतिमा अपने प्रति देखने वाले के मन में आकर्षण पैदा करती है, यही आकर्षण सम्मान में परिवर्तित होता है। यही कारण है कि महापुरुषों की तस्वीरें या प्रतिमाएं जगह-जगह स्थापित की जाती हैं। इसी आकर्षण से वह व्यक्ति उस महापुरुष के विचारों से प्रभावित होता है। यह मनोविज्ञान ठीक-ठीक उसी विज्ञापन की तरह है जिस तरह कोई व्यक्ति सड़क किनारे चलते हुए हर रोज दीवार पर बंदरछाप मंजन का विज्ञापन पढ़ता है और जब वह कभी मंजन खरीदने जाता है तो उसके मुंह से बंदरछाप ब्रांड ही निकलता है।

चित्र की पूजा करते-करते व्यक्ति कब संबंधित महापुरुष के चरित्र को पूजने लगता है उसे पता ही नहीं चलता। मीरा के अतिरिक्त भी इतिहास में इसके अनेकों उदाहरण हैं। इतिहास के रूप में जिन्ना को भुलाया नहीं जा सकता परंतु देश को किसी भी सूरत में न तो उनके चित्र की जरूरत है और न ही चरित्र की। जिन्ना की तस्वीर के समर्थकों का कहना है कि विभाजन का अंश निकाल दिया जाए तो जिन्ना एक महान क्रांतिकारी थे। अगर इस तथ्य को आधार बनाया जाए तो हमें रावण और नाथूराम गोड़से जैसे अनेकों नकारात्मक चरित्रों के बारे में भी वैचारिक दृष्टिकोण बदलना पड़ेगा, क्योंकि सीताहरण प्रकरण रावण के जीवन से हटा दिया जाए तो रावण भी महाज्ञानी और गांधीजी की हत्या को न गिना जाए तो गोड़से भी तो एक क्रांतिकारी ही था। इतिहास किसी के व्यक्तित्व का विश्लेषण खण्डों में नहीं बल्कि समग्रता में करता है। जिन्ना की जीवनी का उपसंहार यही है कि वह देश को तोडऩे वाले महापुरुष थे और उनकी महाजिद्द के चलते ही भारत विभाजन जैसी दुनिया की सबसे बड़ी मानवकृत त्रासदी इतिहास में संभव हो पाई।


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