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विनय गुप्ता
मुझे एक सच्ची घटना याद आती है जो मैंने कभी बचपन में सुनी थी। एक कैदी को कत्ल के इल्जाम में मौत की
सजा सुनाई गई। उसकी फांसी के एक दिन पहले डाक्टरों की एक टीम उसके पास गई और उन्होंने उससे कहा कि
जब तुम्हें कल फांसी दी जाएगी तो तुम्हारे गले की तीन हड्डियां टूटेंगी और डेढ़ मिनट तक तुम दर्द से छटपटाते
रहोगे…और फिर तुम्हारी मौत हो जाएगी। कैदी ने पूछा कि आप कहना क्या चाहते हैं? डाक्टरों ने कहा कि हम
तुम्हारे साथ एक रीसर्च करना चाहते हैं, तुम्हें फांसी न देकर हम तुम्हें एक कोबरा सांप से डंसवा देंगे, इसमें तुम्हें
बस एक सुई चुभने के बराबर दर्द होगा और तुम 5 से 15 सेकंड में मर जाओगे। तुम्हें डेढ़ मिनट तक छटपटाना
नहीं पड़ेगा। लेकिन सब कुछ तुम्हारे हाथ में है, अगर तुम अनुमति दोगे तभी हम ऐसा करेंगे, वरना डेढ़ मिनट
तक दर्द में फांसी से ही मरना होगा। कैदी को भी यह तरीका ठीक लगा, उसने डेढ़ मिनट तक दर्द झेलने के बजाय
15 सेकंड में मरना उचित समझा। और बोला, ‘ठीक है, अगर मरना ही है तो यही तरीका सही।’ अब शुरू होता है
दिमाग़ का खेल। अगले दिन उसे एक स्टूल पर बैठाया गया, उसके सामने एक काले रंग का भयानक-सा किंग
कोबरा सांप लाकर रख दिया गया और उससे कहा गया कि देखो, यह दुनिया के सबसे जहरीले सांपों में से एक है
यह तुम्हें डंसेगा और तुम्हारी मौत हो जाएगी। आप कैदी की मनोस्थिति समझ सकते हैं। उसके पसीने छूटने लगे।
उसके दिमाग में अब यह चलने लगा कि सांप आएगा, डंसेगा और मैं मर जाऊंगा। मौत को सामने देखकर उसका
चेहरा सूखकर छोटा हो गया। उसके करीब सांप को लाकर रख दिया गया और उसका चेहरा और गर्दन उस काले
कपड़े से ढक दिए गए जो फांसी के वक्त पहनाया जाता है।
इसके बाद डाक्टरों ने उससे कहा कि अब सांप तुम्हारे पैरों की तरफ बढ़ रहा है, यह तुम्हें डंसेगा और तुम मर
जाओगे। यह कहकर उसके पैर में सांप से न डंसवा कर सिर्फ एक सुई चुभा दी गई। आश्चर्य होगा जानकर कि वह
कैदी उसी समय मर गया। इससे ज्यादा आश्चर्य की बात तब हुई जब उसका पोस्टमार्टम किया गया। पोस्टमार्टम
रिपोर्ट में यह पाया गया कि उसकी मौत किसी जहरीले जख्म के कारण हुई है जो अकसर सांप काटने से होता है।
यह सब दिमाग का खेल था, एक दिन पहले से ही उसके दिमाग में यह बात चलाई जा रही थी कि उसे सांप से
डंसवाकर मारा जाएगा। दिमाग उसी दिशा में सोचने लगा और दिमाग ने एक सुई के चुभन को भी सांप का डंसना
समझकर खुद को खत्म कर लिया। यह है विचारों की शक्ति। जैसे आप दिमाग में विचार लाते हैं, आपको वैसा ही
रिजल्ट मिलता है।
इसलिए हमेशा सजगता से पॉजिटिव बातों को ही दिमाग तक आने दें और सिर्फ पॉजिटिव ही सोचें। वरना एक बार
दिमाग में नेगेटिविटी प्रवेश कर गई तो दिमाग उसी दिशा में सोच-सोच कर आप के अंदर निराशा भर देगा। हमारी
भावनाएं हमारे दिमाग को प्रभावित करती हैं, हमारे व्यवहार को प्रभावित करती हैं और हमारी सफलता या
असफलता का कारण बनती हैं। यदि दिल में होगा कि मैं फलां काम नहीं कर सकता, यह तो मेरी काबिलीयत से
बड़ा है या मेरी औकात से बड़ा है, तो सच मानिए, मैं सही कह रहा हूं क्योंकि सारी कोशिशों के बावजूद मैं उसे
पूरा नहीं कर पाऊंगा, और अगर मैंने सोच लिया कि मैं कर सकता हूं तो मैं यह भी सच ही कह रहा हूं क्योंकि मैं
पूरा दिल लगाकर कोशिश करूंगा, जहां अड़चन आएगी वहां रास्ता ढूंढूंगा, किसी से सलाह लूंगा, किसी से सहायता
लूंगा, पर काम पूरा करके दिखाऊंगा। यह भी विचारों की शक्ति है। हमारा दिमाग हमारे विचारों से, हमारी
भावनाओं से चलता है। इसीलिए यह समझना आवश्यक है कि भावनाओं को बदले बिना या उन पर नियंत्रण पाए
बिना आप सफलता की चाबी हासिल नहीं कर सकते। सफलता की दूसरी चाबी है, हर किसी की सहायता करना,
बिना किसी लालच के, बिना किसी स्वार्थ के। उसकी भी जो जीवन भर कभी भी आपके किसी काम नहीं आ
सकता।
इससे लोगों के साथ आपके रिश्ते मजबूत हो जाएंगे। हमेशा से मेरा यही नियम रहा है। मेरे संपर्क में जो भी आया,
अगर मैं उसके लिए कुछ कर सकता था तो किया। बिना किसी भेदभाव के, बिना किसी लालच के। यह नहीं देखा
कि सामने वाला आदमी मेरे काम का है या नहीं, यह नहीं देखा कि सामने वाला आदमी मुझे कोई बिजनेस दे
सकता है या नहीं। किसी का काम करते हुए मैंने कभी छोटा-बड़ा नहीं देखा। मेरा कोई दोस्त हो, ग्राहक हो, एंप्लाई
हो या एक्स-एंप्लाई हो, अगर मैं भला कर सकता हूं तो किया। अगर उसे कोई समस्या थी और मेरे पास उसका
हल था तो बेहिचक उसकी सहायता की। परिणाम क्या हुआ? मेरा कोई भी काम अटकता था तो मैं जिसे फोन
करता था वह व्यक्ति मेरा काम करवाने के लिए जी-जान लगा देता था। लोग पैसे खर्च करके जो काम नहीं करवा
पाते थे, मेरी एक फोन कॉल से वह काम हो जाता था क्योंकि मेरा हर दोस्त मेरी मदद को हमेशा तैयार रहता है।
कार्पोरेट कल्चर में सोशल रेस्पांसिबिलिटी की बात की जाती है, लाभ का दो प्रतिशत सामाजिक कार्यों पर खर्च
करना कानूनन आवश्यक है। पंजाब इन बातों में एक कदम नहीं, कई कदम आगे है। पंजाब में गुरुद्वारा कल्चर है
जहां 24 घंटे लंगर की व्यवस्था होती है। कोई भी जाए, उसे खाना भी मिलेगा, रहने की जगह भी मिलेगी। यह
लंगर कभी खत्म नहीं होता। क्यों? हमारे देश में यह माना जाता है कि अपनी कमाई का दसवां हिस्सा समाज के
कल्याण में लगाया जाना चाहिए। पंजाबी में इसे दसौंध कहा जाता है। यही कारण है कि आपको देश भर में मंदिर,
धर्मशालाएं, लंगर और प्याऊ देखने को मिलते हैं। जब कोई इसे दसौंध मानकर समाज के कल्याण के लिए लगाता
है तो उसे लगता है कि उसने अपनी कमाई में से कुछ दिया। कुछ देने की इस भावना से अहंकार आता है कि मैंने
दिया। अपनी कमाई में से दिया। सिख समाज ने दसौंध की इस सीख में एक बात और जोड़ कर इसे वस्तुतः दैवीय
रूप दे दिया है। वे मानते हैं कि यह दसौंध उनकी कमाई का हिस्सा है ही नहीं। यह तो समाज का हिस्सा है, हम
तो सिर्फ कस्टोडियन हैं इस पैसे के। तो कुछ देने की भावना नहीं आई, अहंकार नहीं आया। यह हमारा पैसा है ही
नहीं। तो देना कैसा और अहंकार कैसा? यह भी विचारों की शक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण है। विचार बदले तो दुनिया
ही बदल गई। यदि आप अपनी दुनिया बदलना चाहते हैं तो दुनिया को कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ
अपने विचार बदल लीजिए, बाकी सब कुछ खुद-ब-खुद बदल जाएगा।