विपक्षी एकता की धुंधलाती उम्मीदें

asiakhabar.com | May 2, 2018 | 5:21 pm IST
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कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी की विपक्षी दलों का एक संयुक्त मोर्चा खड़ा करने की योजना साकार रूप लेती नजर नहीं आ रही है, जबकि आम चुनाव महज एक साल दूर हैं। दरअसल, सोनिया का एकसूत्री एजेंडा है- अपने बेटे राहुल गांधी को प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले में प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के तौर पर पेश करना। वे इन चीजों से जैसे आंखें मूंदे हैं कि एक राजनेता के तौर पर राहुल गांधी अभी भी परिपक्व नहीं और उनकी अपनी सीमाएं हैं तथा विपक्षी दलों में भी उनके नेतृत्व को लेकर अमूमन अस्वीकार्यता का भाव है। वे तो बस एक ही लक्ष्य लेकर चल रही हैं और इसके लिए हर मुमकिन कोशिश करने पर उतारू हैं।

वहीं ममता बनर्जी भाजपा और कांग्रेस के बगैर तीसरी ताकत के रूप में एक अलग मोर्चा खड़ा करना चाहती हैं। यह तमाम ऐसी क्षेत्रीय ताकतों का संगठन हो सकता है, जो अपने-अपने राज्यों में प्रभावी स्थिति में हैं। तमिलनाडु का एक प्रमुख सियासी दल द्रमुक पहले ही ममता के इस विचार के प्रति समर्थन जता चुका है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री और टीआरएस के मुखिया के. चंद्रशेखर राव भी इससे जुड़ने को तैयार हैं। इसके अलावा समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव और तेलुगु देसम पार्टी के चंद्रबाबू नायडू को भी प्रस्ताव दिया गया है। ऐसी कवायदों के साथ तीसरा मोर्चा बनने की संभावनाएं उज्ज्वल नजर आती हैं।

मौजूदा सूरतेहाल में ऐसा कतई नहीं लगता कि ममता बनर्जी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री पद के दावेदार या गठबंधन के नेता के तौर पर स्वीकार करेंगी, लेकिन हम यह भी ना भूलें कि भारतीय राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। यहां कभी भी, कुछ भी हो सकता है। यदि कांग्रेस चुनाव में अच्छी सीटें जीतने में कामयाब रहती है, तो आज असंभव लगने वाली बात कल सच भी हो सकती है।

फिलहाल तो आगामी आम चुनाव में त्रिकोणीय संघर्ष की स्थिति बनती नजर आ रही है, जिसमें एक तरफ भाजपा व उसके सहयोगी दल होंगे, दूसरी ओर अपने कुछ सहयोगियों के साथ कांग्रेस होगी तथा तीसरी ताकत के रूप में होगा क्षेत्रीय दलों का गठबंधन। इस तरह एक विभाजित विपक्ष भाजपा की राह आसान कर देगा और उसकी संभावनाएं पुन: प्रबल हो सकती हैं।

विपक्ष भाजपा के लिए तभी तगड़ी चुनौती पेश कर सकता है, जबकि वह वाकई एक संयुक्त मोर्चा तैयार करने के साथ-साथ मोदी से मुकाबले के लिए कोई सर्वसम्मत विश्वसनीय चेहरा भी पेश कर सके और फिलहाल इसकी संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती।

कुछ दिन पूर्व उत्तर प्रदेश की दो लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में भाजपा को हराने में विपक्ष को इसीलिए कामयाबी मिल सकी, क्योंकि समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने अपने पुराने मतभेदों को भुलाते हुए साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। उपचुनाव के उन नतीजों ने भाजपा को भी देश के इस सर्वाधिक आबादी वाले राज्य (जो लोकसभा में 80 जनप्रतिनिधि चुनकर भेजता है) के लिए नए सिरे से अपनी रणनीति पर विचार करने के लिए विवश कर दिया।

यदि ममता बनर्जी का तीसरा मोर्चा खड़ा करने का विचार फलीभूत होता है, तो हकीकत में न तो कांग्रेसनीत मोर्चे और न ही ममता-नीत क्षेत्रीय मोर्चे में भाजपा को मात देने की क्षमता होगी। हां, यदि वे भाजपा को सत्ता से दूर रखने की खातिर चुनाव-पश्चात कोई साझेदारी कायम करने का विचार लेकर चलते हैं, तो जरूर कुछ संभावनाएं बन सकती हैं।

कांग्रेस भलीभांति जानती है कि ममता की योजना के तहत उसे कोई तवज्जो नहीं मिलने वाली और उसकी राहुल गांधी को नेतृत्वकारी भूमिका में लाने की उम्मीदें धराशायी हो जाएंगी। ऐसा हर्गिज नहीं हो सकता कि कांग्रेस विपक्षी गठजोड़ में सहयोगी भूमिका स्वीकार करे और कांग्रेस की भागीदारी के बगैर तो भाजपा के खिलाफ विपक्षी चुनौती कमजोर ही होगी।

विपक्ष के साथ समस्या यह है कि उसके कई नेता प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोए हैं। ऐसे में नेतृत्व का मसला सुलझाना भी आसान नहीं। नेतृत्व तय करते वक्त इन नेताओं का अहं भी आड़े आएगा।

बहरहाल, जब तक कांग्रेस में सोनिया-राहुल का वर्चस्व है, तब तक यह पार्टी राहुल के अलावा किसी और नाम के लिए तैयार नहीं हो सकती। हालांकि राहुल गांधी मतदाताओं को आकर्षित करने में नाकाम हैं और उनके नेतृत्व में पार्टी लगातार चुनावी पराजय झेल रही है। इसके बावजूद कांग्रेस के लोग अब भी यह उम्मीद पाले बैठे हैं कि मां-बेटे की यह जोड़ी पार्टी को बुरे दौर से उबार लेगी। कांग्रेसी जन भले ही निजी तौर पर अफसोस जताएं, लेकिन जब वे इन मां-बेटे या उनकी चाटुकार मंडली के समक्ष होते हैं तो उनके सुर में सुर मिलाने लगते हैं। ऐसे परिदृश्य के साथ पार्टी का भविष्य सुधरे भी तो कैसे!

प्रधानमंत्री पद के लिए प्रतीक्षारत नेताओं की कतार में शरद पवार भी हैं, जिनकी पार्टी एनसीपी की लोकसभा में खास मौजूदगी नहीं है। पवार का सोचना है कि यदि त्रिशंकु लोकसभा की स्थिति बनती है और विपक्ष किसी ऐसे चेहरे की तलाश करता है, जिसकी व्यापक स्वीकार्यता हो तो उनकी लॉटरी लग सकती है। इस तरह असंतुलित ताकतों का यह गठबंधन कब तक टिका रहेगा, यह एक अलग मसला है।

ममता बनर्जी भी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठने को बेताब हैं, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि कांग्रेस उनके नाम पर सहमत हो जाएगी। ऐसे ही एक और नेता टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू भी हैं, लेकिन उनके नाम पर भी सहमति बनने के आसार नहीं लगते।

हां, यदि नीतीश कुमार विपक्ष के खेमे में बने रहते, तो आगामी आम चुनाव में मोदी के प्रतिद्वंद्वी बनने का सेहरा उनके सिर सज सकता था। लेकिन वह तो खुद ही मोदी के पाले में चले गए और इस तरह उन्होंने विपक्षी खेमे का नेतृत्व पाने की बची-खुची संभावनाएं भी समाप्त कर लीं।

कुल मिलाकर आगामी आम चुनाव की जो तस्वीर फिलहाल उभरकर सामने आ रही है, उसमें मोदी को दूसरा कार्यकाल मिलने के पूरे आसार हैं। लेकिन भाजपा को भी संतुष्ट होकर नहीं बैठना चाहिए। हम देख रहे हैं कि खुशफहमी में डूबी भाजपा अपने पुराने साथियों को गंवा रही है और नए साथी भी नहीं जोड़ पा रही है।

जहां चंद्रबाबू नायडू ने अचानक ही एनडीए से नाता तोड़ दिया, वहीं शिवसेना भी लगातार उससे असंतुष्ट चल रही है और एक तरह से यह जता भी चुकी है कि वह आगामी लोकसभा व विधानसभा के चुनावों में भाजपा के साथ गठबंधन नहीं करेगी। अकाली दल को कांग्रेस ने पंजाब विधानसभा चुनाव में पस्त कर दिया और वह केंद्र में भाजपा के साथ अब भी जुड़ा जरूर है लेकिन खुश नहीं है। ऐसे में भाजपा के लिए भी यह बेहद जरूरी है कि वह पुराने साथियों को जोड़कर रखे और कुछ नए संबंध भी कायम करे, लेकिन लगता है कि वह इससे बेपरवाह है।


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